जम्मू कश्मीर के किस्तवाड़ जिले की वारवन तहसील का मारगी गांव बर्बादी का नया गवाह बना है। 26 अगस्त 2025 को दो बार बादल फटने से 3,000 की आबादी वाला यह गांव मलबे में दब गया। करीब 400 घरों वाले गांव में 50 घर पूरी तरह मिट्टी में समा गए, 150 घर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुए और 60 के आसपास मकान आंशिक रूप से टूट गए।
उल्लेखनीय है कि 15 अगस्त को इसी जिले के चिशोटी में बादल के फटने से 71 लोगों की मौत हुई थी और 31 लोग आज भी लापता हैं।
मारगी गांव में साल 2007 में भी गांव की 180 से अधिक घर आग की भेंट चढ़ गई थे। मगर इस बार हालात और गंभीर हैं। पूरा इलाका मिट्टी और बोल्डरों से पट गया है, जिसे हटाने में महीनों और करोड़ों रुपए लगेंगे।
26 अगस्त के बाद 2 सितंबर को हुई एक और बारिश से आई बाढ़ ने मारगी गांव के दर्जनभर और घर बहा दिए। कृषि और मज़दूरी पर निर्भर ग्रामीण अब पूरी तरह बेघर हो चुके हैं। गांव के केवल 6-7 लोग ही सरकारी नौकरी में हैं, बाकी सब रोज़मर्रा की मेहनत पर आश्रित हैं।
मारगी गांव किस्तवाड़ मुख्यालय से 200 किलोमीटर दूर है और वहां तक पहुँचना आसान नहीं। केवल सिन्थन पास (12,500 फीट) और मरगन टॉप (11,000 फीट) से होकर ही कोई पहुँच सकता है। यही वजह रही कि प्रशासनिक अधिकारी आपदा के 10 दिन बाद गांव पहुँच पाए।
गांव के निवासी मुजफ्फर हुसैन लोन बताते हैं, “जब बादल फटे तो हर ओर चीख-पुकार मच गई। लोग जान बचाने के लिए भागे लेकिन घर, सामान और पशुधन सब बह गया। हमारी ज़िंदगी की पूंजी मिनटों में खत्म हो गई।”
उनकी बुजुर्ग मां रोते हुए कहती हैं, “उस रात हमने घास के ढेर पर गुजारी। आंखों के सामने पानी और मिट्टी का सैलाब आया और सबकुछ बहा ले गया।”
गांववालों का आरोप है कि प्रशासन ने अब तक प्रभावित परिवारों की सही सूची भी तैयार नहीं की है। कई घर पूरी तरह तबाह होने के बावजूद सूची में नाम नहीं जोड़े गए।
एक ग्रामीण, जो चार बच्चों के पिता हैं, बताते हैं, “हम तीन भाई एक ही घर में रहते थे। सरकार ने मुआवजा सिर्फ़ बड़े भाई को दिया। मेरा घर और दुकान दोनों उजड़ गए, लेकिन मुझे अलग परिवार मानने से इंकार कर दिया गया।”
शिक्षा और आजीविका पर असर
गांव के स्कूलों में पढ़ने वाले करीब 300 बच्चे अब शिक्षा से वंचित हो गए हैं। चाइल्ड प्रोटेक्शन ऑफिसर तौसीफ इकबाल बट्ट कहते हैं कि शिक्षा विभाग से विवरण मांगा जाएगा और जरूरत के हिसाब से बच्चों की मदद की जाएगी।
सरकारी शिक्षक सज्जाद हुसैन याद करते हैं, “हमने कई छात्रों और ग्रामीणों की जान बचाई। मिनटों में पूरा गांव समतल हो गया। जानवर बह गए, खेत उजड़ गए, अखरोट जैसे पेड़ भी नहीं बचे। यह दृश्य कल्पना से परे था।”
सेवानिवृत्त शिक्षक ग़ुलाम मोहिउद्दीन कहते हैं, “करीब 500 कनाल जमीन बह चुकी है। इस मलबे से गांव को दोबारा बसाना लगभग नामुमकिन है। सरकार को हमें सुरक्षित स्थान पर बसाना चाहिए। प्रधानमंत्री से विशेष पैकेज ही हमारी आखिरी उम्मीद है।”
महामारी का खतरा
गांव में 150–200 से अधिक मवेशियों के शव अब भी पड़े हैं। इससे महामारी फैलने का खतरा है। प्रशासन सुस्त पड़ा है लेकिन स्थानीय सामाजिक संगठन सक्रिय हुए हैं।
तारीक मेमोरियल चैरिटेबल ऑर्गेनाइजेशन के प्रमुख आदिल हुसैन शेख बताते हैं, “हमने 255 परिवारों को राशन, बर्तन, रजाई, कंबल जैसी राहत सामग्री दी। लेकिन ज़मीनी नुक़सान उससे कहीं अधिक है।”
अबाबील नामक एनजीओ के कार्यकर्ता ताहिर डार और बुरहान मीर का कहना है कि असल में 450 से ज़्यादा परिवार प्रभावित हुए हैं, जिनके लिए तत्काल मदद की ज़रूरत है।
सर्दियों का खतरा
वारवन इलाक़ा, जिसमें 13 गांव और 15 हजार की आबादी है, अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है। मगर सड़क और संचार सुविधाओं की कमी ने इसे अलग-थलग कर दिया है। किस्तवाड़-मारवाह सड़क का निर्माण पिछले चार दशकों से अधूरा है।
सर्दियों में यहां 8–10 फीट तक बर्फ गिरती है और तापमान –20 डिग्री तक चला जाता है। ऐसे में विस्थापित ग्रामीण कैसे गुजारा करेंगे, यह सबसे बड़ा सवाल है। एक महिला, जो अब टीन की छत के नीचे खाना बनाती हैं, कहती हैं—“मेरे मज़दूर पति ने ज़िंदगी भर जो कमाया, सब बह गया। अब बच्चों के साथ कहां जाएँ, समझ नहीं आता।”
गांववाले मांग कर रहे हैं कि तत्काल मटिगोवरन–इंशान और चांजर–बोंडा सुरंगों का निर्माण किया जाए, ताकि सालभर उनका संपर्क ज़िले और देश से बना रहे।