खेल का मैदान या एस्बेस्टस से बनी छते; हर दिन बुनियादी जरूरतों के लिए जूझते अवैध कॉलोनियों में रहने वाले लोग; फोटो: आईस्टॉक 
जलवायु

कॉप29: जलवायु वित्त पोषण का सच, शहरी गरीबों तक पहुंच रहा है मात्र 3.5 फीसदी हिस्सा

कॉप-29 में प्रस्तुत एक रिपोर्ट से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित कमजोर समुदायों के लिए वित्तपोषण में भारी कमी है

Madhumita Paul, Lalit Maurya

एक नई रिपोर्ट के हवाले से पता चला है कि पिछले दो दशकों में वैश्विक जलवायु निधि का महज साढ़े तीन फीसदी हिस्सा शहरों में रह रहे गरीबों की मदद के लिए दिया गया है। यह निष्कर्ष जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित कमजोर समुदायों के लिए वित्त पोषण में एक बड़े अंतर को उजागर करता है।

शहरी गरीबों के लिए जलवायु वित्त: वैश्विक जलवायु समीक्षा’ नामक यह रिपोर्ट को 18 नवंबर, 2024 को बाकू में संपन्न हुए कॉप29 सम्मेलन के दौरान सिटीज एलायंस द्वारा लॉन्च किया गया है।

बता दें कि सिटीज एलायंस शहरों में रह रहे गरीबों और बेहतर शहरी विकास के मुद्दों पर काम करने वाला संगठन है। अपनी इस रिपोर्ट में 22 जलवायु निधियों और 3,428 परियोजनाओं से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया है।

इनमें से केवल 225 परियोजनाएं शहरी क्षेत्रों पर केंद्रित थीं, जबकि महज 74 ने शहरी क्षेत्रों और कमजोर समुदायों दोनों को लक्षित किया था। इन परियोजनाओं को करीब 120 करोड़ डॉलर मिले, जो 2003 से 2023 के बीच वैश्विक जलवायु कोष द्वारा स्वीकृत 3,340 करोड़ डॉलर का महज साढ़े तीन फीसदी है।

रिपोर्ट से पता चला है कि इसमें से आधे से ज्यादा करीब 53 फीसदी फंडिंग सब-सहारा अफ्रीका और पूर्वी एशिया एवं प्रशांत क्षेत्र को दी गई, जो करीब 62 करोड़ डॉलर है। इन क्षेत्रों की एक बड़ी आबादी  झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को मजबूर है।

वहीं दक्षिण एशिया से जुड़े आंकड़ों पर गौर करें तो उसे 120 करोड़ डॉलर में से महज चार फीसदी फंडिंग मिली, जोकि करीब पांच करोड़ डॉलर के बराबर है।  इस क्षेत्र के लिए महज सात परियोजनाएं थी, जो कुल परियोजनाओं का दस फीसदी से भी कम है। यह वो क्षेत्र है जहां बड़े पैमाने पर अवैध कॉलोनियां मौजूद हैं।

इनमें से अधिकांश शहरी परियोजनाएं जलवायु अनुकूल पर केंद्रित थीं। यही वजह है कि इसमें से 51 फीसदी निधि इसी पर खर्च की गई। वहीं अनुकूलन निधि का करीब आधा हिस्सा पर्यावरण सम्बन्धी नीतियों और संरक्षण के लिए था। वहीं करीब एक चौथाई पैसा पानी और स्वच्छता से जुड़ी परियोजनाओं पर खर्च किया गया, जबकि आपदाओं की रोकथाम और शहरों का जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए कार्यक्रमों को थोड़ा कम हिस्सा मिला।

दूसरी ओर शमन परियोजनाएं मुख्यतः परिवहन पर केन्द्रित थीं, करीब 50 फीसदी परियोजनाओं में ट्रांसपोर्ट पर ध्यान दिया गया था। इनमें बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम और बेहतर सार्वजनिक परिवहन नेटवर्क शामिल हैं। इसके बाद 25 फीसदी से अधिक परियोजनाएं ऊर्जा क्षेत्र से समबन्धित थी।

हर दिन बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे 100 करोड़ लोग

वर्तमान में 100 करोड़ से अधिक लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को मजबूर हैं। वहीं अनुमान है कि 2030 तक यह आंकड़ा बढ़कर दोगुना हो जाएगा। मतलब की 200 करोड़ तक पहुंच सकता है। इन लोगों पर जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों जैसे बाढ़, सूखा, लू, के साथ-साथ भोजन-पानी की कमी जैसी समस्यों से जूझना पड़ रहा है।

रिपोर्ट में उन समस्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है जो इन समुदायों तक पर्याप्त धन पहुंचने की राह में बाधा पहुंचा रही हैं। इनमें वित्तपोषण से जुड़े कठोर नियम, शहरी गरीबों पर ध्यान न देने वाली राष्ट्रीय योजनाएं और स्थानीय समुदायों एवं संगठनों की पर्याप्त भागीदारी न होना शामिल है।

रिपोर्ट में इस फंडिंग के अंतर को तत्काल पाटने की आवश्यकता पर जोर दिया है। साथ ही जलवायु वित्त को बेहतर तरीके से निर्देशित करने के लिए दानकर्ताओं, सरकारों और शहरी नेताओं के लिए सिफारिशें पेश की गई हैं।

इसमें दिए मुख्य सुझावों में फंडिंग को आसान बनाना, राष्ट्रीय योजनाओं में अवैध कॉलोनियों पर ध्यान केंद्रित करना और स्थानीय समूहों और शहरी समुदायों के साथ जुड़ाव को बढ़ावा देना शामिल है।

जलवायु वित्त तक पहुंच में सुधार करके, इन कदमों का उद्देश्य शहरी गरीबों के लिए जलवायु अनुकूलन और शमन प्रयासों को बढ़ावा देना है, जिससे सबसे कमजोर तबके को भी जलवायु के बिगड़ते प्रभावों से बचाने में मदद मिलेगी।