वर्ष 2010 में विकासशील देशों ने विकसित देशों के ऊपर कार्बन डेब्ट (उत्सर्जन की सीमा तय करने वाले ऋण) को खत्म कर दिया। विकासशील देश जलवायु परिवर्तन से हो रहे नुकसान के सबसे बड़े भुक्तभोगी होने के बावजूद कार्बन उत्सर्जन को बढ़ाने को लेकर सहमतियां बनाते रहे। वे जलवायु संकट की जरूरत और परिस्थिति की गंभीरता को समझे बिना ही उत्सर्जन बढ़ाने की तरफ कदम बढ़ाते रहे। विकसित देश हमेशा से ऐसी स्थिति ही चाहते थे।
वर्ष 2010 में हुए कानकुन बैठक में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के दौरान तय वैश्विक उत्सर्जन मापदंड भी अपना प्रभाव खोता गया। बहुउद्देशीय कोशिश होने के बदले जलवायु पर होने वाली चर्चाएं जलवायु के साथ समझौता बनकर ही रह गई हैं।
कैसे हमने दोषी को यूं ही जाने दिया
कानकुन में हुए जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन का नया समझौता, जिसे कॉप 16 के नाम से जाना जाता है, ने विकसित और विकासशील देश के बीच का भेद खत्म कर दिया। विकसित देश अब कानूनन अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए बाध्य नहीं होंगे। और जो कमी लाने का वादा उन्होंने आगे आकर किया वो जरूरत से काफी कम है। दूसरी तरफ, विकासशील देशों को अब उत्सर्जन को लेकर बाध्यकारी प्रतिबद्धताएं दिखानी होंगी। जबकि विकासशील देश पर्यावरण के सफाई का बोझ में भी हिस्सेदार हैं। विकसित देशों के द्वारा किया गया आर्थिक और तकनीकी सहयोग का वादा, बस वादा ही रह गया।
वैश्विक नेताओं ने कानकुन समझौते की काफी प्रशंसा की थी, बावजूद इसके कि यह समझौता विकासशील देश के वैश्विक कार्बन क्षेत्र तक समान पहुंच से वंचित रख तरक्की में बाधक था।
बोलिविया एकमात्र ऐसा देश था जिसने इस असमानता को इंगित किया था। इस देश के राजदूत पाब्लो सोलोन ने इस समझौते से अपने पांव पीछे खींचे थे तो अन्य लोगों ने इस बात की सराहना भी की थी। औद्योगिक देशों के साथ कुछ उभरते हुए देशों ने जलवायु परिवर्तन पर हो रही वार्ता, विज्ञान और समानता के सिद्धांत को ताक पर रखकर सबसे बड़ा तख्तापलट किया था।
कानकुन समझौते ने जलवायु परिवर्तन के भयावह प्रभावों से बचने के लिए जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) द्वारा निर्धारित 2 ° C से नीचे औसत वैश्विक तापमान वृद्धि को रोकने के लिए ग्रीनहाउस गैस की कमी के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को नजरअंदाज कर दिया। इस समझौते ने वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस या इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखने की बात कही थी। हालांकि इसके लिए कोई रास्ता नहीं सुझाया गया था। इस समझौते में विकसित देश के लिए उत्सर्जन का कोई मापदंड तय नहीं किया हुआ था, साथ ही उस वर्ष का जिक्र भी नहीं हुआ था जब वैश्विक उत्सर्जन चरम पर होगा और जिस वर्ष के बाद इसमें कमी दिखना शुरू हो जाएगा। उल्टा यह समझौता अमेरिका जैसे विकसित देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन बढ़ाने के लिए अतिरिक्त स्वतंत्रता प्रदान कर गया।
कोपेनहेगन समझौते में उल्लिखित स्वैच्छिक 'प्रतिज्ञा और समीक्षा' को कानूनी रूप दिया गया है। अब देशों को प्रतिज्ञाओं के रूप में अपने स्वयं के घरेलू लक्ष्य निर्धारित करने की अनुमति है। विकसित देशों की प्रतिज्ञाओं की माप, रिपोर्ट और सत्यापित (MRV) किया जाएगा, लेकिन वे नहीं मिलने पर दंड या जुर्माने की गुंजाइश भी नहीं बचती। कानकुन समझौते ने जलवायु परिवर्तन से हमेशा के लिए निपटने के बुनियादी नियमों को भी बदल दिया और इसके बाद उत्सर्जन में कमी के बोझ को विकसित देशों से विकासशील देशों के ऊपर थोप दिया है।
विकसित देशों के कमजोर प्रतिज्ञा के खिलाफ विकसशील देशों ने अपने देश के उत्सर्जन को कम करने की गंभीर प्रतिज्ञा ली है। इसके तहत भारत ने वर्ष 2005 के मुकाबले 2020 तक उत्सर्जन को 20 से 25 प्रतिशत कर करने की बात कही थी।
जिन औद्योगिक देशों को उत्सर्जन में कमी का नेतृत्व करना चाहिए था, वे विकासशील दुनिया की तुलना में अपेक्षाकृत कम उत्सर्जन में कटौती करके पीछा छुड़ा रहे हैं। उन्होंने 2020 तक 0.8 से लेकर 1.8 Gt की कटौती की, विकासशील देशों ने 2.8 Gt से अपने उत्सर्जन में कटौती करने का संकल्प लिया। इन लक्ष्यों को पूरा करने की कीमत गरीब देशों के लिए बहुत महंगी साबित हो सकती है। यह संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में बाधा बन सकता है, जिसमें भूख और गरीबी का उन्मूलन और पर्यावरणीय स्थिरता शामिल है। अमेरिका जो कि अभी तक कटौती की घोषणा करने ही वाला है, को इस समझौते से सबसे अधिक फायदा मिल रहा है।
ऐतिहासिक तौर पर सबसे अधिक उत्सर्जन में कटौती कर लिए 40 प्रतिशत तक उत्सर्जन में कमी को आवश्यकता होगी, लेकिन 1990 के स्तर से तुलना करके देखें तो यह कमी शून्य प्रतिशत की ही है। विश्वभर के नेताओं ने कागज पर तो वैश्विक गर्मी को 2 प्रतिशत तक कम करने की प्रतिबद्धताएं दिखाई, जिसे गर्मी बढ़ने का सुरक्षित मापदंड माना गया है, लेकिन कोपेनहेगेन में किये गए वादे या फिर कानकुन में कानून बन जाने के बाद जितना उत्सर्जन काम करने की प्रतिबद्धता दिखाई गई है वह गर्मी को कम करने में काफी नहीं होगा। अगर देश अपनी प्रतिबद्धता पर कायम भी रहते हैं तो वैश्विक तापमान 3 से 3.9 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने से नहीं रोक पाएंगे।
छोटे द्वीप और देशों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से सबसे ज्यादा खतरा है, यहां तक कि 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बहुत अधिक है और ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित होनी चाहिए।
कानकुन में क्या हुआ?
कानकुन में ऐसा क्या हुआ कि गरीब और सबसे अधिक खतरा झेल रहे देश जो 2009 में हुए समझौते के विरोध में थे, कानकुन के समझौते पर राजी हो गए?
यह समझने के लिए कि कोपेनहेगन में और कोपेनहेगन और कानकुन समझौते के बीच की अवधि में क्या हुआ, यह समझना होगा। अमेरिका की घरेलू राजनीति की वजह से भारत और चीन जैसे देशों की पूर्ण और पूर्ण भागीदारी के साथ एक गैर-बाध्यकारी समझौते की मांग सामने आई। इसका मतलब यह था कि अमेरिका अब दो-तरफा UNFCCC वार्ता जारी नहीं रख सकता था और उसे एक ऐसे समझौते की जरूरत थी जिससे उत्सर्जन कम करने की कोई कानूनी प्रतिबद्धता न हो और ऐसा ही समझौता भारत और चीन जैसे देश के साथ भी किया गया। यह कोपेनहेगन समझौते की उत्पत्ति थी।
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इस वर्ष UNFCCC, 25वें वर्ष के मील के पत्थर तक पहुंचता है, लेकिन इससे यह तय होता है कि कितनी दूरी तय की गई, यह तय नहीं होता है कि यहां तक पहुंचने में रफ्तार क्या थी। इस सदी की सबसे बड़ी विकासात्मक चुनौती: जलवायु परिवर्तन से निपटने में यह कन्वेंशन अभी भी संघर्ष ही कर रहा है।
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