साझा संसाधन (कॉमन्स) केवल स्थानीय समुदायों की जीवनरेखा ही नहीं हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सुरक्षा कवच भी हैं। | चित्र साभार: ल्यूक एप्पलबी / सीसी बीवाई  
जलवायु

जलवायु संकट के बीच साझा संसाधनों की अनदेखी: घुमंतू समुदायों की चुनौतियां

जलवायु नीति और योजनाओं में इन साझा संसाधनों और उन्हें जीवित रखने वाले समुदायों की भूमिका अक्सर अनदेखी रह जाती है

Shreya Adhikari, Srishti Gupta, Saba Kohli Dave

  • जलवायु संकट के चलते घुमंतू समुदायों के लिए साझा संसाधनों तक पहुंच मुश्किल हो गई है।

  • बढ़ती गर्मी और अनियमित बारिश ने जलवायु पैटर्न को बदल दिया है, जिससे सूखा और अन्य मौसमी घटनाएं बढ़ी हैं।

  • इन संसाधनों की अनदेखी जलवायु नीति में पारंपरिक ज्ञान और समुदायों की भूमिका को हाशिये पर रखती है

  • जलाशय सूख चुके हैं, जिससे इन समुदायों की जीवनशैली प्रभावित हो रही है।

  • जलवायु नीति में इन संसाधनों की अनदेखी से पारिस्थितिक तंत्र और समुदायों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।

“हम अपनी यात्राओं की योजना उस समय के लिए बनाते हैं जब बारिशें जलाशयों को भर चुकी हों ताकि हमें और हमारे पशुओं के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध हो। लेकिन बीते कुछ सालों से बढ़ती गर्मी और बेमौसम बारिश के कारण सूखा बढ़ने लगा है। इसलिए अब हमारे लिए साझा संसाधनों (कॉमन्स) पर पहले की तरह निर्भर रहकर जीना मुश्किल हो गया है।”

राजस्थान के घुमंतू रैका और रैम्बारी पशुपालक समुदायों के नेता महेंद्र रैका की यह बात जलवायु परिवर्तन के उस असर की तरफ इशारा करती है, जिसका सामना आज भारत के कई घुमंतू, पशुपालक, आदिवासी और वनों में रहने वाले समुदाय कर रहे हैं। जलवायु संकट ने समुदायों के लिए साझा संसाधनों तक पहुंच और उनके साथ संबंध बनाए रखने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया है और इन संसाधनों पर भी इसके कई तरह के प्रभाव पड़े हैं। 

वर्ष 2024 को अब तक का सबसे गर्म वर्ष दर्ज किया गया है। 2025 में समय से पहले और अनियमित बारिश हुई जिसमें मानसून की आधिकारिक शुरुआत से पहले ही तेज और भारी बारिश देखने को मिली। जलवायु पैटर्न में इस तरह के बदलाव की वजह से लंबे समय तक चलने वाला सूखा, अनिश्चित वर्षा और ऐसी अन्य चरम मौसमी घटनाएं बढ़ गई हैं। ऐसे में, वे समुदाय जो सदियों से जंगलों, तालाबों, चारागाहों और अन्य साझा संसाधनों को समझते, संजोते और जीवित रखते आए हैं; अब इन पारिस्थितिक तंत्रों को पहले से अधिक दबाव में पा रहे हैं। 

यह स्थिति अनेक चुनौतियां पैदा करती है। साझा संसाधन (कॉमन्स) केवल स्थानीय समुदायों की जीवनरेखा ही नहीं हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सुरक्षा कवच भी हैं। ये स्थानीय जलवायु को संतुलित रखते हैं, जैव विविधता को सहारा देते हैं, भूजल का पुनर्भरण (रिचार्ज) करते हैं और कार्बन को अवशोषित करते हैं। जब समुदाय किसी आर्थिक, राजनीतिक या पर्यावरणीय संकट में होते हैं तो यही संसाधन भोजन, पानी, चारा और आजीविका प्रदान करते हैं। इससे समुदाय जलवायु आघातों का सामना कर पाते हैं और दोबारा संभल पाते हैं। 

फिर भी, जलवायु नीति और योजनाओं में इन साझा संसाधनों और उन्हें जीवित रखने वाले समुदायों की भूमिका अक्सर अनदेखी रह जाती है। यह अदृश्यता केवल पारंपरिक ज्ञान को ही हाशिये पर नहीं डालती है, बल्कि उन पारिस्थितिक तंत्रों को भी नजरअंदाज करती है जो समुदायों के लिए जीवटता बनाए रखने में सहायक हैं। 

जलवायु समाधान भी कॉमन्स के प्रतिकूल हो सकते हैं 

अनदेखी वाला यह रवैया जलवायु योजनाओं तक फैला हुआ है। राष्ट्रीय नीतियों से लेकर वैश्विक वित्तीय ढांचों तक, साझा संसाधनों को अक्सर सिर्फ कार्बन भंडारण या उत्सर्जन घटाने के साधन के रूप में देखा जाता है। यह सीमित दृष्टिकोण दिखाता है कि जलवायु कार्रवाई कैसे जरूरत से ज्यादा शमन केंद्रित (मिटीगेशन फोकस्ड) है। इसलिए क्योंकि साझा संसाधनों यानी जंगल, जमीन या पानी को केवल आंकड़ों या रिपोर्टों में गिने जा सकते वाले पर्यावरणीय संसाधान माना जाता है, जबकि इनका सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व भी बहुत बड़ा है। कॉमन्स को केवल मापने योग्य पारिस्थितिक संसाधन मान लेने वाली सोच न केवल कॉमन्स को नुकसान पहुंचाती है, बल्कि उन्हें संरक्षित करने वाले समुदायों को भी प्रभावित करती है। 

1. ‘जलवायु’ परियोजनाओं के नाम पर साझा भूमि का दोहन 

वर्ष 2014 से 2024 के बीच 1.73 लाख हेक्टेयर से अधिक वन भूमि को गैर-वन उपयोगों – जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर, औद्योगिक परियोजनाओं और बढ़ती संख्या में जलवायु शमन और अनुकूलन परियोजनाओं के लिए स्वीकृत किया गया है। लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच की एक हालिया रिपोर्ट में 10 राज्यों के 31 मामलों का अध्ययन किया गया था। रिपोर्ट बताती है कि बड़े पैमाने पर अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं से जुड़े लगभग 48 प्रतिशत भूमि विवाद साझा भूमि पर हुए हैं। वहीं, 32 प्रतिशत मामलों में साझा और निजी दोनों तरह की भूमि शामिल थी। 

इनमें से कई परियोजनाएं तथाकथित ‘बंजर’ या ‘वेस्टलैंड’ भूमि को निशाना बनाती हैं जो वास्तव में समुदाय-प्रबंधित चारागाह या वन भूमि होती हैं। कानूनी अस्पष्टता इस समस्या को और बढ़ा देती है। कानूनी पहचान या औपचारिक मान्यता के अभाव में ऐसी भूमि को खाली या इस्तेमाल करने के लिए उपलब्ध मान लिया जाता है, न कि उनके पारिस्थितिक और सामाजिक महत्व के लिए संरक्षित किया जाता है। उदाहरण के लिए भारत के कई हिस्सों में सौर ऊर्जा पार्क इन्हीं चारागाह भूमि पर बनाए गए हैं जिन पर पशुपालक समुदाय सदियों से निर्भर रहे हैं। गुजरात के कच्छ में मालधारी समुदायों ने अपने पारंपरिक चारागाह तक पहुंच खो दी है क्योंकि वहां अब सौर पार्क और पवन ऊर्जा संयंत्र लगाए जा चुके हैं। 

ये परिवर्तन भारत के स्वच्छ ऊर्जा लक्ष्यों को तो पूरा करते हैं, लेकिन अक्सर इनकी कीमत स्थानीय आजीविकाओं और पारंपरिक जमीन इस्तेमाल करने की प्रथाओं के भारी नुकसान के रूप में चुकानी पड़ती है। 

2. कैसे कार्बन-केंद्रित दृष्टिकोण जैव विविधता को नुकसान पहुंचाते हैं 

भारत के नेट जीरो लक्ष्यों को हासिल करने की कोशिशों में अक्सर वन क्षेत्र को बढ़ाने के नाम पर एक प्रजाति वाले पेड़ों को लगाने यानी वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जाता है। लेकिन गैर-स्थानीय प्रजातियों के वृक्षारोपण और कृत्रिम बागानों से पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ता है और मौजूदा जैव विविधता को नुकसान भी पहुंच सकता है। इस तरह की कुछ वृक्षारोपण नीतियां वास्तव में कार्बन अवशोषक बनने के बजाय साझा संसाधनों, जलवायु और समुदायों पर नकारात्मक असर डाल सकती हैं।

उदाहरण के तौर पर, ग्रीन इंडिया मिशन उन तथाकथित बंजर या अनुपयोगी भूमि पर वनीकरण को बढ़ावा देता है जो वास्तव में समुदायों द्वारा प्रबंधित चारागाह या वन भूमि होती हैं। इसी तरह, प्रतिपूरक वनीकरण निधि अधिनियम, 2016 (कैम्पा) के तहत केंद्र सरकार राज्य सरकारों को वनीकरण गतिविधियों के लिए धन मुहैया कराती है। हालांकि यह अधिनियम विशेष रूप से जलवायु से संबंधित कानून न हो, लेकिन इसे अक्सर कार्बन अवशोषण से जुड़ी जलवायु संबंधी दलीलों के माध्यम से उचित ठहराया जाता है। इससे बड़े पैमाने पर वनीकरण की परियोजनाएं उन भूमियों पर लागू की जाती हैं जो वास्तव में साझा संसाधन, विशेष रूप से वन-साझा संसाधन होती हैं। अक्सर यह सब ग्राम सभाओं की सहमति के बिना किया जाता है।

कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (सीसीटीएस) का उद्देश्य भी कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए देश के वन क्षेत्र को 21 प्रतिशत से बढ़ाकर 33 प्रतिशत करना है। हालांकि एकता परिषद के रमेश शर्मा बताते हैं कि इस योजना के कार्यान्वयन में सागौन, सेमल और बांस जैसे वाणिज्यिक प्रजातियों के बागान बड़े क्षेत्रों में लगाए जा रहे हैं। इनसे वन-निर्भर समुदायों को आजीविका का कोई लाभ नहीं मिलता है। इन परियोजनाओं के लिए भूमि का स्रोत अक्सर सरकार के ‘लैंड बैंक’ होते हैं, जिनमें कई गांवों की साझा भूमि और वे वन क्षेत्र शामिल होते हैं जिन्हें आदिवासी और ग्रामीण समुदाय पीढ़ी दर पीढ़ी इस्तेमाल और संरक्षित करते आए हैं।

3. समुदायों को हाशिये पर धकेल दिया जाता है 

ऊपर जिक्र की गई सभी प्रक्रियाओं को सोचते या जमीन पर उतारते समय अक्सर समुदायों की भूमिका और सहमति को हाशिये पर रखा जाता है। नीतिगत ढांचे भले ही भागीदारी की बात करें, लेकिन यह भागीदारी केवल परियोजनाओं के क्रियान्वयन तक सीमित रहती है, न कि उन नियमों के निर्धारण तक जो पहुंच और अधिकार तय करते हैं।

रमेश शर्मा बताते हैं, “ज्यादातर लोग यह सोचते हैं कि आदिवासी और गांव के लोग जंगल की रक्षा करने और स्थानीय पौधों-जानवरों को पहचानने में माहिर होते हैं, इसलिए सरकार की ऐसी योजनाओं (जैसे सीसीटीएस) का जिम्मा पर्यावरण, ग्रामीण विकास या आदिवासी मंत्रालय को होना चाहिए। लेकिन असल में इसे ऊर्जा मंत्रालय संभालता है और इसकी देखरेख ऊर्जा दक्षता विभाग करता है, जिसमें समुदायों से राय लेने की बहुत जरूरत नहीं होती है।” 

वे आगे कहते हैं, “यह दिखाता है कि जलवायु शासन समुदाय-केंद्रित दृष्टिकोण से हटकर तकनीकी और बाजार-प्रेरित दृष्टिकोण की ओर बढ़ रहा है – जहां पारिस्थितिक और सामाजिक पहलुओं की बहुत कम गुंजाइश रह जाती है।”

राजस्थानओडिशा और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एसएपीसीसी) में चारागाह भूमि और वनों के क्षरण तथा समुदायों की भागीदारी की आवश्यकता का उल्लेख किया गया है। हालांकि, यह भागीदारी आमतौर पर जागरूकता बढ़ाने या परियोजनाओं के कार्यान्वयन तक सीमित रहती है। इसे निर्णय लेने या शासन प्रक्रियाओं में समुदायों की वास्तविक भागीदारी में इसका रूपांतरण नहीं होता है। 

पर्यावरणविद और शोधकर्ता कांची कोहली कहती हैं कि जलवायु या पर्यावरण नीतियों में ऐसी अनदेखी अक्सर रणनीतिक होती है। जैसे ही किसी भूमि को ‘साझा संपत्ति संसाधन‘ के रूप में मान्यता दी जाती है तो इससे सामूहिक उपयोग, अधिकार और साझा शासन को मान्यता देनी पड़ती है। यदि यह प्रभावित होता है तो मुआवजे की मांग उठती है। नीति निर्माताओं और डेवलपर्स के लिए जो आमतौर पर व्यक्तिगत स्वामित्व से निपटने के आदी हैं, यह प्रक्रिया प्रशासनिक रूप से जटिल हो जाती है। आप किससे परामर्श करेंगे? साझा संसाधन का मूल्यांकन कैसे करेंगे? और मुआवजा किस बात का देंगे?- ऐसे सवाल सामने आते हैं।

फलस्वरूप, नीतियां अक्सर कॉमन्स को परे रखकर बनाई जाती हैं— इसलिए नहीं कि साझा संसाधन मौजूद नहीं हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें स्वीकार करना शासन, विकास और पर्यावरण संरक्षण की मौजूदा व्यवस्था को फिर शुरूआत से गढ़ने की मांग करता है।

समुदाय की अपनी अनुकूलन क्षमता

आदिवासी, पशुपालक, वन-आश्रित और ग्रामीण समुदायों के लिए कॉमन्स कोई अमूर्त नीतिगत चुनौती या सिर्फ कार्बन अवशोषक नहीं हैं – बल्कि ये ऐसे जीवंत तंत्र हैं जो उनके रोजमर्रा के जीवन और लचीलेपन को बनाए रखते हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित शमन और कार्बन-केन्द्रित दृष्टिकोण अक्सर इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करते कि ये समुदाय संकटों से निपटने के लिए पहले से ही साझा अधिकारों, नियमों, परंपराओं और जिम्मेदारियों पर आधारित सामूहिक शासन प्रणाली के जरिए लगातार अनुकूलन करते आ रहे हैं।

शोधकर्ता अरुण अग्रवाल ने अपने बहुराष्ट्रीय शोध में बताया है कि जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए समुदाय पांच प्रमुख रणनीतियां अपनाते हैं — 

  1. विविधीकरण: परिवार खेती, पशुपालन, मजदूरी या वन उत्पाद जैसे विभिन्न आजीविका साधनों को मिलाकर किसी एक पर निर्भरता कम करते हैं। 

  1. साझेदारी: जिसमें चारागाह, जल-संचय प्रणाली या अन्न भंडार जैसे साझा संसाधनों के माध्यम से एक-दूसरे के साथ सहयोग किया जाता है। 

  1. भंडारणः भोजन, चारा और पानी जैसी वस्तुओं का भंडार बनाते हैं ताकि भविष्य में संकट या कमी के समय उपयोग किया जा सके।

  1. गतिशीलता: पशुपालक या अन्य समुदाय मौसमी जलवायु परिवर्तन के अनुसार अपने पशुओं या कभी-कभी पूरे परिवारों को स्थानांतरित करते हैं। 

  1. सूचना का आदान-प्रदानः मौसम के पैटर्न, स्थानीय अनुभवों और साझा कैलेंडरों के आधार पर बुवाई, कटाई या प्रवासन से जुड़े निर्णय लेते हैं। 

इन रणनीतियों की सफलता के प्रमाण भारत के कई हिस्सों में देखे जा सकते हैं जहां समुदाय बदलते जलवायु पैटर्न के बीच इन्हें अपना रहे हैं। उदाहरण के लिए, ओडिशा के कोरापुट जिले में गदबा समुदाय की आदिवासी महिलाएं पारंपरिक ज्ञान और सांझा संसाधन शासन प्रणालियों को पुनर्जीवित करके पारिस्थितिक संतुलन बहाल करने के प्रयासों में आगे रही हैं। पिछले 10–15 वर्षों में वन क्षरण के कारण उन्हें फलों, औषधीय पौधों, पानी और वन्यजीवों तक पहुंच में भारी कमी का सामना करना पड़ा है। इसके जवाब में, स्प्रेड संगठन की मदद से महिलाओं ने ग्राम पंचायत विकास योजना (जीपीडीपी) में ही वन और जल संरक्षण को शामिल कर, समुदाय स्तर पर दोबारा से स्थापना की दिशा में कदम बढ़ाए हैं।

समुदाय ने अपने गांवों के संसाधनों का नक्शा तैयार किया है ताकि पता लगाया जा सके कि वन और चारागाह समय के साथ कैसे सिकुड़ गए या बदल गए। उन्होंने सामुदायिक वन नियम भी बनाए जैसे केवल मृत या सूखी लकड़ी का उपयोग, चराई और कटाई क्षेत्रों का घुमाव में रखना और प्राकृतिक पुनर्जनन के लिए बीज छोड़ना। इसके अलावा, उन्होंने 50 वर्षों का वन आकलन किया, 22 दुर्लभ प्रजातियों की पहचान की है और सामुदायिक नेतृत्व वाली पुनर्जीवनी योजना शुरू की।

हालांकि, कांची कोहली कहती हैं, “नीतियां, शायद ही कभी इन पहलों को ‘जलवायु रणनीति’ के रूप में देखती हैं। इन्हें आसानी से मापा नहीं जा सकता है, ये बड़े पूंजी निवेश को आकर्षित नहीं करतीं, और न ही ऊपर से नीचे तक की परियोजना मॉडल में फिट बैठती हैं। सबसे अहम बात यह है कि स्थानीय समुदायों की ये विधियां उस सोच को चुनौती देती हैं कि जलवायु संकट का सामना करने में केवल राज्य या बाजार ही मुख्य भूमिका निभाते हैं।” 

इसलिए जरूरत एक ऐसे दृष्टिकोण की जो है जो समुदायों को सिर्फ हितधारक न समझे, बल्कि जलवायु लचीलेपन के संरक्षक के रूप में माने। इसका मतलब है कि उनके ज्ञान, शासन प्रणाली और समाधान को केवल सहायक न मानकर अनुकूलन और निवारण की मुख्य रणनीति के रूप में स्वीकार किया जाए।

किस तरह के बदलाव की जरूरत है?

सबसे पहले समुदाय की पारंपरिक व्यवस्था का समर्थन और सशक्तिकरण करना होगा। हस्तक्षेपों में एक पैमाने पर आधारित मॉडल, जिसमें ऊपर से आने वाले निर्देशों को नीचे लागू करने का नजरिया अपनाया जाता है, की बजाय पारंपरिक तरीकों को अपनाना होगा। यही जलवायु समाधानों की सोच का केंद्र होना चाहिए। इसके लिए तीन बदलाव विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं:

1. जलवायु समाधान अलग-अलग नहीं बन सकते हैं 

समुदायों ने बहुत पहले ही समझ लिया था कि अनुकूलन और शमन (मिटीगेशन) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जंगलों की रक्षा, चारागाहों का पुनर्जनन, जल संरक्षण, और संसाधनों की रोजमर्रा की देखभाल जैसी गतिविधियां उन्हें जलवायु झटकों से उबरने, उत्सर्जन को नियंत्रित करने, भूजल को पुनर्भरण करने, और स्थानीय जलवायु को ठंडा रखने में मदद करती है। 

उदाहरण के तौर पर, ओडिशा के पुनासिया गांव को देखा जा सकता है। 1980 के दशक में जब यहां जंगलों की कटाई से वनों का क्षरण हुआ तो बहुत से लोगों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ा। लेकिन बीते दो दशकों में गांव की महिलाओं ने साल, महुआ और बांस जैसे स्थानीय पेड़ों को लगाकर 50 एकड़ बंजर जमीन को फिर से हरा-भरा कर दिया है। इससे न केवल क्षेत्र में आजीविका के अवसर लौटे हैं बल्कि स्थानीय जलवायु भी संतुलित हुई है। यह पुनर्जीवित वन क्षेत्र एक कार्बन सिंक की तरह काम करता है जो तापमान को कम करता है, वर्षा लाता है, भूमिगत जल को रिचार्ज करता है और जैव-विविधता व प्राकृतिक आवासों की रक्षा करता है।

लेकिन वर्तमान कार्बन ट्रेडिंग फ्रेमवर्क—जैसे भारत का ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम और सीसीटीएस—बहुत सीमित, खरीदार-केंद्रित दृष्टिकोण से बनाए गए हैं। इनमें जंगलों, आर्द्रभूमियों और साझा संसाधनों को मुख्य रूप से कार्बन भंडार के रूप में देखा जाता है। वहीं, उनके खाद्य सुरक्षा, जल प्रबंधन, जैवविविधता और सांस्कृतिक जीवन में योगदान को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इन योजनाओं की लागत तय करना, सत्यापन और क्रेडिट का प्रवाह आदि सब कुछ कॉर्पोरेट कंपनियों और बाजार के बिचौलियों के नियंत्रण में होता है जिससे आमतौर पर समुदाय हाशिए पर रह जाते हैं। 

जून 2024 तक, भारत के सीसीटीएस में समुदायों को निर्णय-प्रक्रिया या निगरानी में शामिल करने के लिए किसी औपचारिक तंत्र का प्रावधान नहीं था। इससे यह बड़ा सवाल सामने आता है कि कार्बन ऑफसेट का संचालन वास्तव में कौन करता है। इसलिए जलवायु नीतियों को केवल बातों से हटाकर सशक्त तंत्र, पारदर्शी निगरानी और समुदायों के अधिकारों एवं आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले उपायों की दिशा में बढ़ना होगा।

इस तरह के प्रयासों के बिना, अनुकूलन और शमन (मिटीगेशन) प्रयास एक-दूसरे के विपरीत काम करने का खतरा पैदा करते हैं। इनसे उत्सर्जन घटाने के नाम पर समुदायों की आजीविका छिन जाती है और उनके द्वारा लंबे समय में विकसित किया गया लचीलापन कमजोर पड़ सकता है।

इसके विपरीत, यूरोपीय संघ जैसे परिपक्व बाजारों में ऐसे सुरक्षा प्रावधान हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि कंपनियां उत्सर्जन-प्रधान गतिविधियों को उन देशों में न ले जाएं जहां नियम ढीले हैं। साथ ही, सिविल सोसाइटी संगठन भी इन प्रणालियों की निगरानी और सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

साझा संसाधन केवल स्थानीय समुदायों की जीवनरेखा ही नहीं हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सुरक्षा कवच भी हैं। | चित्र साभारः टी. आर. शंकर रमन / सीसी बीवाई

2. सामुदायिक संरक्षण के रास्तों को मजबूत बनाना होगा

भारत में पहले से ही ऐसे संवैधानिक और कानूनी ढांचे मौजूद हैं जो समुदायों की भूमिका को मान्यता देते हैं और उन्हें मजबूती प्रदान करते हैं। अनुसूची V, पेसा कानून (1996) और वनाधिकार अधिनियम (2006) ‘मुक्त, पूर्व और सूचित सहमति (फ्री, पीरियर एंड इन्फॉर्म्ड कंसेंट- एफपीआईसी)’ के सिद्धांत को मान्यता देते हैं और ग्राम सभाओं को आदिवासी भूमि की रक्षा और संसाधनों के स्व-शासन का अधिकार देते हैं। इन कानूनों का सही कार्यान्वयन सामुदायिक शासन की नींव को मजबूत करता है।

भारत के अलग-अलग हिस्सों में सामुदायिक प्रबंधन के अनेक उदाहरण हैं। राजस्थान के कल्याणपुरा वॉटरशेड में समुदायों, ग्राम पंचायतों और गैर-सरकारी संगठनों ने मिलकर बंजर भूमि को पुनर्जीवित किया जिससे खेती और चारागाह दोनों को बहाल किया जा सका। केरल और तमिलनाडु में मछुआरा समुदाय ‘पडु’ जैसी पारंपरिक प्रणालियों के जरिए मछली पकड़ने के क्षेत्र बराबरी से साझा करते हैं। वहीं, ऊरु पंचायतें, करायोगम्स और पेरिश समितियां जैसे सामाजिक-धार्मिक संस्थान तटीय साझा संसाधनों का पर्यावरण के लिए उपयुक्त तरीकों से प्रबंधन करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की हालिया रिपोर्ट ‘इनेबलिंग राइट्स, सेक्योरिंग फ्यूचर्स’ ने कुछ अहम सिफारिशें दी हैं। इसमें जिक्र किया गया है कि कैसे सरकार की योजनाएं जैसे एससीए टू टीएसपी, आईटीडीपी, मनरेगा और एनआरएलएम आदि के जरिए भूमि विकास और वनीकरण से संबंधित कार्यों में समन्वय स्थापित कर समुदायों के अधिकारों को मजबूत कर सकती हैं। इसके अलावा, राज्य एजेंसियां मानचित्रण और भूमि सत्यापन जैसी प्रक्रियाओं के लिए वित्तीय सहायता देकर वन अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन में सहयोग कर सकती हैं। साथ ही, कल्याण और रोजगार योजनाओं को समुदाय द्वारा संचालित साझा संसाधनों के शासन के अनुरूप बना सकती हैं।

3. जलवायु और ऊर्जा समाधानों के केंद्र में सामाजिक न्याय की आवश्यकता 

भूमि और कॉमन्स के नुकसान की भरपाई केवल मुआवजे तक सीमित नहीं होनी चाहिए। कॉमन्स केवल आर्थिक संपत्ति नहीं हैं। वे खाद्य, जल, संस्कृति और सामुदायिक लचीलापन के स्रोत हैं। इसलिए सामाजिक न्याय को जलवायु और ऊर्जा योजनाओं के केंद्र में रखना आवश्यक है, ताकि जिन समुदायों के संसाधनों से ये परियोजनाएं संभव हो रही हैं, उन्हें पीछे न छोड़ दिया जाए।

इसके लिए ऐसे ढांचे यानी फ्रेमवर्क की आवश्यकता है जो: 

  • परियोजना स्वीकृति से पहले समुदायों की आजीविकाओं का नक्शा तैयार करें, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि स्थानीय स्तर पर कॉमन्स पर कौन-कौन निर्भर है और शुरू से ही उनके लिए सुरक्षा उपाय बनाए जाएं।

  • कॉमन्स भूमि और प्राकृतिक संसाधनों की पुनर्स्थापना को अनिवार्य बनाएं जिससे पर्यावरणीय और आर्थिक स्थायित्व बना रहे। 

  • स्थानीय कौशल विकास में निवेश करें, ताकि समुदायों खासकर युवाओं को नवीकरणीय ऊर्जा मूल्य श्रृंखला में सार्थक भागीदारी मिले। 

  • लाभ में साझेदारी या सह-स्वामित्व का मॉडल बनाया जाएं, ताकि समुदायों को ऊर्जा परियोजनाओं से उत्पन्न राजस्व में न्यायसंगत हिस्सा मिले और वे इन परियोजनाओं के परिणामों में निरंतर हिस्सेदार बने रहें। 

उदाहरण के तौर पर, भूमि उपयोग के नए डिजा़इन समानता को बढ़ावा दे सकते हैं। ऐसे डिजा़इनों में ऊंचे सोलर पैनलों के नीचे फसलें, पशुधन या मछली उत्पादन किया जा सकता है। इससे समुदाय खाद्य उत्पादन बनाए रखते हुए ऊर्जा भी उत्पन्न कर सकते हैं। तमिलनाडु में पवन चक्कियों के नीचे की जमीन को लीज पर देने से किसानों को बिजली राजस्व का हिस्सा मिला है। यह दिखाता है कि किस तरह न्यायपूर्ण डिजाइन जलवायु समाधान को स्थानीय आजीविका से जोड़ सकता है। 

जैसे-जैसे भारत जलवायु परिवर्तन से पैदा हुए बड़े बदलावों का सामना कर रहा है उससे आगे का रास्ता ऐसा होना चाहिए जो समुदायों और उनके संरक्षण को जलवायु कार्रवाई के केंद्र में रखे; न कि उन्हें हाशिए पर धकेले।

नोटः गोपनीयता बनाए रखने के लिए लेख में कुछ नाम बदल दिए गये हैं। राकेश स्वामी और पूजा राठी ने भी इस लेख में योगदान दिया है। 

यह लेख इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू (आईडीआर, हिंदी) से लिया गया है, जो एक स्वतंत्र मीडिया प्लेटफार्म है। ऑरीजनल लेख यहां क्लिक करके पढ़ें।