जलवायु

जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया के एक तिहाई खाद्य उत्पादन पर मंडरा रहा है संकट

यदि वैश्विक स्तर पर हो रहा उत्सर्जन इसी दर से जारी रहता है तो दुनिया के खाद्य उत्पादक क्षेत्रों में वर्षा और तापमान में भारी परिवर्तन देखने को मिलेंगें

Lalit Maurya

यदि वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि और उत्सर्जन इसी दर से जारी रहता है तो सदी के अंत तक करीब एक तिहाई खाद्य उत्पादन पर संकट गहरा जाएगा| शोध के मुताबिक वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस उत्सर्जन के बढ़ते स्तर के चलते तापमान में भी तीव्र वृद्धि होगी|

हाल ही में यूएन द्वारा प्रकाशित "एमिशन गैप रिपोर्ट 2020" से पता चला कि यदि तापमान में हो रही वृद्धि इसी दर से जारी रहती है, तो सदी के अंत तक यह वृद्धि 3.2 डिग्री सेल्सियस के पार चली जाएगी। जिसके चलते जहां खाद्य उत्पादन में 31 फीसदी और मवेशियों से प्राप्त होने वाले उत्पादों में 34 फीसदी की गिरावट आ जाएगी| यह जानकारी हाल ही में फिनलैंड की आल्टो यूनिवर्सिटी द्वारा किए शोध में सामने आई है, जोकि अंतराष्ट्रीय जर्नल वन अर्थ में प्रकाशित हुआ है|

हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है जब इस बात का पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के चलते खाद्य उत्पादन और मवेशियों पर असर पड़ रहा है| लेकिन वैज्ञानिक तौर पर इस बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है कि इसका असर धरती के किन क्षेत्रों पर सबसे ज्यादा पड़ेगा|  

अध्ययन के मुताबिक तापमान में हो रही वृद्धि साथ ही बारिश और शुष्कता में आ रहे बदलावों के चलते विशेष तौर पर दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के साथ-साथ अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में खाद्य उत्पादन पर सबसे ज्यादा असर पड़ेगा| यह वो क्षेत्र है जो बदलती जलवायु और परिस्थितियों से निपटने और उसके अनुकूलन के लिए तैयार नहीं है, या फिर यह कहना ठीक रहेगा कि इन क्षेत्रों में अनुकूलन के लिए पर्याप्त क्षमता नहीं है|

शोधकर्ताओं द्वारा की गई गणना के अनुसार वर्तमान में फसलों का लगभग 95 फीसदी उत्पादन उन क्षेत्रों में होता है जिन्हें 'जलवायु सुरक्षित स्थानों' के रूप में परिभाषित किया जा सकता है| यह वो क्षेत्र है जहां तापमान, वर्षा और शुष्कता एक निश्चित सीमा के भीतर है और वहां परिस्थितियां उत्पादन के लिए अनुकूल हैं|

इन प्रभावों को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 27 सबसे महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसलों और सात अलग-अलग तरह के मवेशियों को कैसे प्रभावित करता उसे समझने का प्रयास किया है| साथ ही आने वाले वक्त में बदलती परिस्थितियों के साथ समाज किस तरह अनुकूलन करेगा उसका भी अध्ययन किया है| निष्कर्ष से पता चला है कि इनसे जुड़े खतरे देशों और महाद्वीपों को अलग-अलग तरह से प्रभावित करेंगें जबकि अध्ययन किए गए 177 देशों में से 52 में खाद्य उत्पादन जलवायु से जुड़े खतरों से सुरक्षित रहेगा| इनमें से ज्यादातर देश यूरोप के हैं|

अध्ययन के मुताबिक यदि बेनिन, कंबोडिया, घाना, गिनी-बिसाऊ, गुयाना और सूरीनाम जैसे देशों पर ध्यान नहीं दिया गया तो उनपर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा, यह देश पहले ही कृषि और खाद्य सुरक्षा से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहे हैं| यदि तापमान में हो रही वृद्धि इसी दर से ज्यादा रहती है तो मुमकिन है कि वर्तमान में खाद्य उत्पादन कर रहे करीब 95 फीसदी क्षेत्र सुरक्षित क्षेत्रों से बाहर होंगें| इन क्षेत्रों की अनुकूलन क्षमता पश्चिम के समृद्ध देशों के मुकाबले काफी कम है| कुल मिलाकर 20 फीसदी खाद्य उत्पादन और 18 फीसदी पशुधन उन देशों में है जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बहुत कम तैयार हैं|

यदि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की बात करें तो इसके कारण रेगिस्तानी क्षेत्रों में तीव्र वृद्धि होगी वहां सिंचाई की बिना शायद ही कुछ पैदावार हो सकेगी| अनुमान है कि सदी के अंत तक दुनिया भर में करीब 40 लाख वर्ग किलोमीटर रेगिस्तानी क्षेत्र और बढ़ जाएगा| आर्कटिक टुंड्रा की स्थिति भी और ज्यादा खराब हो जाएगी, यदि जलवायु परिवर्तन पर लगाम नहीं लगाई गई तो यह क्षेत्र पूरी तरह से गायब हो जाएगा। साथ ही, उष्णकटिबंधीय शुष्क वन और उष्णकटिबंधीय रेगिस्तानी क्षेत्रों के भी बढ़ने का अनुमान है।

क्या है समाधान

अनुमान है कि यदि उत्सर्जन में कमी न की गई तो बोरियल जंगल जो उत्तरी अमेरिका रूस और यूरोप में फैले हैं वो सदी के अंत तक 1.8 करोड़ वर्ग किलोमीटर से घटकर 1.48 करोड़ वर्ग किलोमीटर रह जाएंगें| उत्तरी अमेरिका में जहां यह क्षेत्र 67 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला है, वो 2090 में घटकर एक तिहाई रह जाएंगें| 

इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता मैटी कुमु ने बताया कि आने वाले समय में वैश्विक खाद्य उत्पादन का लगभग एक तिहाई हिस्सा खतरे में होगा और हमें इस बात से चिंतित होना चाहिए क्योंकि जिन स्थानों को हम जलवायु के खतरों से सुरक्षित समझते हैं वो काफी छोटे हिस्से में सिकुड़ जाएंगें, लेकिन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करके हम इन खतरों को कम कर सकते हैं| इससे बचने के लिए हमें खतरें में पड़े क्षेत्रों में लोगों और समाज को सशक्त करना होगा जिससे प्रभावों को कम किया जा सके और उससे निपटने के लिए अनुकूलन क्षमता बढ़ाई जा सके|

इस शोध में राहत की बात यह सामने आई कि यदि बढ़ते उत्सर्जन को कम कर दिया जाए और यदि हम तापमान में हो रही वृद्धि को पैरिस समझौते के अनुरूप 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस के बीच रोक पाने में सफल रहते हैं तो इसके ज्यादातर प्रभावों को सीमित किया जा सकता है| इस लिहाज से फसलों के उत्पादन में हो रही कमी घटकर 5 फीसदी और पशुधन को हो रहा नुकसान घटकर 8 फीसदी ही रह जाएगा| पर यह तभी संभव होगा जब हम तापमान में हो रही इस वृद्धि को रोक पाने में सफल रहेंगें| वर्ना हमें ऐसे कल के लिए तैयार रहना होगा, जो खाद्य उत्पादन के गंभीर संकट को झेल रहा होगा