जलवायु

हिमालय क्षेत्र में नहीं हुई बाढ़ चेतावनी की व्यवस्था तो लाखों लोगों की जा सकती है जान

अध्ययनकर्ता एक उपग्रह नेटवर्क बनाने का भी सुझाव देते हैं जिसका उपयोग समस्याग्रस्त क्षेत्रों की निगरानी के लिए किया जा सकता है।

Dayanidhi

जिन पर्वतों में हिमालय और उससे सटे पर्वतमाला शामिल हैं वे पृथ्वी पर सबसे ऊंचे हैं, उनकी औसतन ऊंचाई 4000 मीटर है जिनका क्षेत्रफल लगभग 595,000 वर्ग किलोमीटर है। इस क्षेत्र को तीसरा ध्रुव या एशियाई जल मीनार भी कहा जाता है क्योंकि इसमें ध्रुवीय क्षेत्रों के बाहर सबसे अधिक बर्फ है। बढ़ते तापमान और मानवीय हस्तक्षेपों के चलते क्षेत्र की जल स्थितियों की संवेदनशीलता पर तनाव बढ़ गया है जिससे बाढ़ के खतरे बढ़ गए हैं।

अचानक आने वाली इस बाढ़ से वहां नदी के किनारों पर रहने वाले लोगों को जान माल का नुकसान होता है, अब वैज्ञानिकों ने इस समस्या से निपटने के लिए अपने अध्ययन के मध्यम से सुझाव रखें हैं।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-कानपुर के पृथ्वी वैज्ञानिकों की एक जोड़ी ने लोगों को बाढ़ से बचाने, इससे जुड़ी आपदाओं से निपटने के लिए चेतावनी प्रणाली लगाने का सुझाव दिया है। उन्होंने कहा कि हिमालय के पहाड़ी इलाकों के आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ की रोकथाम और चेतावनी के लिए इसे लगाया जाना चाहिए। इस नए अध्ययन में तनुज शुक्ला और इंद्र सेन बताते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए बाढ़ के खतरे बढ़ रहे हैं।

अध्ययनकर्ता शुक्ल और सेन ने कहा कि ध्रुवीय क्षेत्रों के बाहर इस ग्रह पर कहीं भी सबसे अधिक बर्फ है तो वह हिमालय में है। बर्फ से ढके पहाड़ और ग्लेशियरों में सबसे अधिक पानी जमा होता है। लागातार बढ़ते तापमान की वजह से पहले ही काफी बर्फ पिघल चुकी है। हर साल गर्मियों के महीनों में बर्फ का पिघलना बढ़ रहा है।

बर्फ के पिघलने से पहाड़ में खुद-खुद झीलें बन जाती है, जो प्राकृतिक बांधों की तरह हैं। लेकिन शोधों से पता चला है कि इस तरह की झीलों में पानी के मात्रा बढ़ जाती है और बर्फ के पिघलने से प्राकृतिक बांध टूट जाते है जिससे भयंकर बाढ़ आ सकती है। सिर्फ आठ साल पहले, उत्तर भारत में बर्फ पिघलने से हिमस्खलन हुआ था, जिससे चोरबरी झील में पानी की मात्रा बहुत अधिक बढ़ गई थी।

पहाड़ से नीचे की ओर बहने वाला पानी अपने साथ बड़े-बड़े पत्थर, पेड़ और मलबा बहा लाया था जिसकी वजह से 5,000 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। इस तरह की घटनाएं आम हैं जिन्हें ग्लैसिअल लेक ऑउटबर्स्ट फ्लडस (जीएलओएफ) नाम दिया गया है। मानसून के मौसम के दौरान यह अत्यधिक बारिश के कारण भी बाढ़ की घटनाओं को बढ़ा सकते हैं। इस तरह की घटनाओं को जन्म देने के लिए ग्लोबल वार्मिंग काफी हद तक जिम्मेदार है, अब इस तरह की घटनाएं बार-बार हो रही हैं।

शुक्ला और सेन बताते हैं कि जैसे-जैसे धरती गर्म होती है ग्लैसिअल लेक ऑउटबर्स्ट फ्लडस (जीएलओएफ) की अधिक घटनाओं का होना निश्चित है। लेकिन उन्होंने बताया कि यह भी ध्यान देने की जरुरत है कि एक ही तरह की घटनाएं नहीं भी हो सकती हैं। उनका सुझाव है कि अधिक जलाशयों के निर्माण होने से अथवा उनमें अचानक पानी बढ़ने की घटनाओं पर पैनी नजर रही जानी चाहिए, अधिक वर्षा होने पर  संरचनाओं में जमा होने वाले पानी को दूसरी दिशा में मोड़ा जाना चाहिए, तटबंधों के साथ-साथ घाटियों को बंद करने से ऐसी बाढ़ को रोका जा सकता है।

अध्ययनकर्ता यह भी सुझाव देते हैं कि टेलीफोन सेवाओं की तकनीक में सुधार कर इस क्षेत्र के जान-माल की सुरक्षा की जा सकती हैं, उदाहरण के लिए, नदी के ऊपर रहने वाले लोगों समय पर वास्तविक स्थिति को लेकर फोन से चेतावनी दी जा सकती है ताकि वे वहां से हटकर कहीं और चले जाए और जाने न गवानी पड़े।

अध्ययनकर्ता एक उपग्रह नेटवर्क बनाने का भी सुझाव देते हैं जिसका उपयोग समस्याग्रस्त क्षेत्रों की निगरानी के लिए किया जा सकता है। इस तरह की तकनीकें आपस में जोड़कर, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली का आधार बन सकती है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के माध्यम से अध्ययनकर्ता ने चेतावनी देते हुए कहा अगर इस तरह की कार्रवाई नहीं की गई तो, आने वाले वर्षों में लाखों लोग अपनी जान से हाथ धो बैठेंगे।