जलवायु

जलवायु परिवर्तन का पहला शिकार हो रहे हैं किसान

अभी जो परिवार खुद के खाने के लिए भोजन उगाते हैं वो सबसे सेहतमंद होते हैं, लेकिन अप्रत्याशित जलवायु जल्द इस प्रवृत्ति को बदल देगी

Richard Mahapatra

अब यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चरम अथवा अप्रत्याशित मौसमी घटनाओं से किसानों की आय को नुकसान पहुंचता है। जलवायु परिवर्तन से होने वाली इस आर्थिक क्षति को व्यापक स्वीकार्यता मिल चुकी है।

किसान ही जलवायु परिवर्तन को सबसे पहले महसूस करता है जो अंतत: समग्र किसी उत्पादन को प्रभावित करता है और खाद्य मुद्रास्फीति को बढ़ाने में योगदान देता है। खाद्य पदार्थों की महंगाई का सीधा मतलब है उपभोग में कमी और पोषण सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव।

बहुत से किसान परिवार खुद के उपभोग के लिए खाद्यान्न उपजाते हैं। इन किसान परिवारों ने इस तथ्य की पुष्टि की है- जो खुद का उगाया खाते हैं, वो सबसे सेहतमंद होते हैं। भारत जैसे देशों में जहां कुपोषण अधिक है और जहां खाद्य असुरक्षा बढ़ रही है, वहां ऐसे परिवारों ने घरेलू उत्पादन व्यवस्था के जरिए खुद को इन संकटों से खुद को बचाकर रखा है।

बहुत से अध्ययन भी बताते हैं कि ये परिवार बाजार के उतार-चढ़ाव से अप्रभावित हैं। इसी के चलते ये सेहतमंद भोजन को प्राप्त करते हैं। कह सकते हैं कि ये परिवार मुद्रास्फीति से प्रभावित नहीं होते। लेकिन अब इस बात पर गंभीर बहस भी होने लगी है कि कैसे जलवायु परिवर्तन जनित चरम मौसमी घटनाएं इन परिवारों पर असर डाल सकती हैं। हमें पोषण आवश्यकता और घरेलू खाद्य उत्पादन के बीच संबंध समझने के साथ ही यह भी जानना जरूरी है कि मौसम के उतार-चढ़ाव का क्या इससे कोई नाता है।

इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) का एक हालिया अध्ययन मौसम के प्रभावों और घरेलू खाद्य उत्पादन व्यवस्था के बीच संबंध की पड़ताल करता है। शोधकर्ता हिरोयूकी ताकेशिमा, सुनील सरोज और अंजनी कुमार ने ग्रामीण स्तर पर परिवारों के उत्पादन और उपयोग का अध्ययन किया और इसे स्थानीय मौसम की स्थिति से जोड़ा।

अध्ययन स्थापित करता है कि लोग अधिक उपभोग के लिए भोजन उपजा रहे हैं और इस तरह पोषण स्तर में सुधार कर समग्र खाद्य सुरक्षा हासिल कर रहे हैं। अध्ययन के अनुसार, “घर के लिए अनाज उपजाने पर प्रति परिवार हर माह औसतन 12.184 रुपए अधिक उपभोग पर खर्च हो रहा है।”

यह प्रवृत्ति केवल अनाज तक सीमित नहीं है। इस स्थिति में दलहन, डेरी उत्पाद, सब्जियों और फल भी उपभोग भी बढ़ जाता है। इसके अलावा अध्ययन यह भी स्थापित करता है कि बढ़ा हुआ उपभोग बच्चों में स्टंटिंग और अंडरवेट की स्थितियों को भी सुधारता है। साथ ही महिलाएं सामान्य बॉडी मास इंडेक्स प्राप्त करती हैं। यह प्रवृति दूरस्थ गांवों में अधिक देखी जा रही है।

घर के लिए उपजाने के “सकारात्मक प्रभाव” उल्लेखनीय रूप से तब और बढ़ जाते हैं, जब मौसम सामान्य के करीब होता है। जलवायु और उपभोग के बीच यह सबसे महत्वपूर्ण अंतर्संबंध है जिसे अध्ययन स्थापित करता है। अगर बरसात सामान्य से एक मानक विचलन (स्टैंडर्ड डेविएशन) के करीब है तो अनाज का उपभोग 12.282 रुपए तक बढ़ जाएगा। इसी तरह अगर तापमान सामान्य से एक मानक विचलन के आसपास है तो उपभोग में 5.723 रुपए की बढ़त होगी। इसका अर्थ यह है कि सामान्य मौसम सभी शारीरिक लाभ बढ़ाएगा।

इसका अर्थ यह भी है कि अगर परिवार मौसम की वितरीत स्थितियों को महसूस करेगा तो खाद्य और पोषण सुरक्षा पर नकारात्मक असर होगा। साथ ही सामान्य मौसम के बिना ऐसे परिवारों को बाजार पर निर्भर रहना होगा और भोजन पर पहले से अधिक खर्च करना पड़ेगा। इससे उनके आर्थिक हितों पर असर पड़ेगा।

अंतत: कह सकते हैं कि अब तक जलवायु संकट और आधुनिक बाजार आधारित कृषि व्यवस्था से अछूते रहे इन खाद्य उत्पादकों को जलवायु परिवर्तन अपनी गिरफ्त में लेने को बेताब है, इसलिए खाद्य उत्पादन की इस व्यवस्था को बड़ी सावधानी से देखने की जरूरत है।