जलवायु

छह महीनों में आपदाओं के चलते लगी 5 लाख करोड़ से ज्यादा की चपत, 4,300 की गई जान

Lalit Maurya

2022 के शुरूआती छह महीनों यानी जनवरी से जून के बीच आई प्राकृतिक आपदाओं के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को 5.1 लाख करोड़ रुपए (6,500 करोड़ डॉलर) से ज्यादा का नुकसान हुआ था। इतना ही नहीं इन आपदाओं में करीब 4,300 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। यह जानकारी हाल ही में जर्मन बीमा कंपनी म्यूनिख रे द्वारा जारी रिपोर्ट में सामने आई है।

रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से आधे से करीब ज्यादा का बीमा था, जोकि करीब 2.7 लाख करोड़ रुपए (3,400 करोड़ डॉलर) के बीच बैठता है। हालांकि पिछली साल इस दौरान आई आपदाओं के चलते अर्थव्यवस्था को करीब 8.3 लाख करोड़ रुपए (10,500 करोड़ डॉलर) का नुकसान हुआ था, जबकि 2,300 लोगों की जान गई थी।

वहीं 2020 में इस अवधि के दौरान आई त्रासदी में 3300 लोगों की जान गई थी जबकि 7.8 लाख करोड़ (10,000 करोड़ डॉलर) रुपए का नुकसान झेलना पड़ा था। वहीं इसमें से करीब 33 फीसदी का बीमा हुआ था। देखा जाए तो इन आपदाओं में एक बड़ी हिस्सेदारी मौसम से जुड़ी घटनाओं की है जो कहीं न कहीं जलवायु में आते बदलावों से प्रेरित हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी से जून के बीच जलवायु से जुड़ी कई आपदाओं ने लोगों और अर्थव्यवस्था को अपना निशाना बनाया था जिनमें अमेरिका में आया तूफ़ान, जापान और अफगानिस्तान में आए भूकंप, यूरोप में आए विंटर स्टॉर्म और ऑस्ट्रेलिया में आई भीषण बाढ़ से लेकर अमेरिका, यूरोप सहित दुनिया के कई हिस्सों में चल रही लू और सूखा शामिल था।

रिपोर्ट की मानें तो इन आपदाओं के चलते सबसे ज्यादा नुकसान अमेरिका को उठाना पड़ा था। अनुमान है कि 2022 के पहले छह महीनों में अमेरिका को कुल 2.2 लाख करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ था। उसके बाद एशिया पैसिफिक क्षेत्र को करीब 1.7 लाख करोड़ रुपए, यूरोप को 86,456.7 करोड़ रुपए और अफ्रीकी अर्थव्यवस्था को करीब 15,720 करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा था। 

यदि इन छह महीनों की सबसे महंगी आपदा की बात करें तो वो 16 मार्च 2022 को जापान में आया भूकंप था, जिसमें करीब 69,165  करोड़ रुपए का नुकसान जापान को उठाना पड़ा था। इसी तरह 22 फरवरी से 08 मार्च के बीच ऑस्ट्रेलिया में आई बाढ़ में 22 लोगों की मृत्यु हो गई थी जबकि अर्थव्यवस्था को करीब 46,372 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था।

पता चला है कि इस दौरान क्वींसलैंड और न्यू साउथ वेल्स के कुछ हिस्सों में रिकॉर्ड बारिश और बाढ़ दर्ज की गई थी। हालांकि फरवरी के अंतिम सप्ताह में कुछ हिस्सों में तापमान 1900 के बाद से सबसे ज्यादा था, जबकि कुछ क्षेत्रों में 1893 के बाद यह पहला मौका है जब इतनी भीषण बाढ़ आई थी।

इसी तरह हाल ही में 9 से 15 मई के बीच चीन में आई बाढ़ में भी 15 लोगों की जान गई थी जबकि 30,652 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। वहीं 16 से 21 फरवरी के बीच यूरोप में आए विंटर स्टॉर्म ने भी अपना कहर ढाया था जिसमें 18 लोगों की मौत हो गई थी वहीं अर्थव्यवस्था को 40,870 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था।

एशिया में सबसे ज्यादा 2,400 लोगों की हुई है मौत 

यदि इन आपदाओं में हुई मौतों की बात करें तो इनकी वजह से पिछले छह महीनों में 4,300 लोगों की जान गई है। हाल ही में 22 जून को अफगानिस्तान में आए भूकंप में 1,200 लोगों की मौत हो गई थी। वहीं 09 से 16 अप्रैल के बीच दक्षिण अफ्रीका में आई बाढ़ ने 460 लोगों की जिंदगियों को लील लिया था।

इसी तरह 16 से 23 जून में अफगानिस्तान में आई बाढ़ में 400 जबकि 15 फरवरी को ब्राजील में हुए भूस्खलन और बाढ़ में 230 लोगों की मौत हुई थी। वहीं 11 से 13 अप्रैल के बीच फिलीपीन्स में आई उष्णकटिबंधीय तूफान 'मेगी' की वजह से 210 लोगों को असमय जान से हाथ धोना पड़ा था।

देखा जाए तो इनमें से सबसे ज्यादा 2,400 मौतें एशिया पैसिफिक और कैरिबियन क्षेत्र में हुई हैं, जबकि उसके बाद अफ्रीका में 980 लोगों की जान गई थी। वहीं यूरोप में 54 और अमेरिका में 50 लोग इन आपदाओं की वजह से असमय काल के गाल में समा गए थे।

विनाश की वजह बन रहा है बढ़ता तापमान

इसी तरह गर्मियों की शुरुआत से ही यूरोप के कई हिस्सों में भीषण गर्मी पड़ रही है। पानी की कमी और सूखे की स्थिति के चलते स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर हो गई। है, जिसकी वजह से जंगलों में भीषण आग लगने की घटनाएं भी सामने आई थी।

खासकर इटली, स्पेन और पुर्तगाल में स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर है। हालांकि इसके बावजूद गर्मी और सूखे से हुए नुकसान का सटीक आंकलन मुश्किल है। इसकी वजह से न केवल कृषि बल्कि औद्योगिक उत्पादन पर भी असर पड़ा है। मई और जून में तापमान में होती वृद्धि के कारण, डोलोमाइट्स (इटली) के सबसे ऊंचे पर्वत पर मार्मोलाडा में बड़े पैमाने पर ग्लेशियर पिघल गए थे।

वर्तमान में भी यूरोप के कई हिस्से लू की चपेट में हैं। देखा जाए तो जलवायु में आता बदलाव यूरोप में बढ़ते तापमान की वजह है। यूरोप के कई क्षेत्रों में वार्षिक औसत तापमान में होती वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार कर गई है जो वैश्विक औसत तापमान में होती वृद्धि से भी कहीं ज्यादा है। इस बारे में  म्यूनिख रे के मुख्य जलवायु वैज्ञानिक अर्नस्ट राउच का कहना है कि जिन दिनों में तापमान उतना ज्यादा नहीं होता था उनमें अब वो गर्म हुआ करेगा। वहीं जो दिन गर्म हुआ करते थे वे अब बहुत गर्म हो जाएंगें। उनके अनुसार सूखा और जंगल की आग इसका प्रत्यक्ष परिणाम हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार बढ़ते तापमान के चलते दुनिया भर में भीषण गर्मी, सूखा और जंगल में लगने वाली आग की घटनाओं के मामले पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा बढ़ गए हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले वक्त में स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर हो जाएगी।

1 डॉलर = 78.6 भारतीय रुपए