जलवायु

अंतरिक्ष पर वर्चस्व की जंग जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से कितनी खतरनाक

Lalit Maurya

क्या आप जानते हैं कि अंतरिक्ष को अधिक से अधिक जानने के लिए किए जा रहे अन्वेषण के चलते हर साल 12 लाख मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) उत्सर्जित हो रही है। इसमें अंतरिक्ष और जमीन पर मौजूद वेधशालाओं से होता उत्सर्जन शामिल है।

देखा जाए तो यह बेलीज, बुरुंडी, लाइबेरिया जैसे कई छोटे देशों के वार्षिक उत्सर्जन से भी ज्यादा है। वहीं यदि दुनिया में मौजूद कुल खगोलविदों की संख्या के आधार पर देखें तो प्रत्येक खगोलविद के हिस्से में हर वर्ष लगभग 36.6 टन कार्बन उत्सर्जन आता है। 

यह जानकारी यूनिवर्सिटी डी टूलूज़ के वैज्ञानिकों द्वारा किए नए अध्ययन में सामने आई है, जोकि जर्नल नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित हुआ है। इतना ही नहीं इससे होने वाले कुल उत्सर्जन को देखें तो वो करीब 2.03 करोड़ मीट्रिक टन के बराबर है। 

अपने इस शोध में शोधकर्ताओं ने इन अंतरिक्ष उपग्रहों और उससे जुड़ी परियोजनाओं के निर्माण के साथ-साथ वेधशालाओं के संचालन के कारण पैदा होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को शामिल किया है। इसके साथ ही उन्होंने वेब और हबल स्पेस टेलीस्कोप को अंतरिक्ष में पहुंचाने के कार्बन पदचिह्न को भी इसमें शामिल किया है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक हबल स्पेस टेलीस्कोप का कुल कार्बन फुटप्रिंट करीब 5.6 लाख मीट्रिक टन था जबकि हाल ही में स्थापित की गई नासा की जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप और के चलते पैदा होने वाला कार्बन उत्सर्जन करीब 3 लाख मीट्रिक टन होने का अनुमान है। 

साथ ही परियोजनाओं में इस्तेमाल होने वाले राकेट ने जितना ईंधन जलाया था उससे होने वाले उत्सर्जन को भी शामिल किया है। इसके साथ ही परियोजनाओं में इस्तेमाल होने वाले सुपर कंप्यूटर के लिए जो जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली प्रयोग की जा रही है वो भी उत्सर्जन का कारण है। वहीं दुनिया भर अंतरिक्ष वैज्ञानिकों द्वारा मीटिंग के लिए की गई यात्राओं के कारण होने वाले उत्सर्जन की भी इसमें गणना की गई है।

शोध के मुताबिक 2009 में लॉन्च की गई केपलर स्पेस टेलीस्कोप जिसने 3,246 एक्सोप्लैनेट की खोज करने में मदद की है, उसका वार्षिक कार्बन उत्सर्जन करीब 4,784 टन है। वहीं केप्लर के 11 वर्षों के जीवनकाल में 52,000 टन से ज्यादा कार्बन उत्सर्जित की है। इतना ही नहीं अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने करीब 50 अंतरिक्ष मिशनों और 40 से ज्यादा भू आधारित टेलिस्कोप के कारण उत्पन्न होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की गणना की है।

अंतरिक्ष में तैर रहे हैं 'स्पेस जंक' के 16 करोड़ से ज्यादा टुकड़े

इंसान हमेशा से ही जिज्ञासु रहा है वो कुछ न कुछ नया ढूंढना चाहता है। यही वजह है कि उसने धरती को छोड़ सुदूर अंतरिक्ष को खंगालने की शुरुआत की जो आगे चलकर देशों के बीच अंतरिक्ष पर वर्चस्व की जंग में बदल चुकी है। यही वजह है कि 1950 से लेकर अब तक 5,500 से ज्यादा प्रक्षेपण किए जा चुके हैं।

जानकारी मिली है कि 1 सितंबर, 2021 तक करीब 4,550 उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में परिक्रमा कर रहे हैं। इनमें सबसे ज्यादा अमेरिका के 2,804 उपग्रह, चीन के 467, यूनाइटेड किंगडम के 349, रूस के 168, जापान के 93 और भारत के  61 उपग्रह भी शामिल हैं।

इतना ही नहीं अंतरिक्ष में बढ़ता स्पेस जंक भी एक बड़ी समस्या है। अनुमान है कि पृथ्वी की कक्षा में 'स्पेस जंक' के करीब 16 करोड़ से ज्यादा टुकड़े तैर रहे हैं, जिनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। अंतरिक्ष में बढ़ता यह कचरा पर्यावरण के दृष्टिकोण से अपने आप में एक बड़ी समस्या है, जिसे दूर करना जरुरी है। 

एक अन्य शोध के हवाले से जानकारी मिली है कि भविष्य में बढ़ता उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन स्पेस जंक की समस्या को और बढ़ा सकता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक जैसे जैसे ऊपरी वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ रही है उसके चलते वातावरण का घनत्व कम हो रहा है। ऐसे में स्पेस जंक के यह टुकड़ों वहीं फंसे रह रहे हैं।    

शोधकर्ताओं के मुताबिक खगोल विज्ञान से जुड़े लोग अपने आप में अनूठा काम कर रहे हैं जो अत्यंत महत्वपूर्ण भी है। ऐसे में यह जरुरी है कि वो दुनिया के सामने एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करें। ऐसे में यह जरुरी है कि वो अंतरिक्ष परियोजनाओं के निर्माण और उसके कारण पैदा होने वाले कार्बन पदचिह्न को कम करने का प्रयास करें। साथ ही अनावश्यक प्रयोगों से बचें और अंतरिक्ष परियोजनाओं के निर्माण में पर्यावरण को भी ध्यान में रखा जाए।