जलवायु

नब्बे प्रतिशत से अधिक भारतीय ग्लोबल वार्मिंग से चिंतित!

Anil Ashwani Sharma

नए अध्ययनों से पता चलता है कि भारतीय जलवायु परिवर्तन के बारे में तेजी से जागरूक हो रहे हैं, लेकिन देश भर में इसकी धारणाओं और इसकी समझ के बारे में महत्वपूर्ण अंतर है।

यहां यह बात याद रखने की है कि जलवायु परिवर्तन के बारे में वास्तव में जनता की राय, वैज्ञानिकों के संदेश, स्थानीय वास्तविकताओं और सामाजिक-आर्थिक के जटिल अंतर्संबंध से बनती हैं, जैसा कि अध्ययनों में पाया गया है।

ग्लोबल वार्मिंग और इसके कारणों की बढ़ती मान्यता के बावजूद, भारत में जनता की राय वैज्ञानिक संदेश, स्थानीय वास्तविकताओं और सामाजिक-आर्थिक कारकों के जटिल अंतर्संबंध से बनती हैं। नेचर इंडिया ने जलवायु परिवर्तन धारणा पर हाल के अध्ययनों के परिणामों की विस्तृत जांच की है।

 येल प्रोग्राम ऑन क्लाइमेट चेंज कम्युनिकेशन और सेंटर फॉर वोटिंग ओपिनियन एंड ट्रेंड्स इन इलेक्शन रिसर्च (सीवोटर्स) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि 90 प्रतिशत से अधिक भारतीय ग्लोबल वार्मिंग के बारे में चिंतित हैं।

सर्वेक्षण में शामिल आधे से अधिक लोगों ने गहरी चिंता व्यक्त की। 2,178 वयस्कों के बीच किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि लगभग 92 प्रतिशत भारतीय ग्लोबल वार्मिंग को या तो बेहद महत्वपूर्ण, बहुत महत्वपूर्ण या कुछ हद तक महत्वपूर्ण मानते हैं।

यह भी दर्शाता है कि 53 प्रतिशत का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग पहले से ही लोगों को नुकसान पहुंचा रही है और अधिकांश मानते हैं कि यह पौधों और जानवरों की प्रजातियों को नुकसान पहुंचाएगी और वर्तमान व भविष्य की पीढ़ियों को प्रभावित करेगी।

सर्वेक्षण के सह-लेखक और टेक्सास ए एंड एम फारेस्ट सर्विस में भू-स्थानिक डेटाबेस प्रशासक नागा रघुवीर मोडाला कहते हैं कि हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि भले ही भारत अविश्वसनीय रूप से विविधतापूर्ण है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के बारे में लोगों के विचार कई मामलों में काफी स्थिर हैं।

उन्होंने कहा कि भारतीय ग्लोबल वार्मिंग में जीवाश्म ईंधन की भूमिका को अब अच्छी से समझने लगे हैं। सर्वेक्षण से जलवायु धारणाओं में महत्वपूर्ण क्षेत्रीय अंतर भी सामने आते हैं। गुजरात और महाराष्ट्र जैसे कुछ क्षेत्रों में लोगों में जागरूकता का स्तर अधिक है तो वहीं उत्तर प्रदेश के खीरी जैसे कम शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग के बारे में बहुत कुछ या कुछ ही जानते हैं।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर राधिका खोसला का कहना है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन की धारणाएं बहुत सूक्ष्म हैं और भारत में जलवायु और शिक्षा नीतियों को बेहतर ढंग से सूचित करने तथा उनका समर्थन करने के लिए अधिक क्षेत्रीय रूप से अनुकूलित शैक्षिक संसाधनों की आवश्यकता है। क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के वरिष्ठ व्याख्याता और सर्वेक्षण के मुख्य जगदीश ठाकर ने कहा कि जहां कई भारतीय जलवायु परिवर्तन से चिंतित हैं, वहीं इसकी बारीकियों को समझने में एक अंतर दिखता है।

वह बताते हैं कि जागरूकता की कमी का मतलब यह नहीं है कि वे इसके बारे में चिंतित नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि वे नहीं जानते कि इसे ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है और यह मानवीय गतिविधियों के कारण होता है। वैज्ञानिक सहमति जलवायु परिवर्तन के संदेह को कम करती है।

भारत सहित 27 देशों के एक अन्य अध्ययन से पता चलता है कि मानव के कारण जलवायु परिवर्तन पर वैज्ञानिक सहमति की जानकारी से गलत धारणाएं काफी कम हो जाती हैं और इसके अस्तित्व और कारणों में विश्वास थोड़ा बढ़ जाता है।

एम्स्टर्डम विश्वविद्यालय से बोजाना वेक्कालोव और वियना विश्वविद्यालय से सैंड्रा गीगर सहित शोधकर्ताओं ने पाया कि जब लोगों को बताया गया कि 97 प्रतिशत से 99.9 प्रतिशत जलवायु वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता और मानवीय कारणों पर सहमत हैं तो उनके विचार बदल गए।

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना में शामिल एक भारतीय जलवायु वैज्ञानिक अखिलेश गुप्ता कहते हैं कि जलवायु चरम सीमाओं का व्यक्तियों और स्थानों पर असमान रूप से प्रभाव पड़ता है। लोगों की धारणा और अनुभव उनकी आर्थिक स्थिति और स्थानों ( कम आपदा ) के आधार पर भिन्न होते हैं और यही एक कारण है कि वैज्ञानिक निष्कर्षों में उनका भरोसा भी भिन्न होता है।  

गुप्ता इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि गलत सूचना, गलत धारणाएं और राजनीतिक गतिविधियां सार्वजनिक धारणा को धुंधला कर सकती हैं, भले ही मानव के कारण जलवायु परिवर्तन पर पर्याप्त वैज्ञानिक सबूत हों। वह 2007 की आईपीसीसी रिपोर्ट में गलत बयान का हवाला देते हैं जिसमें भविष्यवाणी की गई थी कि हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक गायब हो जाएंगे, जिससे हिमालय के ग्लेशियरों को नुकसान पहुंचा।