जलवायु परिवर्तन के लिए बने अंतर्राज्यीय पैनल (आईपीसीसी) की संश्लेषण की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि दुनिया के कुछ हिस्से जलवायु अनुकूलन की हद पार कर चुके हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ उष्णकटिबंधीय, तटीय, ध्रुवीय और पर्वतीय पारिस्थितिक तंत्र उस कठिन स्थिति में पहुंच चुके हैं, जहां वे जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभाव से नहीं बच सकते।
कुछ जगहों पर अनुकूलन अपनी नाजुक सीमा तक भी पहुंच गया है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब अनुकूलन संबंधी कार्रवाई के लिए तकनीकी और सामाजिक व आर्थिक विकल्प तुरंत उपलब्ध नहीं होते हैं, जिसके चलते ऐसे प्रभाव और जोखिम होते हैं जो वर्तमान में अपरिहार्य हैं।
छोटे किसान और कुछ निचले तटीय क्षेत्रों में रह रहे परिवार अनुकूलन के लिए तय सीमाओं में पहुंच चुके हैं। इसके लिए वित्तीय, शासन, संस्थागत और नीतिगत बाधाएं दोषी हैं।
रिपोर्ट के लेखकों ने कहा कि हालात ऐसे हो गए हैं कि प्रभावी अनुकूलन भी जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान व क्षति से नहीं बचा पाएगा।
क्लाइमेट चेंज इम्पैक्ट प्लेटफॉर्म की निदेशक एवं इंटरनेशनल एग्रीकल्चरल रिसर्च (सीजीआईएआर) पर सलाहकार समूह में शामिल अदिति मुखर्जी ने कहा, "हम अंतहीन अनुकूलन के मिथक को चुनौती दे रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के उच्च स्तर पर अनुकूलन की प्रभावशीलता वास्तव में कम हो जाती है।"
उन्होंने कहा कि भले ही हमारा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम है और हमारा उत्सर्जन का इतिहास भी काफी कम है, लेकि हकीकत यह है कि उत्सर्जन का प्रभाव हम पर सबसे अधिक है।
साथ ही मुखर्जी ने कहा, "हम बस यह नहीं कह सकते क्योंकि हमने उत्सर्जन नहीं किया है, हम कार्रवाई करने वाले नहीं हैं।"
अनुकूलन अंतराल
हालांकि आईपीसीसी की इस रिपोर्ट के अनुसार सभी क्षेत्रों में अनुकूलन संबंधी रणनीतियों को प्रभावशाली तरीके से लागू करने में सुधार देखा गया है।
बावजूद इसके अनुकूलन अंतराल मौजूद हैं और यदि कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो यह बढ़ना जारी रहेगा, और निम्न-आय वर्ग को सबसे अधिक नुकसान होगा।
लेखकों ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अनुकूलन अंतराल को बंद करने के लिए इस दशक में अनुकूलन के कार्यान्वयन में तेजी लाना महत्वपूर्ण है।
रिपोर्ट में छह बाधाओं को सूचीबद्ध किया गया है। इनमें निजी क्षेत्र और नागरिकों से जुड़ाव की कमी, वित्त की अपर्याप्त गतिशीलता, कम जलवायु साक्षरता, राजनीतिक प्रतिबद्धता की कमी, सीमित शोध और अनुकूलन विज्ञान की धीमी और कम गति, और अत्यावश्यकता की कम भावना शामिल है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु अनुकूलन के लिए व्यवहार्य, प्रभावी और कम लागत वाले विकल्प होने के बावजूद ये बाधाएं मौजूद हैं। उदाहरण के लिए अगर ऊर्जा क्षेत्र की बात करें तो इस क्षेत्र में विश्वनीय उपकरण मौजूद हैं और उत्पादन के क्षेत्र में विविधिता उपलब्ध है, लेकिन रणनीति में कमी की वजह से वांछित परिणाम सामने नहीं आ पा रहे है।
जलवायु अनुकूलन वित्त
विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई में सहायता के लिए विकसित देश संयुक्त रूप से जलवायु वित्त में सालाना 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। पिछली रिपोर्टों में दिखाया गया है कि जलवायु कोष का हिस्सा नवीकरणीय ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता जैसी शमन परियोजनाओं में खर्च किया जा रहा है, जबकि अनुकूलन को दरकिनार किया जा रहा है।
अनुकूलन वित्त मुख्य रूप से सार्वजनिक स्रोतों से आता है। रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु वित्त का एक छोटा हिस्सा अनुकूलन में और भारी हिस्सा शमन में लगाया जा रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि शमन निवेशकों को अनुकूलन की तुलना में अधिक वित्तीय रिटर्न प्रदान करता है।
रिपोर्ट के मुताबिक, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र द्वारा खर्च किया जा रहा जलवायु अनुकूलन के लिए अपर्याप्त हैं।
इसके अलावा जीवाश्म ईंधन अनुकूलन और शमन की तुलना में सार्वजनिक और निजी वित्त को अधिक आकर्षित करते हैं।
साथ ही, प्रतिकूल जलवायु प्रभावों से होने वाले नुकसान और नुकसान वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता को कम कर सकते हैं। यह राष्ट्रीय आर्थिक विकास को बाधित कर सकता है, विकासशील और कम विकसित देशों को सबसे अधिक प्रभावित कर सकता है।