जलवायु

कॉप-26: इस तरह लग सकती है तापमान बढ़ाने वाले जीवाश्म ईंधन पर रोक

Dayanidhi

दुनिया भर में कार्बन उत्सर्जन से पैदा होने वाली ऊर्जा और संबंधित उत्पादों की मांग में कमी आने के बजाय वृद्धि हो रही हैं। यदि हमें मध्य शताब्दी से पहले पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करना है तो हमें सालाना अरबों टन कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) को कैप्चर करने और स्थायी भंडारण की जरूरत पड़ेगी।

फिर भी पूरे उत्सर्जन में कमी और कार्बन भंडारण के सस्ते, अधिक अस्थायी रूपों पर ध्यान केंद्रित करने का मतलब है कि स्थायी सीओ2 निपटान से वंचित रहना है। वर्तमान में वैश्विक ऊर्जा और औद्योगिक प्रक्रिया (ईआईपी) उत्सर्जन का केवल 0.1 फीसदी कैप्चर कर सकते हैं।

यदि हमें बढ़ते तापमान को रोकना है तो हमें ईआईपी के कार्बन उत्सर्जन को कैप्चर और स्थायी रूप से संग्रहित करने में 100 फीसदी तक पहुंचना होगा। कॉप 26 जलवायु शिखर सम्मेलन अब शुरू हो गया है, सम्मेलन में तापमान बढ़ाने वाले जीवाश्म ईंधन में कमी लाने पर जोर दिया जा सकता है।

एक ऐसी नीति जिसे एक उद्योग द्वारा अपनाई जाती है, जो यदि लगातार लागू की जाती है, तो एक पीढ़ी के अंदर ग्लोबल वार्मिंग पैदा करने वाले जीवाश्म ईंधन को रोक सकती है। कार्बन को वापस लेने या टेकबैक की नीति बस यही कर सकती है।

इसके लिए जीवाश्म ईंधन के उत्पादकों और आयातकों को उनके द्वारा उत्पन्न सीओ2 के बढ़ती मात्रा का सुरक्षित और स्थायी रूप से निपटान करने की आवश्यकता होती है। उस मात्रा के साथ जो कुल शून्य कार्बन उत्सर्जन के एक वर्ष तक 100 फीसदी तक बढ़ जाता है। खतरनाक तरीके से, इसमें उनके द्वारा बेचे जाने वाले उत्पादों से उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड भी शामिल होगी।

ऑक्सफोर्ड और एडिनबर्ग विश्वविद्यालयों द्वारा कार्बन टेकबैक संबंधी एक महत्वपूर्ण अध्ययन किया गया है। अध्ययन में दुनिया भर में जीवाश्म ईंधन उद्योग पर कार्बन टेकबैक दायित्व या ऑब्लिगेशन लागू करने के आर्थिक प्रभावों की पड़ताल की गई है। जांच से पता चलता है कि यह कुल शून्य उत्सर्जन करने के लिए एक किफायती और कम जोखिम वाला रास्ता दिखाता है। कुल शून्य उत्सर्जन, खासकर निकट अवधि में जीवाश्म ईंधन की मांग को कम करने के लिए पारंपरिक उपायों में से एक है।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ता एवं प्रमुख अध्ययनकर्ता स्टुअर्ट जेनकिंस बताते हैं कि कार्बन डाइऑक्साइड कैप्चर और स्टोरेज में अधिक लागत लगती है। उन्होंने कहा कि इसके बावजूद भी हमने देखा कि कार्बन टेकबैक दायित्व या ऑब्लिगेशन की विश्व अर्थव्यवस्था की लागत, भले ही पूरी तरह से जीवाश्म ईंधन उपभोक्ताओं के लिए है। यह दुनिया भर में कार्बन मूल्य द्वारा चलने वाले समान लक्ष्यों को पूरा करने वाले पारंपरिक परिदृश्यों में कमी लाने की लागत से अधिक नहीं है।

एडिनबर्ग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और सह-अध्ययनकर्ता स्टुअर्ट हाजल्डिन कहते हैं कि कार्बन डाइऑक्साइड कैप्चर और इसको जमीन के अंदर दबाने से संबंधित निवेश, आज तक राज्यों की सब्सिडी पर निर्भर रहे हैं। ये पेरिस जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जो आवश्यक है उससे कोसों दूर हैं। कार्बन टेकबैक जीवाश्म ईंधन उद्योग में सुधार करने के लिए सबसे मजबूत संभावित प्रोत्साहन देता है।

ऑक्सफोर्ड के प्रोफेसर माइल्स एलन एवं एक अन्य सह-अध्ययनकर्ता कहते हैं कि कार्बन टेकबैक को जलवायु नीति द्वारा लगातार उपभोक्ता के व्यवहार को बदलने वाला बताया गया है। इसे दुनिया भर में कार्बन मूल्य के माध्यम से खपत को कम करने के विकल्प की तुलना में अधिक महंगा और जोखिम भरा बताया गया है। लेकिन ये विकल्प शायद ही जोखिम मुक्त हों। कुल शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने का मतलब है कि 2050 तक कार्बन की कीमतें 1000 डॉलर प्रति टन तक बढ़ रही हैं जो कि 100 गुना वृद्धि के बराबर है।

कार्बन कैप्चर और स्टोरेज के विशेषज्ञ मार्गरेट कुइजपर, जिन्होंने इस अध्ययन की समीक्षा की है। उन्होंने कहा कि अध्ययन में प्रस्तावित कार्बन टेकबैक नीति यह सुनिश्चित करने के लिए एक सुरक्षा जाल प्रदान करेगी कि हम कुल शून्य उत्सर्जन प्राप्त कर सकें। भले ही हम जीवाश्म ईंधन के उपयोग को जल्दी से कम करने की व्यवस्था न करें सकें।

यह उत्पादकों को उनके उत्पादों के उपयोग से उत्पन्न होने वाले कचरे की देखभाल करने के लिए उनकी जिम्मेदारी को बढ़ाता है। प्रदूषक सफाई के लिए भुगतान करता है और लागत उत्पाद की कीमत में शामिल होती है, जैसा कि होना चाहिए। यह अध्ययन अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा पत्रिका जूल में प्रकाशित हुआ है।