पिछले कुछ दशकों में जिस तरह मॉनसून के दौरान आकस्मिक रूप से भारी बारिश हो रही है। यह महज इत्तेफाक नहीं हो सकता कि साल दर साल मानसून की अनियमितता बढ़ती जा रही है, कभी भारी बारिश हो रही है तो कभी कई जगहों पर सूखा पड़ रहा है। हाल ही में, जर्नल ऑफ क्लाइमेट में छपे अध्ययन के अनुसार जलवायु में आ रहे बदलावों के चलते पिछली सदी से मॉनसून का मिजाज बदल रहा है। जिसके कारण दुनिया के मानसून आधारित क्षेत्रों में होने वाली वर्षा में रिकॉर्ड वृद्धि दर्ज की गयी है। यह अध्ययन वैश्विक रूप से पृथ्वी की भूमध्य रेखा से उत्तर और दक्षिण में फैले मानसून क्षेत्रों की एक व्यापक तस्वीर प्रस्तुत करता है। जोकि भारत, चीन, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के पूर्वी भूभाग में फैले हुए हैं। अध्ययन में इन क्षेत्रों में होने वाली भारी वर्षा, उसकी तीव्रता और ग्लोबल वार्मिंग के बीच के सम्बन्ध को दिखाया गया है।
इस अध्ययन के शोधकर्ता प्रोफेसर झोउ तियाएनजून ने बताया कि दुनिया के इन मानसून क्षेत्रों में होने वाली भारी बारिश पर अधिक ध्यान देने की जरुरत है, क्योंकि एक तो यहां दुनिया के अन्य हिस्सों से अधिक बारिश होती है। दूसरा यह क्षेत्र दुनिया की लगभग दो तिहाई आबादी को आसरा प्रदान करता है । प्रोफेसर झोउ तियाएनजून चायनीज एकाडेमी ऑफ साइंसेज में प्रोफेसर हैं।
इसे व्यापक स्तर पर समझने के लिए वैज्ञानिकों ने वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर उपलब्ध वर्षा और जलवायु के अनेक डेटासेटों को विश्लेषण किया है। जोकि लम्बे समय से एकत्रित किये जा रहे थे और जिनके आंकड़ों की गुणवत्ता बहुत अच्छी थी। गौरतलब है कि यह अध्ययन 1901 से 2010 की अवधि के दौरान कुल 5066 स्टेशनों से एकत्र किये गए जलवायु और वर्षा के आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित है। इसमें हर स्टेशन के कम से कम 50 वर्षों के रिकॉर्ड का अध्ययन किया गया है।
वैज्ञानकों द्वारा किये गए सांख्यिकीय विश्लेषणों से पता चला कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते क्षेत्रीय स्तर पर होने वाली भारी बारिश की तीव्रता में व्यापक परिवर्तन हो रहा है। वैज्ञानिकों ने विभिन्न समयावधि, स्टेशनों और अलग-अलग डेटासेटों का विश्लेषण करके देखा पर सभी में ग्लोबल वार्मिंग और बारिश के बीच समान सम्बन्ध देखा गया । वैज्ञानिकों के अनुसार यदि दुनिया के मानसून क्षेत्रों को एक साथ देखें तो इनमें होने वाली भारी बारिश में ग्लोबल वार्मिंग के चलते वृद्धि हो रही है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने विशिष्ट क्षेत्रीय विशेषताओं का भी ध्यान में रखा है।
प्रो झोउ ने बताया कि "ऐसा इसलिए है, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के अलावा जलवायु में स्वाभाविक रूप आने वाला परिवर्तन, एरोसोल और नगरीकरण जैसी क्षेत्रीय विशेषताएं भी भारी बारिश को प्रभावित करती हैं।" "यह प्रभाव क्षेत्रीय पैमानों पर जैसे कि एशिया और ऑस्ट्रेलिया के मानसून क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।" प्रो झोउ ने बताया कि अभी भी भारी बारिश में आने वाली परिवर्तनों को समझने में कई चुनौतियां हैं। आज भी स्थानीय स्तर पर अलग-अलग समय पर किये गए अवलोकन सम्बन्धी आंकड़ों का भारी अभाव है । साथ ही निगरानी और आपस में डेटा साझा करने की प्रक्रिया में सुधार करने की आवश्यकता है ।
भारत पर असर
भारत में भी हाल के दशकों में मानसून के मौसम में होने वाली भारी बारिश में काफी वृद्धि और तीव्रता देखी गयी है, यही वजह है इसके चलते केरल में भारी बाढ़ आयी थी, जिसने हजारों लोगों का जीवन तहस नहस कर दिया था। उसी तरह अगस्त 2018 में भी केरल में बाढ़ आयी थी, जिसमें 445 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। 2017 में गुजरात, जुलाई 2016 में असम, 2015 में फिर से गुजरात और 2013 में उत्तराखंड में आयी भयंकर त्रासदी को शायद ही कोई भुला होगा। इससे पहले भी पिछले कुछ दशकों में जिस तरह मानसून के दौरान आकस्मिक रूप से भारी बारिश हो रही है। यह महज इत्तेफाक नहीं हो सकता कि साल दर साल मानसून की अनियमितता बढ़ती जा रही है, कभी भारी बारिश हो रही तो कभी कई जगहों पर सूखा पड़ रहा है।
अध्ययन के अनुसार 20 वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में होने वाली भारी बारिश में कमी दर्ज की गयी है। अभी हाल के दशकों में भारत में क्षेत्रीय स्तर पर मानसून में होने वाली भारी बारिश में काफी बदलाव आ रहा है। जहां भारत के पश्चिमी हिस्सों और मध्य क्षेत्र में भारी वर्षा में वृद्धि हो रही है, वहीं दूसरी ओर उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम और उत्तर भारत में इसमें कमी देखी गयी है।वैज्ञानिक वातावरण में मानवजनित एरोसोल (हवा में ठोस या तरल कण) के बढ़ते स्तर को इसकी पीछे की वजह मान रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन का असर निश्चित तौर पर हमारे मानसून पर पड़ रहा है। वरना 2006 और 2017 में मुंबई सहित पूरे मध्य भारत में बाढ़ ने अपना कहर न ढाया होता । भारत में जिस तेजी से तापमान में वृद्धि हो रही है, वो निश्चित ही सबके लिए चिंता का विषय है। आंकड़े दर्शाते है कि 1901-2015 के बीच मध्य और उत्तरी भारत में व्यापक रूप से चरम वर्षा की घटनाओं में तीन गुना वृद्धि हुई है। जिसके पीछे मानव द्वारा उत्सर्जित हो रही ग्रीन हाउस गैसों का एक बड़ा हाथ है। हम भले ही कितनी भी कोशिश कर पर इस सच्चाई को झुठला नहीं सकते और अगर हम आज नहीं चेते तो हमारे पास पछताने के सिवा कुछ नहीं बचेगा और ऐसे में हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या जवाब देंगे, इसका उत्तर आपको ही सोचना है।