अध्ययनों से उत्तराखंड के ग्लेशियर और पेरी-ग्लेशियल क्षेत्रों में सिकुड़ते ग्लेशियरों और अन्य प्रक्रियाओं से संबंधित खतरों में वृद्धि हो रही है। प्रतीकात्मक तस्वीर  फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स
जलवायु

ग्लेशियरों के पिघलने से प्राकृतिक आपदाओं की जद में हैं पहाड़ी इलाके

पिछले एक दशक में हुई कुछ प्रमुख ग्लेशियर संबंधी आपदाएं आई हैं, जिनमें उत्तराखंड में साल 2013 और 2021 में दो ग्लेशियर से संबंधित आपदाएं दर्ज की गई हैं।

Dayanidhi

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने कहा है कि सरकार ने जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों के पिघलने को गंभीरता से लिया है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (एमओईएस), विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी), विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के माध्यम से वित्त पोषित कई भारतीय संस्थानों, विश्वविद्यालयों और संगठनों के माध्यम से ग्लेशियरों, जिनमें ग्लेशियरों का पिघलना भी शामिल है, पर विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययन किए गए हैं।

हिमाचल प्रदेश के चंद्रा बेसिन में छह ग्लेशियरों की निगरानी राष्ट्रीय ध्रुवीय और महासागर अनुसंधान केंद्र (एनसीपीओआर) द्वारा की जाती है, जो कि एमओईएस के तहत एक स्वायत्त संस्थान है। ताकि ग्लेशियरों की जलवायु परिवर्तन के प्रति अलग-अलग प्रतिक्रिया और नीचे की ओर बहने वाले जल विज्ञान पर इसके प्रभाव को समझा जा सके।

एनसीपीओआर द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि चंद्रा बेसिन की दो प्रमुख ग्लेशियल झीलों (समुद्र टापू और गेपांग गथ) ने पिछले पांच दशकों (1971-2022) में इस क्षेत्र और मात्रा में पर्याप्त विस्तार देखा जा रहा है, जो ग्लेशियर से बनी झील के फटने से आने वाली बाढ़ (जीएलओएफ) के लिए उनके खतरे की आशंका के लिए अहम है।

डीएसटी के स्वायत्त संस्थान वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (डब्ल्यूआईएचजी) द्वारा किए गए अध्ययनों से उत्तराखंड के ग्लेशियर और पेरी-ग्लेशियल क्षेत्रों में सिकुड़ते ग्लेशियरों और अन्य प्रक्रियाओं से संबंधित खतरों में वृद्धि की जानकारी है। इन खतरों में ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ), मलबे का प्रवाह और मोरेन विफलताएं शामिल हैं।

विज्ञप्ति में कहा गया है है डीएसटी ने ग्लेशियरों के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने के लिए अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं को भी वित्त पोषित किया है। बेंगलुरु के भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) जलवायु परिवर्तन के लिए दिवेचा केंद्र मौजूदा और संभावित ग्लेशियर झीलों का मानचित्रण कर रहा है।

यह सिक्किम और उत्तराखंड में कई ऐसे स्थलों की पहचान कर रहा है जिसके कारण यहां अचानक बाढ़ आ सकती हैं। इसके अलावा डीएसटी ने हिमालयी क्रायोस्फीयर पर एक नेटवर्क कार्यक्रम स्थापित किया है, जो राष्ट्रीय सतत हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र (एनएमएसएचई) मिशन के तहत ग्लेशियर अनुसंधान के विभिन्न विषयों पर क्षेत्र आधारित छह परियोजनाओं का समर्थन करता है।

विज्ञप्ति के अनुसार, जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग (डीओडब्ल्यूआर, आरडी और जीआर), जल शक्ति मंत्रालय (एमओजेएस) ने वर्ष 2023 में रुड़की के राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (एनआईएच) में क्रायोस्फीयर और जलवायु परिवर्तन अध्ययन केंद्र की स्थापना की है, ताकि भविष्य में जल उपलब्धता की चिंता को दूर करने के लिए देश में बर्फ और ग्लेशियर संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन की सुविधा मिल सके।

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, खान मंत्रालय ने ग्लेशियर के पीछे हटने और आगे बढ़ने के पैटर्न का आकलन करने के लिए नौ ग्लेशियरों पर द्रव्यमान संतुलन अध्ययन और 90 ग्लेशियरों की गतिविधि का अध्ययन किया है।

जी.बी. पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान, जो कि एमओईएफएंडसीसी का एक स्वायत्त संस्थान है, हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के अध्ययनों में भी शामिल रहा है, जिसमें इलाके की माप और रिमोट सेंसिंग दृष्टिकोण के माध्यम से स्नाउट मॉनिटरिंग, पिघलने की दर, द्रव्यमान संतुलन और जल गुणवत्ता और मौसम संबंधी अध्ययन शामिल हैं।

हिमालयी ग्लेशियरों के महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दों को लेकर विज्ञान-आधारित चर्चा और नीति नियोजन की सुविधा के लिए संस्थान द्वारा "हिमालयी ग्लेशियर: ग्लेशियल अध्ययन, ग्लेशियल रिट्रीट और जलवायु परिवर्तन की एक अत्याधुनिक समीक्षा" पर एक शोध पत्र तैयार किया गया था। इसके अलावा एमओईएफएंडसीसी राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन (एनएमएचएस) के तहत ग्लेशियर संबंधी अध्ययनों को भी वित्तपोषित कर रहा है।

विभिन्न राज्यों और विशेषज्ञ संस्थानों द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार, पिछले एक दशक में हुई कुछ प्रमुख ग्लेशियर संबंधी आपदाएं आई हैं, जिनमें उत्तराखंड में साल 2013 और 2021 में दो ग्लेशियर से संबंधित आपदाएं दर्ज की गई हैं। वहीं लद्दाख में साल 2021 में एक और 2023 में सिक्किम में एक ग्लेशियर संबंधी आपदा दर्ज की गई है।

प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि इसके अलावा हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, पिछले एक दशक के दौरान राज्य में ग्लेशियर पिघलने से होने वाली ऐसी कोई आपदा सामने नहीं आई है।