जलवायु

बंजर होता भारत -एक: 30 प्रतिशत जमीन पर नहीं उग रहा अनाज का एक भी दाना

बंजर होती धरती पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है, इसका हल ढूंढ़ने के लिए 196 देशों के प्रतिनिधि भारत में जुटे हैं। डाउन टू अर्थ ने इस समस्या की गहरी पड़ताल की है। पढ़ें, पहली किस्त

Kundan Pandey, Arnab Pratim Dutta, Jitendra, Ishan Kukreti, Shagun

हर साल मॉनसून के दौरान हेमंत वामन चौरे को एक विकट समस्या का सामना करना पड़ता है। एक तरफ वह चाहते हैं कि बारिश आए, ताकि उनकी फसलों को पानी मिल सके। लेकिन, दूसरी तरफ वह इससे डरे हुए भी रहते हैं क्योंकि बरसात की रिमझिम फुहार भर से उनके खेतों में लगी पौध बर्बाद हो सकती है। महाराष्ट्र के धुले जिले में स्थित सकरी ब्लॉक के दरेगांव में रहने वाले 35 वर्षीय चौरे का 1.5 हेक्टेयर खेत सह्याद्री पर्वत शृंखला के ढलान पर है। यह क्षेत्र बंजर जमीन और पेड़ों की कमी के लिए जाना जाता है। चौरे के खेत के आसपास सारे इलाके में मिट्टी की सतह काफी उथली है। यहां औसतन सालाना बरसात रेगिस्तानी राज्य राजस्थान से महज थोड़ा-सी अधिक 674 मिमी होती है। जब भी बारिश होती है, तो पहाड़ी ढलानों से बहता हुआ पानी मिट्टी की ऊपरी परत को धुलते हुए खेत के पौधों को भी बहा ले जाता है। चौरे बताते हैं, “2018 में मुझे दो बार पौधे रोपने पड़े। पहले मैंने सोयाबीन लगाई। लेकिन, जब वह बह गई तो मुझे बाजरा (मोती बाजरा) की फसल लगानी पड़ी।” 

संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अनुसार, ये मरुस्थलीकरण के स्पष्ट संकेत हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें शुष्कभूमि अपनी उत्पादकता खो देती है। इसमें पौधों को सहारा देने, अन्न उत्पादन करने, आजीविका उपलब्ध कराने की जमीन की क्षमता खत्म होने लगती है। पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं जैसे कि जल प्रबंधन प्रणाली और कार्बन के भंडारण पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। हालांकि, मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया पूरे इतिहास में होती रही है, लेकिन चिंताजनक बात यह है कि हाल के दशकों में इसकी गति ऐतिहासिक दर से 30 से 35 गुना तेज हो गई है। 

संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि हर साल करीब 12 मिलियन हेक्टेयर जमीन मानव निर्मित रेगिस्तान में तब्दील होती जा रही है। दुनिया की कुल कृषि योग्य भूमि का एक चौथाई हिस्सा अत्यधिक निम्नीकृत (डिग्रेडेड) हो चुका है। अधिकतर शुष्कभूमि (दुनिया भर में करीब 72 फीसदी) में बहुत कम और अनियमित वर्षा होती है। खासकर विकासशील देशों में ये जगहें मरुस्थलीकरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। एशिया और अफ्रीका की लगभग 40 फीसदी आबादी ऐसे क्षेत्रों में रह रही है, जहां लगातार मरुस्थलीकरण का खतरा बना हुआ है। इनमें से अधिकतर लोग कृषि और पशुओं के पालन-पोषण पर निर्भर हैं। 

मरुस्थलीकरण की गंभीर होती समस्या पर विचार विमर्श करने के लिए संयुक्त राष्ट्र का कन्वेंशन टु कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) का सीओपी-14 (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) 2 से 13 सितंबर के बीच भारत में होगा। इसमें 196 देशों के करीब 3,000 प्रतिनिधि पहुंचेंगे जिनमें वैज्ञानिक, नौकरशाह, गैर सरकारी संस्थाएं, राजनेता और औद्योगिक घरानों के प्रतिनिधि मुख्य रूप से होंगे। 

भारत के लिए स्थितियां विशेष रूप से अधिक चिंताजनक हैं इसलिए हैं क्योंकि यहां विश्व की लगभग 18 प्रतिशत जनसंख्या और 15 प्रतिशत पशुओं को आश्रय मिलता है। दुनिया के कुल भू-भाग के महज 2.4 फीसदी क्षेत्र वाले इस देश पर 195 मिलियन कुपोषित लोगों के साथ ही वैश्विक भुखमरी के एक चौथाई हिस्से का बोझ भी है। हाल ही में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान, नई दिल्ली से भारत में भू-क्षरण अथवा क्षरण से हो रहे नुकसान का आकलन करने के लिए कहा। अध्ययन के बाद लगाए गए अनुमान के मुताबिक, भू-क्षरण की वजह से देश के राजकोष को 48.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर की चपत लग रही है। यह 2014-15 में भारत की जीडीपी के लगभग 2.08 फीसदी के बराबर है, जबकि उसी वर्ष के कृषि और वानिकी क्षेत्रों के सकल मूल्य से यह 13 प्रतिशत से भी अधिक है। (आगे पढ़ेंगे, मरुस्थलीकरण से मुक्ति का वैश्विक अर्थशास्त्र,)

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अहमदाबाद स्थित अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (एसएसी) द्वारा प्रकाशित मरुस्थलीकरण एवं भू-क्षरण एटलस के मुताबिक, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का करीब 30 फीसदी हिस्सा (लगभग 96.40 मिलियन हेक्टेयर) भू-क्षरण की चपेट में है। 228.3 मिलियन हेक्टेयर यानी देश की कुल भूमि के 70 फीसदी हिस्से में फैले शुष्क भूमि वाले क्षेत्र में से 82.64 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर मरुस्थलीकरण हो रहा है। यह भारत के कुल भू-भाग का करीब एक चौथाई हिस्सा है। 76 में से 21 सूखाग्रस्त जिलों और लेह जिले के 2 उप-बेसिन में 50 फीसदी से अधिक क्षेत्र में भू-क्षरण हो रहा है।



एसएसी की तरफ से किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, 2003-05 और 2011-13 के बीच, महज 8 वर्षों में ही मरुस्थलीकरण और भू-क्षरण की प्रक्रिया में क्रमश: 1.16 मिलियन हेक्टेयर और 1.87 मिलियन हेक्टेयर की बढ़ोतरी दर्ज की गई। नौ जिलों में भू-क्षरण की दर में 2 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई। तुलनात्मक तौर पर, यूरोपीय संघ की तरफ से तैयार किए गए विश्व मरुस्थल मानचित्र के आंकड़ों से पता चलता है कि दुनिया भर में 1950 के दशक के बाद से शुष्क भूमि में लगभग 0.35 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 

ऐसे में सवाल उठते हैं कि आखिर भारत में इतनी तेजी से बढ़ते मरुस्थलीकरण की वजह क्या है? कृषि पर निर्भर देश के 61 फीसदी से अधिक लोग इस चुनौती से कैसे निपटें? ऐसे समय में, जब देश जलवायु से संबंधित तीव्र घटनाओं जैसे कि लू, बार-बार पड़ रहे सूखे, अत्यधिक बारिश और भीषण चक्रवातों का सामना कर रहा है, तो क्या जैव विविधता इसका सामना करने में सक्षम है? इन सवालों के जवाब खोजने के लिए डाउन टू अर्थ ने देश भर में भू-क्षरण वाले प्रमुख क्षेत्रों की यात्रा की। यह पूरी रिपोर्ट आगे की सीरीज में पढ़ेंगे, हालांकि इस सीरीज में नीचे दिए गए नक्शे से आप अनुमान जरूर लगा सकते हैं - 

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