यदि डोनाल्ड ट्रंप दोबारा जलवायु परिवर्तन को नकारे तो उन्हें सबूत के तौर पर भारत के सबसे बड़े शहर मुंबई में हुए जलप्रलय को दिखाया जा सकता है। 28 जून से हो रही मूसलाधार बारिश के चलते मुंबई ठहर सी गई है। 2 जुलाई की सुबह 8 बजकर 30 मिनट तक मुंबई के कोलाबा स्टेशन ने 137.8 मिलीमीटर वर्षा हासिल किया। जबकि पूरी मुंबई ने एक जून से एक जुलाई तक कुल 433.7 मिलीमीटर वर्षा हासिल किया। इसका मतलब है कि इस शहर ने एक महीने में हुई कुल वर्षा का एक तिहाई भाग (137.8 एमएम) कुल 8.5 घंटे में हासिल कर लिया।
एक जुलाई यानी सोमवार को शहर ने 92.6 मिलीमीटर वर्षा हासिल किया। यानी कुल डेढ़ दिन में मुंबईशहर ने 230.4 मिलीमीटर वर्षा प्राप्त की। यह मुंबई में ही महीने में हुई कुल वर्षा का 50 फीसदी है। यह कहानी अकेले मुंबई की नहीं है। पालघर में 1 जुलाई को 212 मिमी बारिश हुई, जो उस दिन की सामान्य बारिश का 593 प्रतिशत है।
इसी तरह अर्धशहरी मुंबई, रायगढ़ और ठाणे ने 90 मिलीमीटर से अधिक वर्षा हासिल की। पश्चिमी महाराष्ट्र के इस छोटे से हिस्से में भारी-भरकम वर्षा हुई। वहीं, राज्य के अन्य हिस्सों में बहुत कम जिलों ने वर्षा के आंकड़ों में बढ़त हासिल की अन्य सूखे ही रहे। 20 जून से 26 जून तक मुंबई ने 8.4 मिलीमीटर वर्षा हासिल किया, इस दौरान 95 फीसदी वर्षा में कमी दर्ज की गई। यदि पूरे सीजन में वर्षाजल के कमी की बात की जाए तो यह 70 फीसदी पर आकर खड़ी है। इस हफ्ते ही अत्यधिक वर्षा ने शहर को जलमग्न कर दिया।
इसी तरह की स्थिति 2018 में भी हुई थी। अब यह एक प्रवृत्ति बनती जा रही है। पहला, लंबे समय तक वर्षा नहीं होती है और दूसरा जब होती है तो अत्यधिक वर्षा होती है, जिसके कारण कुछ ही घंटों में बाढ व भूस्खलन जैसी स्थिति बन जाती है। केरल में सदी में एक बार आने वाली भयानक बाढ़ ने करीब 500 लोगों की जिंदगियों को लील लिया था। राज्य ने इस बाढ़ से पहले एक बहुत ही निष्क्रिय मानसून का अनुभव किया था। लेकिन जब बारिश शुरु हुई तो दो हफ्तों तक जारी रही।
यह बीते कई वर्षों से चलने वाला एक बेहद चिंताजनक तथ्य है। 2016 में लौटिए, मध्य प्रदेश और राजस्थान ने जुलाई-अगस्त में बाढ़ से ठीक पहले सूखे जैसी स्थिति का सामना किया था। वहीं, बिहार और असम ऐसे दो राज्य हैं जो पिछले तीन दशक से भयावह बाढ़ का सामना कर रहे हैं, यहां भी मानसून और बारिश की कमी जैसे अनुभव शामिल हैं।
इतना ही नहीं बीती एक शताब्दी के वैश्विक वर्षा के आंकड़े एक खतरे की प्रवृत्ति की तरफ इशारा कर रहे हैं। वर्षा के दिन कम हो रहे हैं जबकि वर्षा की गतिविधि बहुत ही कम समय अंतराल में 10 से 15 सेंटीमीटर प्रतिदिन के हिसाब से तीव्र वर्षा हो रही है। इसका मतलब है कि अत्यधिक मात्रा में पानी बहुत कम ही समय में गिर रहा है। मिसाल के तौर पर वैश्विक स्तर पर 50 फीसदी वर्षा और उससे जुड़ी अन्य गतिविधियां 11 दिनों में पूरी हो जाती हैं।
अक्तूबर, 2017 के दौरान जर्नल नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि मध्य भारत में वृहत स्तर पर अत्यधिक वर्षा वाली गतिविधियां 1950 से 2015 के बीच, कुल 66 वर्षों में तीन गुना अधिक बढ़ गया है। अध्ययन में यह भी कहा गाय है कि 10 से 30 फीसदी वर्षा वाली गतिविधियां सभी क्षेत्रों में बढ़ी हैं जहां मानसून के कमजोर होने के बावजूद 150 मिलीमीटर वर्षा एक दिन में रिकॉर्ड की गई है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, गांधीनगर के एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि दक्षिणी और मध्य भारत में अत्यधिक वर्षा वाली गतिविधियां बढ़ेंगी। वहीं, इस अतिशय गतिविधि को जलवायु परिवर्तन और वैश्विक ताप से जोड़ा गया है।