जलवायु

कैसे हो सकता है 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल, वैज्ञानिकों ने सुझाया रास्ता

Lalit Maurya

वैज्ञानिकों के अनुसार यदि वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है तो इसके लिए तेल और गैस के 60 फीसदी और कोयले के 89 फीसदी भंडार को जमीन में ही रहने देना होगा।

हालांकि जर्नल नेचर में प्रकाशित इस शोध के मुताबिक इसके बावजूद सदी के अंत तक तापमान में हो रही वृद्धि के 1.5 डिग्री सेल्सियस में सीमित रहने की केवल 50 फीसदी ही सम्भावना हैं। जिसका मतलब है कि यदि हमें इस लक्ष्य तक पहुंचने की सम्भावना को बढ़ाना है तो इसके लिए हमें जीवाश्म ईंधन के उत्पादन और उपयोग में और तेजी से गिरावट करने की जरुरत है। 

शोध से पता चला है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें 2050 तक वैश्विक स्तर पर तेल और गैस उत्पादन में सालाना 3 फीसदी की गिरावट करनी होगी। यदि देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन के खनन को लेकर जितनी भी परियोजनाएं कार्यरत और नियोजित हैं, उनमें से ज्यादातर 2015 के पैरिस जलवायु समझौते के अनुरूप नहीं हैं, इसका मतलब है कि वो तापमान में हो रही वृद्धि को तय सीमाओं के भीतर रख पाने के अनुकूल नहीं हैं। 

वैश्विक स्तर पर बड़ी संख्या में क्षेत्र पहले ही अपने जीवाश्म ईंधन उत्पादन के चरम पर पहुंच चुके हैं, ऐसे में यदि किसी एक क्षेत्र में भी उत्पादन में वृद्धि होती है तो उसकी भरपाई के लिए कहीं और दूसरी जगह उत्पादन में उससे ज्यादा गिरावट करनी होगी। वैज्ञानिकों द्वारा लगाया यह पूर्वानुमान वैश्विक स्तर पर ऊर्जा की मांग और पूर्ति के करीबी विश्लेषण पर आधारित है। 

शोध के मुताबिक यदि 2050 तक तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है तो इसके लिए तेल के 58 फीसदी, मीथेन के 59 फीसदी और कोयले के 89 फीसदी भंडार को धरती में ही छोड़ना होगा। 

इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डैन वेल्स्बी ने जानकारी दी है कि निष्कर्ष बताते हैं कि वैश्विक स्तर पर तेल और गैस का उत्पादन पहले ही अपने चरम पर है। ऐसे में क्षेत्रीय स्तर पर देखें तो निष्कर्ष जीवाश्म ईंधन के कारोबार में लगे बड़े उत्पादकों पर मंडराते बड़े संकट की ओर इशारा करते हैं।  उदाहरण के लिए मध्य पूर्व में होने वाला तेल उत्पादन 2020 से 2050 के बीच लगभग आधा हो जाएगा। ऐसे में काफी हद तक  जीवाश्म ईंधन पर निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को इस बारे में गंभीरता से सोचने की जरुरत है। 

शोध के अनुसार जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जहां मध्य पूर्व को लगभग अपने तेल और गैस के 60 फीसदी भण्डार को जमीन में ऐसे ही छोड़ना होगा। इसी तरह कनाडा में जहां तेल से बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन की सम्भावना है वहां इसके करीब 83 फीसदी भंडार और मध्य एवं दक्षिण अमेरिका में तेल के करीब 73 फीसदी भण्डार को ऐसे ही छोड़ना होगा। 

आसान नहीं है पैरिस समझौते की डगर

संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट के हवाले से पता चला है कि अगले पांच वर्षों में इस बात की करीब 40 फीसदी सम्भावना है कि वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगी। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर 2015 में किए पैरिस समझौते में तापमान में हो रही वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल से 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य रखा गया था। हालांकि अब तक वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि 1.2 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर चुकी है।

वहीं यदि संयुक्त राष्ट्र द्वारा ही प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट "एमिशन गैप रिपोर्ट 2020" में सम्भावना व्यक्त की गई है कि यदि तापमान में हो रही वृद्धि इसी तरह जारी रहती है, तो सदी के अंत तक वो 3.2 डिग्री सेल्सियस के पार चली जाएगी।

यदि हासिल न हो लक्ष्य तो क्या होगा परिणाम

हाल ही में जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों को लेकर डब्लूएमओ जारी एक रिपोर्ट से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के चलते जलवायु और मौसम से जुड़ी आपदाओं में पिछले पांच दशकों में करीब पांच गुना इजाफा हुआ है।  यह आपदाएं अब तक 20 लाख से ज्यादा लोगों की जान ले चुकी हैं।  यही नहीं इनसे वैश्विक अर्थव्यवस्था को करीब 266 लाख करोड़ रुपए का नुकसान भी उठाना पड़ा है। वैज्ञानिकों की मानें तो जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे है उनके चलते इन आपदाओं की संख्या और तीव्रता में समय के साथ इजाफा होता जाएगा। 

वहीं ऑक्सफैम द्वारा जारी विश्लेषण से पता चला है कि 2050 तक जलवायु परिवर्तन के चलते जी7 देशों की अर्थव्यवस्था को सालाना 8.5 फीसदी का नुकसान हो सकता है। इसी तरह यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए अभी कार्रवाई न की गई तो भारतीय अर्थव्यवस्था को इसके चलते सालाना 27 फीसदी का नुकसान हो सकता है। यही नहीं अनुमान है कि तापमान में 2.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ बाढ़, सूखा, तूफान, हीटवेव जैसी घटनाओं का आना आम हो जाएगा। साथ ही तापमान में हो रही यह वृद्धि स्वास्थ्य, कृषि उत्पादकता और लोगों की काम करने की क्षमता पर भी असर डालेगी।