जलवायु

जलवायु परिवर्तन का असर, गरीब देशों में 64 फीसदी तक जीडीपी हो सकती है प्रभावित

Lalit Maurya

जलवायु परिवर्तन के चलते सदी के अंत तक कमजोर देशों की करीब 63.9 फीसदी तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) प्रभावित हो सकता है। अंतराष्ट्रीय संगठन क्रिश्चियन एड द्वारा जारी एक नई रिपोर्ट लॉस्ट एंड डैमेज्ड में यह बात कही गई है। इस अध्ययन में जलवायु परिवर्तन के उन विनाशकारी आर्थिक प्रभावों पर प्रकाश डाला गया है जिसका असर दुनिया के सबसे गरीब देशों पर पड़ेगा।

यही नहीं इस रिपोर्ट में जलवायु में आ रहे बदलावों के चलते हो रहे नुकसान और क्षति से निपटने के उत्सर्जन में कटौती के लिए एक मजबूत प्रणाली की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक यदि ऐसा ही चलता रहा तो मौजूदा जलवायु नीतियों के अंतर्गत 2050 तक 65 निर्धन देशों की जीडीपी औसतन 19.6 फीसदी घट जाएगी, जबकि सदी के अंत तक अर्थव्यवस्था को होने वाला यह नुकसान बढ़कर 63.9 फीसदी पर पहुंच जाएगा। 

यही नहीं यदि तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री  सेल्सियस पर सीमित भी कर दिया जाए तो भी 2050 तक दुनिया के कमजोर देशों में जीडीपी को औसतन 13.1 फीसदी का नुकसान होगा जो सदी के अंत तक बढ़कर 33.1 फीसदी पर पहुंच जाएगा। इसमें कोई शक नहीं की इन देशों की अर्थव्यवस्था आज की तुलना में सदी के अंत तक कहीं ज्यादा बढ़ जाएगी। ऐसे में जलवायु परिवर्तन का जीडीपी पर बढ़ता प्रभाव बड़े खतरे की ओर इशारा करता है। 

अफ्रीकी देशों को होगा सबसे ज्यादा नुकसान

रिपोर्ट के अनुसार इसका सबसे ज्यादा नुकसान सूडान को होगा।  गौरतलब है कि सितंबर में आई भारी बारिश और बाढ़ के चलते सूडान में 3 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए थे। अनुमान है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो 2050 तक सूडान के जीडीपी को करीब 32.4 फीसदी का नुकसान होगा, जो सदी के अंत तक बढ़कर 83.9 फीसदी पर पहुंच जाएगा।

यहां तक की यदि 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल कर लिया जाए तो भी 2050 तक सूडान की अर्थव्यवस्था को 22.4 फीसदी का नुकसान होगा, जो सदी के अंत तक बढ़कर 51.4 फीसदी पर पहुंच जाएगा।   

रिपोर्ट से यह भी पता चला है कि इसका सबसे ज्यादा खतरा अफ्रीका को है। सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले शीर्ष दस देशों में से आठ देश अफ्रीका के ही हैं। अनुमान है कि जलवायु सम्बन्धी वर्तमान नीतियों के तहत इन सभी दस देशों में सदी के अंत तक जीडीपी में 70 फीसदी से ज्यादा की कमी आ जाएगी। वहीं 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि में भी यह नुकसान 40 फीसदी के आसपास रहने की सम्भावना है।   

इसी तरह यदि तापमान में होती वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोक भी लिया जाए तो भी सदी के अंत तक बांग्लादेश की करीब 38 फीसदी जीडीपी उससे प्रभावित होगी। 

हालांकि देखा जाए तो अफ्रीका इस बढ़ते उत्सर्जन के बहुत छोटे से हिस्से के लिए जिम्मेवार है जबकि उसे जलवायु में आ रहे बदलावों का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। ऐसे में विकसित देशों को अपनी जवाबदेही तय करनी होगी। 

गौरतलब है कि यदि तापमान में मौजूदा रफ्तार से वृद्धि होती रही तो करीब 2.9 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का होना लगभग तय है, जोकि पैरिस समझौते के लक्ष्यों से कहीं ज्यादा है। ऐसे में उत्सर्जन में कमी करना कितना जरुरी है उसकी अहमियत आप खुद ही समझ सकते हैं। ग्लासगो में चल रहा संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (कॉप 26) एक ऐसा मौका है जिसका फायदा लेना होगा, क्योंकि यदि हम इस बार चूक जाते हैं तो हर दिन के साथ जलवायु परिवर्तन का यह खतरा और बढ़ता जाएगा और शायद भविष्य में हम चाहकर भी इससे बच नहीं पाएंगे।