जलवायु

पश्चिमी विक्षोभ व कम दबाव प्रणालियों के दुर्लभ मेल से कई इलाकों में फट सकते हैं बादल, बाढ़-भूस्खलन की आशंका

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने छह जुलाई 2023 को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के ऊपर एक पश्चिमी विक्षोभ की उपस्थिति का संकेत दिया है

Akshit Sangomla, Lalit Maurya

आठ जुलाई 2023 से उत्तर पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से में भारी बारिश, बादल फटने के साथ अचानक बाढ़ और भूस्खलन जैसी घटनाएं घट सकती हैं। ऐसा पश्चिमी विक्षोभ और मॉनसून की कम दबावीय प्रणाली के दुर्लभ संयोग से हो सकता है।

पश्चिमी विक्षोभ (डब्ल्यूडी) एक प्रकार का अतिरिक्त उष्णकटिबंधीय तूफान है जो वायुमंडल की ऊपरी परतों में बनता है और उपोष्णकटिबंधीय जेट स्ट्रीम नामक तेजी से बहने वाली हवाओं के बैंड के जरिए भारत की ओर धकेला जाता है। वहीं दूसरी ओर, निम्न दबावीय प्रणाली, कम वायुमंडलीय दबाव का एक क्षेत्र है, जो आम तौर पर समुद्र और महासागरों के ऊपर बनता है। यह क्षेत्र बारिश का कारण बनता है।

पश्चिमी विक्षोभ और मॉनसूनी निम्न दबावीय प्रणाली के बीच इस तरह की परस्पर क्रिया दुर्लभ है, क्योंकि आमतौर पर पश्चिमी विक्षोभ मॉनसून के महीनों में नहीं बनते हैं। हालांकि जिस तरह से वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है उसने इस तरह की घटनाओं की संभावना बढ़ा दी है। यही वजह है कि गर्मी और मॉनसूनी महीनों के दौरान पश्चिमी विक्षोभ कहीं ज्यादा आम हो गए हैं।

गौरतलब है कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने छह जुलाई 2023 को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के ऊपर एक पश्चिमी विक्षोभ की उपस्थिति का संकेत दिया है। वहीं एक कम दबाव प्रणाली, जो मॉनसूनी बारिश में इजाफा करती है, वो बंगाल की खाड़ी में बन रही है।

इसके साथ ही आईएमडी ने 6 जुलाई को अगले पांच दिनों में उत्तराखंड, पूर्वी राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हिस्सों में बहुत ज्यादा बारिश की चेतावनी जारी की है, लेकिन इसका असर कहीं ज्यादा व्यापक हो सकता है।

इस बारे में मौसम विज्ञान विभाग के राष्ट्रीय वायुमंडलीय विज्ञान केंद्र और रीडिंग विश्वविद्यालय, यूके के अनुसंधान वैज्ञानिक अक्षय देवरस ने डाउन टू अर्थ (डीटीई) को बताया है कि, "मॉनसूनी गर्त जो निम्न दबावीय प्रणाली (एलपीएस) के प्रसार के लिए मार्ग प्रदान करता है, वो वर्तमान में अपनी सामान्य स्थिति से दक्षिण में है। ऐसे में निम्न दबावीय प्रणाली के भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों की ओर जाने की संभावना है।" उनके मुताबिक जहां इस निम्न दबावीय प्रणाली आठ से 11 जुलाई के बीच आसपास के वातावरण के संपर्क में आने की सम्भावना है।

जानिए क्यों बन रहे हैं यह समीकरण

यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के ट्रॉपिकल एंड हिमालयन मीटियोरोलॉजी विभाग के रिसर्च फेलो कैरन हंट ने डीटीई को बताया कि, "हम यह देखने के लिए पिछले कुछ हफ्तों से इंतजार कर रहे हैं कि क्या इस तरह की परस्पर क्रिया हो सकती है, क्योंकि यह पश्चिमी विक्षोभ और मॉनसून दोनों ही तत्व कुछ समय से अपनी जगह पर स्थिर हैं।"

हंट ने आगे बताया कि, "जब पूरे उत्तर भारत में मॉनसून तेजी से आगे बढ़ रहा हो और साथ ही उपोष्णकटिबंधीय जेट को उत्तर से वापस जाने में अधिक समय लग रहा हो तो पश्चिमी विक्षोभ और मॉनसून की आपसी प्रतिक्रिया के चलते उत्तर पश्चिम भारत में भारी बारिश होने की संभावना रहती है।"

इससे हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़, जम्मू-कश्मीर और राजस्थान के उत्तरी हिस्सों के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश के आसपास पश्चिमी हिस्सों में भारी बारिश हो सकती है। अक्षय देवरस के मुताबिक, इस अवधि में पश्चिमी उत्तराखंड, दिल्ली-एनसीआर और उत्तरप्रदेश के पश्चिमी इलाकों में भी कुछ प्रभाव पड़ने की उम्मीद है। वहीं भारी बारिश के चलते पहाड़ी राज्यों जैसे जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में अचानक बाढ़, भूस्खलन की घटनाएं हो सकती हैं और यात्रा में रुकावटें आ सकती हैं।

गौरतलब है कि पक्षिमी विक्षोभ और मॉनसून की कम दबाव प्रणाली के बीच परस्पर क्रिया के चलते जून 2013 में उत्तराखंड में विनाशकारी बाढ़ आई थी। इस त्रासदी में 5,000 से ज्यादा लोग लोग मारे गए थे और पहाड़ी इलाकों में बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान पहुंचा था। देवरस का कहना है कि, "हालांकि इस तरह का परस्पर मेल अक्टूबर जैसे मॉनसून के बाद के महीनों में सबसे ज्यादा बार होता है, लेकिन इन्हें जून और जुलाई के दौरान रिपोर्ट किया गया है।"

हंट का कहना है कि, “हमारे डेटाबेस के मुताबिक, जुलाई में पश्चिमी विक्षोभ (डब्ल्यूडी) का आना, दिसंबर और जनवरी में अपनी चरम घटना के मुकाबले केवल दस  फीसदी आम हैं। यदि हम विशेष रूप से मजबूत या सक्रिय डब्ल्यूडी पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो अनुपात और भी कम हो जाता है, जो केवल कुछ फीसद ही रहता है।" उनके अनुसार यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम उन्हें कैसे परिभाषित करते हैं।

वहीं देवरस के अनुसार, जुलाई के दौरान इस तरह के इंटरैक्शन की आवृत्ति जून की तुलना में करीब आधी है।

हंट ने इस तरह की परस्पर क्रिया की भविष्यवाणी करने में सामने आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि, "सबसे पहले, ये घटनाएं दुर्लभ हैं, इसलिए पूर्वानुमान मॉडल उन्हें कैसे नियंत्रित करते हैं, हमारे पास इस बात का बहुत ज्यादा अनुभव नहीं है।" उनके अनुसार इस तरह की आखिरी उल्लेखनीय घटना दस साल पहले 2013 में हुई थी, जो मौसम मॉडल विकास के लिहाज से काफी लंबा समय है।

उनका कहना है कि, "दूसरा इन अंतःक्रियाओं में नम हवा के बड़े द्रव्यमान और पश्चिमी हिमालय के पहाड़ों के बीच परस्पर क्रिया शामिल है। इन इंटरैक्शन में शामिल प्रक्रियाओं को मौसम पूर्वानुमान मॉडल में अच्छी तरह से दर्शाया नहीं गया है क्योंकि पहाड़ मॉडल ग्रिड वर्गों की तुलना में बहुत छोटे होते हैं।“

वहीं देवरस का कहना है कि अगले कुछ दिनों में आगामी परस्पर क्रिया की भविष्यवाणी, जून के अंत से प्रमुख संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान मॉडल द्वारा लगातार की जा रही है। ऐसे में इस पूर्वानुमान पर उन्हें काफी ज्यादा भरोसा है।

हंट के अनुसार, "इस बात के कुछ सुराग हैं जिनका उपयोग हम इस विशेष परस्पर क्रिया की गंभीरता का अनुमान लगाने के लिए कर सकते हैं।" उन्होंने बताया कि भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में मॉनसून पहले से ही अच्छी तरह से विकसित हो चुका है, इसलिए वहां हवा में प्रचुर मात्रा में नमी है।"

हालांकि हंट का यह भी कहना है कि आने वाला पश्चिमी विक्षोभ अपेक्षाकृत कमजोर और काफी दूर उत्तर की ओर स्थित है। जैसा कि सर्दियों के महीनों के बाहर होना आम है। ऐसे में उनका मानना है कि इस परस्पर क्रिया का प्रभाव 2013 के दौरान उत्तराखंड में हुई त्रासदी की तुलना में कम गंभीर और व्यापक होगा।

हंट ने बताया कि बारिश के साथ विशेषकर पहाड़ी इलाकों में बादल फटने की घटनाओं की आशंका है, क्योंकि मॉनसून के चलते पहले ही वायुमंडलीय अस्थिरता बनी हुई है। उनके अनुसार, "महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि जलवायु में आते बदलावों के चलते उपोष्णकटिबंधीय जेट वर्ष के अंत तक उत्तर भारत के आसपास बना रहता है। यही वजह है कि हम मई और जून के दौरान पश्चिमी विक्षोभ की आवृत्ति में उल्लेखनीय वृद्धि की प्रवृत्ति देख रहे हैं।"