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उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन, केवल नीति, नियम बनाने से नहीं चलेगा काम

लोगों को यह समझाना होगा कि आपदाओं के जोखिम क्या हैं, तब ही वे लोग समाधान की ओर प्रेरित होंगे और आपदाओं से होने वाला नुकसान कम होगा

DTE Staff

पीयूष रौतेला

उत्तराखंड हिमालय में आपदाओं के जोखिम में कमी के लिए जिस चीज की आवश्यकता है, वह है मनोवैज्ञानिक परिवर्तन, लेकिन हमारा सारा नीति, नियम और संस्थानों पर है। उत्तराखंड ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में हैं, जहां होने वाली कोई मानवीय गतिविधि पूरे क्षेत्र को नुकसान पहुंचा सकती है और आपदा को जनम दे सकती है। इसलिए आपदाओं को थामने और उससे होने वाले नुकसान को रोकने के लिए जन जागरूकता बहुत जरूरी है। हमारे देश में लिखित कानूनों का शायद सबसे बड़ा और सबसे व्यापक संग्रह है। हमारे यहां कानून तो बहुत हैं, लेकिन हम वास्तव में कानून का पालन करने वाले समुदाय नहीं हैं। गुजरात भूकंप और हिंद महासागर की सुनामी के बाद हमने आपदा प्रबंधन अधिनियम को त्वरित रूप से लागू किया। राज्य और जिला स्तर के साथ-साथ केंद्र में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण अस्तिव में आए, लेकिन इनमें से अधिकांश प्राधिकरणों में पदेन पदाधिकारी होते हैं और उनके पास पर्याप्त अधिकारी कर्मचारी तक नहीं हैं। नियम बनाने या संगठन बनाने से हमारी समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला है। विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जो हमारे व्यवहार और आदतों से संबंधित हैं। पिछले कुछ वर्षों की आपदा घटनाओं का विश्लेषण करने से किसी के पास इस बात से सहमत होने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है कि इनमें से अधिकांश हमारे अपने कार्यों की वजह से हो रहे हैं।

आपदा जोखिम कम करने के लिए हमें तीन मुख्य बातों पर ध्यान देना होगा। पहला- जोखिम संचार, दूसरा- समाधान को समझना और कार्यान्वित करना तीसरा- कौशलता प्रदान करना। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि आम जनता को उस जोखिम के बारे में पता नहीं है। अन्यथा कोई भी जानबूझकर अपने प्रियजनों की सुरक्षा को खतरे में नहीं डालेगा। जोखिम से संबंधित जानकारी जनता को आसानी से समझने योग्य तरीके से उपलब्ध कराई जानी चाहिए और इस तरह से डिजाइन और नियोजित किया जाना चाहिए कि जनता इनसे जुड़ें। मीडिया इसमें प्रमुख भूमिका निभा सकता है। यदि हम जोखिम से संबंधित जानकारी लोगों को उपलब्ध कराते हैं तो वे समाधान की मांग करेंगे। यह जिम्मेदारी तकनीकी संस्थानों की उठानी चाहिए। हमें यह भी समझना चाहिए कि अधिकांश निर्माण गैर-इंजीनियरों द्वारा किए जा रहे हैं। जैसे जगह का चयन, डिजाइन, लेआउट। जैसे- घर के मालिक द्वारा ठेकेदार या राजमिस्त्री के परामर्श किया जाता है और वे निर्माण कार्य शुरू कर देते हैं। हमारे पास ईंट बनाने वालों के साथ- निर्माण सामाग्री मुहैया कराने वालों को प्रशिक्षण देने के लिए देश में कोई संस्थागत तंत्र नहीं है। वे अपने अनुभव के माध्यम से सीखते हैं और वे जो सीखते हैं वह हमेशा सही नहीं होता।

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इसलिए इन राजमिस्त्रियों और ठेकेदारों द्वारा किए जा रहे निर्माण से पर्यावरण को नुकसान होगा, जो कहीं न कहीं लोगों को ही नुकसान पहुंचाएगा। आपदा सुरक्षित निर्माण तकनीकों में राजमिस्त्री और ठेकेदारों को व्यावहारिक प्रशिक्षण देने के लिए सचेत प्रयास की आवश्यकता है। इस महत्वपूर्ण पहल की सफलता के लिए बाजार में प्रशिक्षित राजमिस्त्रियों की मांग पैदा करना आवश्यक है, जिसके बिना राजमिस्त्री को प्रशिक्षित होने में कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता है। चिन्हित संवेदनशील क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियों को प्रतिबंधित करने के लिए उपयुक्त कार्यान्वयन तंत्र और दंडात्मक प्रावधानों के साथ भूमि उपयोग के नियम बनाए जाने चाहिए । साइट की उपयुक्तता का आकलन करने के लिए सरल उपकरण विकसित किए जाने चाहिए और इसके लिए स्थानीय लोगों की पारंपरिक प्रथाओं से सबक लिया जा सकता है।

आयशय यह है कि आपदाओं से होने वाले नुकसान को रोकने के िलए मीडिया और अन्य माध्यमों की भागीदारी से लोगों को पूरी तरह जागरूक किया जाए, उन्हें बताया जाए कि वे निर्माण के साथ जो-जो भी गतिविधियां कर रहे हैं, उसका स्थानीय स्तर पर क्या-क्या नुकसान हो सकता है और यह काम प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा किया जाना चाहिए। आपदा सुरक्षित प्रौद्योगिकियों को जमीन पर लागू करने के लिए प्रशिक्षित कर्मियों का एक वर्ग भी बनाया जाना चाहिए। नीति, नियम और संस्थान बनाना तो जरूरी है, साथ ही इन नियमों को कड़ाई से लागू भी करना जरूरी है। स द्वारा डिक्रिप्ट, कार्यान्वित और उपयोग किया जा सकता है। हालांकि यह इतना आसान नहीं है क्योंकि इसमें मनोवैज्ञानिक परिवर्तन शामिल है जो सुरक्षा को हमारी आदत बना देता है। निकट भविष्य में होने वाली या नहीं होने वाली किसी आपदा के खतरे को दूर करने के लिए चिंता करने और निवारक उपाय करने के लिए हेलमेट पहनने के इच्छुक व्यक्ति से यह अपेक्षा करना बहुत कम होगा। इसलिए निरंतर और समर्पित प्रयास बहुत जरूरी हैं।

(लेखक उत्तराखंड आपदा नियंत्रण एवं न्यूनीकरण केंद्र के निदेशक हैं)