जलवायु

धूल के कारण हिमालय की ऊंचाइयों में तेजी से पिघल रही है बर्फ

Dayanidhi

पश्चिम से उड़ने वाली धूल एक लंबी दूरी तय करती है, यह भारतीय उपमहाद्वीप में वसंत और गर्मियों के दौरान होने वाली एक सतत घटना है। धूल बर्फ से ढके हिमालय तक पहुंच जाती है, जो हिमपात का समय और मात्रा बदलने के लिए जिम्मेदार है।

पश्चिमी हिमालय के ऊंचे पहाड़ों में उड़ने वाली धूल ने वहां की बर्फ को पिघलाने में पहले की तुलना में एक बड़ी भूमिका निभाई है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हिमालय में धूल-मिट्टी अधिक धूप को अवशोषित कर लेती है, जो चारों ओर से बर्फ को गर्म करती है।

यूं कियान ने बताया कि अफ्रीका और एशिया के कुछ हिस्सों से सैकड़ों मील की दूरी पर उड़ने वाली धूल और बहुत अधिक ऊंचाई पर धूल के बैठने से इस क्षेत्र में बर्फ के चक्र पर व्यापक प्रभाव पड़ रहा है। यूं कियान अमेरिकी ऊर्जा विभाग के पैसिफिक नॉर्थवेस्ट नेशनल लैबोरेटरी में वायुमंडलीय वैज्ञानिक हैं।  

दक्षिण-पूर्व एशिया में साथ ही साथ चीन और भारत के कुछ हिस्सों में 70 करोड़ (700 मिलियन) से अधिक लोग, हिमालय की बर्फ के पिघलने पर निर्भर करते हैं, क्योंकि उनकी ताज़े पानी की ज़रूरतों को यह पूरा करता है।

नासा के एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने हिमालय से ली गई सबसे विस्तृत उपग्रह छवियों में से कुछ का विश्लेषण किया। जिसका उद्देश्य एयरोसोल्स, ऊंचाई और सतह की विशेषताओं जैसे कि बर्फ पर धूल या प्रदूषण की उपस्थिति को मापना था। यह अध्ययन नेचर क्लाइमेट चेंज पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

धूल, प्रदूषण, सूरज और बर्फ पर: सफेदी का प्रभाव

बर्फ में काली वस्तुएं शुद्ध सफेद बर्फ की तुलना में अधिक प्रभावी ढंग से सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करती हैं। एक गहरे रंग की वस्तु जो बर्फ के पास सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करती है पुरानी बर्फ पिघलने की दर की तुलना में अधिक तेजी से पिघलती है।

वैज्ञानिकों ने "सफेदी (अल्बेडो)" शब्द का उपयोग इस बात के लिए किया है कि सतह कितनी अच्छी तरह सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करती है। धूलयुक्त बर्फ में कम सफेदी होती है, जबकि शुद्ध बर्फ में अधिक सफेदी होती है। धूल और गहरा रंग बर्फ की सफेदी को कम करते हैं, जिससे बर्फ अधिक प्रकाश को अवशोषित करती है और अधिक तेज़ी पिघलती है।

अधिक ऊंचाई पर सफेदी का प्रभाव उन लाखों लोगों के जीवन के लिए महत्वपूर्ण है, जो पीने के पानी के लिए  बर्फ के पिघलने पर भरोसा करते हैं। गहरे, धूलयुक्त बर्फ, शुद्ध बर्फ की तुलना में तेजी से पिघलती है, जिससे हिमपात का समय और मात्रा बदल जाती है, इसके कारण कृषि और जीवन के अन्य पहलुओं पर असर पड़ता है।

टीम ने पाया कि 4,500 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर धूल और प्रदूषण अन्य की तुलना में बर्फ को पिघलाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं, जिसे ब्लैक कार्बन कहा जाता है। वैज्ञानिकों ने बर्फ में धूल की तुलना में ब्लैक कार्बन की भूमिका का पता लगाया है।

धूल पश्चिम से पश्चिमी हिमालय में, पश्चिमोत्तर भारत के थार रेगिस्तान से, सऊदी अरब से और यहां तक कि अफ्रीका के सहारा से भी उड़ती है। धूल हजारों फीट ऊंची हवाओं में आती है, जिसे वैज्ञानिक उच्च एयरोसोल परत कहते हैं।

जबकि रेगिस्तान की धूल प्राकृतिक है, वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालय में इसकी अधिकता मानव प्रभाव के कारण है। बढ़ते तापमान ने वायुमंडलीय प्रसार को बदल दिया है, जो हवाओं को सैकड़ों या हजारों मील की दूरी तक ले जा सकता है। भूमि के उपयोग के पैटर्न में परिवर्तन और विकास के कारण वनस्पतियों में कमी आई है, जो धूल को जमीन से बांधकर रखते हैं, जिससे धूल से मुक्ति मिलती है।

कियान पहले वैज्ञानिकों में से एक हैं जिन्होंने परिष्कृत मॉडलिंग उपकरण विकसित किए, ताकि यह पता लगाया जा सके कि धूल और कालिख जैसी अशुद्धियां किस दर से बर्फ को पिघलती हैं।

धूल के बर्फ में रहने की शक्ति

वैज्ञानिकों ने बताया कि धूल के कण आमतौर पर ब्लैक कार्बन की तुलना में लंबे समय तक बर्फ में रहते हैं। धूल के कण आमतौर पर थोड़े बड़े होते हैं, यह आसानी से बर्फ से नहीं उड़ पाते हैं।

सारंगी ने कहा पश्चिमी हिमालय में बर्फ तेज़ी से घट रही है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि ऐसा क्यों हो रहा है। हमने दिखाया है कि तेजी से बर्फ के पिघलने में धूल की अहम भूमिका है। इस क्षेत्र के करोड़ों लोग अपने पीने के पानी के लिए बर्फ पर निर्भर हैं- हमें धूल जैसे कारकों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि यह क्या हो रहा है।

कियान ने बताया कि जैसे-जैसे जलवायु गर्म और हिम रेखाएं बढ़ती जाएंगी, वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि हिमालय में धूल की भूमिका और भी स्पष्ट हो जाएगी।