एक बार की बात है, पैगंबर मोहम्मद साहब अपने काफिले के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में उनके काफिले के एक व्यक्ति ने एक कबूतर के घोंसले से उसका बच्चा उठा लिया। इस बात पर मोहम्मद साहब उस व्यक्ति से सख्त नाराज हो गए। उन्होंने इस कृत्य की भर्त्सना की और कबूतर के बच्चे को बहुत संभाल कर वापस उसके घोंसले में रख दिया। पैगम्बर ने उद्घोष किया, ‘‘आर्द्र हृदय से हर प्राणी के प्रति करुणा करने वालों के लिए अल्लाह ने ईनाम की व्यवस्था की है।’’ पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवन से जुड़ी यह कथा इस्लाम में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता की ओर इशारा करती है।
कोरोनावायरस का वैश्विक संकट बेहिसाब लालच, प्रकृति के अंधाधुंध शोषण और अतिशय उपभोग वाले विवेकहीन विकास के आर्थिक माॅडल की असफलता की घोषणा है। कोरोनावायरस जनित यह वैश्विक संकट अपनी तमाम परेशानियों के बावजूद हमारे लिए आत्ममंथन का एक अवसर लेकर आया है। यदि अब भी हम सचेत नहीं हुए और अपनी विवेकहीन, अतिउपभोग आधारित जीवनशैली पर हमने पुनर्विचार नहीं किया तो हमारे भविष्य का मालिक तो अब ईश्वर भी नहीं हो सकेगा। यही वक्त है कि हम अपने कार्बन पदचिन्ह को कम करने वाली एक किफायती जीवनशैली अपनाने की आदत डाल लें। आज की राजनीति ने धर्म को उसके घृणित रूप में पहुंचाकर नफरत का औजार मात्र बनाकर छोड़ दिया है। जबकि लगभग हर धर्म में प्रकृति के साथ सहअस्तित्व बनाते हुए एक शांतिपूर्ण, न्यायपरक समतामूलक प्रेमिल जीवन जीने की व्यवस्था दी गई है। पर्यावरण संरक्षण और संतुलन सभी धर्मों के मूल भावों में से एक रहा है।
आज से चौदह सौ साल पहले जब कुरान शरीफ और हदीस अस्तित्व में आए, तब प्रकृति और पर्यावरण के विषय में बात करना न तो पॉलिटिकली करेक्ट माना जाता था और न ही इसकी जरूरत थी। तब भी कुरान शरीफ और हदीस दोनों में ही जल, जंगल, जमीन को लेकर समस्त प्राणी जगत के बारे में जिस संजीदगी से लिखा गया है, वो अद्भुत और अनुकरणीय है। कुरान और हदीस में वृक्षारोपण और वन संरक्षण की सीख दी गई है। वन्य जीव संरक्षण के तरीके बताए गए हैं। जल के महत्त्व को बताया गया है और उन सारी बातों को विस्तार से बताया गया है, जिन पर चलकर मानव जाति प्रकृति के साथ सामंजस्य बना सकती है।
पवित्र कुरान में तकरीबन 1600 आयतें हैं, जिनमें से 700 आयतें और नबी की सैकड़ों हदीसें पर्यावरण और प्रकृति की बात करती हैं। कुरान में धरती शब्द का प्रयोग 485 बार हुआ है। इस्लामी कानून के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला शब्द- शरिया का शाब्दिक अर्थ ही है ‘‘जल का स्रोत’’।
कुरान में अल्लाह के निन्यानवें नाम हैं, जो उनके गुणों पर आधारित है। उन नामों से एक खालिक भी है, जिसका अर्थ होता है- बनानेवाला। इस्लामिक विश्वास के अनुसार सारी कायनात की रचना अल्लाह ने की है। इसलिए इस कायनात का शोषण गुनाह है और संरक्षण इबादत। अल्लाह ने सृष्टि के संरक्षण की जिम्मेदारी मनुष्यों को सौंपी है।
अल्लाह के शब्दों में, ‘‘जमीन में चलने वाले किसी जानवर और हवा में पंख से उड़नेवाले किसी पक्षी को देख लो, ये सब तुम्हारी ही तरह की जातियां हैं, हमने उनके भाग्य के लेख में कोई कमी नहीं छोड़ी है और ये सबके सब अपने रब की तरफ समेटे जातें हैं।’’ (कुरान, 6.38)
कुरानशरीफ की व्याख्या करने वाले विद्वान इस पंक्ति का अर्थ यही लगाते हैं कि सभी सजीव प्राणी मनुष्य के अस्तित्व में उसके साझीदार हैं और वे अपनी तरह से इज्जत के हकदार हैं। खाद्य जीव और जन्तुओं को छोड़कर किसी भी जीव को मारना हराम है और यह कहा गया है कि “नबी (स.) ने फरमाया कयामत (हिसाब किताब) के दिन ईश्वर उस पर दया की नजर रखेगा जिसने अपने जीवन में गौरया जैसे छोटी चिड़िया पर दया की और उसको मरने से बचा लिया।’’
कुरान में यह हिदायत है कि यदि कौतुकवश अथवा मनोरंजन भर के लिए, बिना जरूरत के कोई व्यक्ति किसी परिंदे को हानि पहुंचाता है, तो फैसले के दिन परिंदा उस व्यक्ति से इंसाफ की मांग करेगा। इस्लाम की पवित्र पुस्तक में एक कथा है कि एक स्त्री को दोजख के दुख झेलने पड़े क्योंकि उसने एक बिल्ली को तब तक बंद रखा जब तक वह भूख से मर नहीं गई। दूसरी कथा में एक तवायफ के सारे पाप धुल जाते हैं क्योंकि उसने एक बार एक प्यासे कुत्ते को पानी पिलाया था।
इस्लाम की जन्मस्थली मरुस्थल है, इसलिए इस्लाम में जल को ‘‘जीवन का रहस्य’’ की प्रतिष्ठा दी गई है। कुरान में पानी को न सिर्फ पाक करार दिया गया है बल्कि इसे अल्लाह की तरफ से मनुष्य के लिये एक नेअमत बताया गया है- ‘‘हमने आकाश से पाक पानी उतारा।’’ (सूरह फरकान, 25ः48) पवित्र कुरान कहता है, प्रत्येक जीवन पानी से बना है। इसी तरह सूरह अंबिया में आता है कि अल्लाह ने हर जानदार चीज पानी से बनाई। (सूरह अंबिया, 21ः30)
इस्लाम में पानी की बर्बादी की सख्त मनाही तो है ही; साथ ही मुनाफे के लिए इसके उपयोग को गुनाह करार दिया गया है। मनुष्य, जंतु, पक्षी और पेड़- पौधों के लिए पीने योग्य पानी के संरक्षण को इबादत का ही एक रूप कहा गया है और मान्यता है कि इससे अल्लाह खुश होते हैं। फैक्ट्री के प्रदूषित पानी को जल स्रोत में छोड़ना भी एक तरह से इस्लाम की नजर में गुनाह है क्योंकि इससे जल प्रदूषित होता है और जलचरों के जीवन को नुकसान पहुंचता है। कुरान शरीफ में हवा को अल्लाह की संपत्ति बताया गया है। इसलिए, इसे प्रदूषित करना गुनाह माना गया है।
वृक्ष और वनस्पतियों का महत्व
इस्लाम में वनस्पतियों के महत्व का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मस्नदे-अहमद की एक हदीस में रसूल ने तो ये तक कहा कि ‘‘अगर कयामत कायम होने वाली हो और किसी के पास बोने के लिये खजूर की कोई कोंपल हो तो उसे चाहिये कि वह उसे बो दे। उसके इस अमल के बदले उसे अज्र और सबाब मिलेगा।‘‘ पैगंबर ने अपने अनुयायियों को अधिक से अधिक पेड़ लगाने की सीख दी है। साथ ही बिना जरूरत के पेड़ काटने को गुनाह माना है। बुखारी शरीफ की एक हदीस के अनुसार पेड़ लगाना भी एक प्रकार का दान है क्योंकि वृक्ष पक्षियों और कई दूसरे जीवों के लिये आश्रय स्थली बनती है, इसके पत्ते कई जीवों के आहार के काम में आतें हैं और इसकी छाया राहगीरों को शीतलता प्रदान करती है।
इंडोनेशिया में इको मस्जिद के संस्थापक हायू प्रबोवो का कहना है, ‘‘इस्लाम हमें अपना जीवन प्रकृति के नियमों के मुताबिक जीने की सीख देता है, जहां प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी की सख्त मनाही है।’’ पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अख्तर महमूद के अनुसार, ‘‘इस्लाम विलासिता और फिजूलखर्ची को हतोत्साहित करता है। इस्लाम के अनुसार विलासितापूर्ण जीवन सामाजिक नाइंसाफी की अभिव्यक्ति है क्योंकि वंचित बहुसंख्यक की कीमत पर ही महज कुछ लोग विलास का जीवन जी सकते हैं।’’
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)