जलवायु

पहले के मुकाबले 10 गुना ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं हिमालय के ग्लेशियर, भारत में गहरा सकता है जल संकट

जलवायु परिवर्तन के चलते जिस असाधारण तेजी से हिमालय में ग्लेशियर पिघल रहे हैं उसके चलते भारत सहित एशिया के कई देशों में जल संकट और गहरा सकता है

Lalit Maurya

हिमालय के ग्लेशियर असाधारण तौर पर पहले के मुकाबले 10 गुना ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं, जिसके चलते भारत सहित एशिया के कई देशों में जल संकट और गहरा सकता है। यह जानकारी हाल ही में लीड्स विश्वविद्यालय द्वारा किए अध्ययन में सामने आई है, जोकि जर्नल साइंटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित हुआ है।

अनुमान है कि जिस तेजी से यह ग्लेशियर पिघल रहे हैं उसके चलते गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी के लिए संकट पैदा हो सकता है। इसके कारण इन नदियों पर निर्भर करोड़ों लोगों की समस्याएं पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा बढ़ जाएंगी।   

शोध के मुताबिक हाल के दशकों में हिमालय के ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहे हैं उसकी रफ्तार 400-700 साल पहले हुई ग्लेशियर विस्तार की घटना जिसे हिमयुग या ‘लिटिल आइस एज’ कहा जाता है उसके मुकाबले दस गुना ज्यादा है। 

इस बारे में जानकारी देते हुए यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स और इस शोध से जुड़े शोधकर्ता डॉ जोनाथन कैरविक ने जानकारी दी है कि निष्कर्ष स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि पिछली शताब्दियों की तुलना में हिमालय के ग्लेशियर औसतन 10 गुना ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं। उनके अनुसार नुकसान की यह दर पिछले कुछ दशकों में काफी बढ़ गई है, जोकि इस बात का  सबूत है इसके पीछे हम इंसानों के कारण जलवायु में आ रहा बदलाव जिम्मेवार है। 

देखा जाए तो अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाद हिमालय के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ जमा है। यही वजह है कि इसे अक्सर दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। अपने इस शोध में शोधकर्ताओं ने उपग्रहों से प्राप्त चित्रों और डिजिटल तकनीकों की मदद से आज से करीब 400 से 700 साल पहले हिमालय में मौजूद रहे 14,798 ग्लेशियरों की रुपरेखा तैयार की है।

पहले के मुकाबले 40 फीसदी सिकुड़ चुके हैं ग्लेशियर

साथ ही बर्फ की सतह के मॉडल का पुनर्निर्माण किया है, जिससे उन ग्लेशियरों की लम्बाई और उनमें जमा बर्फ का अनुमान लगाया जा सके और यह जाना जा सके की तब से लेकर अब तक इन ग्लेशियरों से कितनी बर्फ किस रफ़्तार से पिघल चुकी है।    

मॉडल से पता चला है कि आज हम जो ग्लेशियर देख रहे हैं, उनका क्षेत्रफल पहले के मुकाबले 40 फीसदी सिकुड़ गया है। जो कभी अपने शिखर पर 28,000 वर्ग किलोमीटर से घटकर 19,600 वर्ग किलोमीटर में सीमित रह गए हैं। 

इतना ही नहीं अनुमान है कि इस अवधि के दौरान यह ग्लेशियर 586 क्यूबिक किलोमीटर बर्फ को खो चुके हैं। यह इतनी बर्फ है जितनी आज  मध्य यूरोपीय आल्प्स, काकेशस और स्कैंडिनेविया में संयुक्त रूप से मौजूद है। शोधकर्ताओं का मानना है कि यदि इतनी बर्फ पिघल जाए तो उससे दुनिया भर में समुद्र के जलस्तर में करीब 1.38 मिलीमीटर की वृद्धि हो जाएगी। 

जलवायु परिवर्तन की भूमिका

शोध में यह भी सामने आया है कि पूर्वी हिमालय में नेपाल और भूटान में मौजूद ग्लेशियर बड़े पैमाने पर तेजी से पिघल रहे हैं। अध्ययन के मुताबिक संभवतः ऐसा पर्वत श्रृंखला के दोनों किनारों पर भौगोलिक विशेषताओं में अंतर और वातावरण के साथ वो कैसे परस्पर प्रतिक्रिया कर रहे हैं उसके कारण हो रहा है जिससे मौसम के पैटर्न में बदलाव आ रहा है। 

इसी तरह जिन ग्लेशियरों के किनारे झीलों से मिले हुए हैं वो कहीं ज्यादा तेजी से घट रहे हैं। क्योंकि भूमि की तुलना में झीलों पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव ज्यादा होता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक जिस तरह से इन झीलों की संख्या और आकार में वृद्धि हो रही है, वो दर्शाता है कि इन ग्लेशियरों को बड़े पैमाने पर, निरंतर तेजी से नुकसान हो रहा है।

इसी तरह जिन ग्लेशियरों में प्राकृतिक तौर पर मलबे की मात्रा ज्यादा है वो भी तेजी से पिघल रहे हैं। अनुमान है कि कुल ग्लेशियरों का केवल 7.5 फीसदी होने के बावजूद उन्होंने ग्लेशियरों को होने वाली कुल हानि में करीब 46.5 फीसदी का योगदान दिया है। 

जर्नल द क्रायोस्फीयर में प्रकाशित एक अन्य शोध से पता चला है कि दुनिया भर में जमा बर्फ के पिघलने की रफ्तार तापमान बढ़ने के साथ बढ़ती जा रही है| 2017 में ग्लेशियरों और अन्य जगहों पर जमा यह बर्फ 1990 की तुलना में 65 फीसदी ज्यादा तेजी से पिघल रही थी| अनुमान है कि 1994 से 2017 के बीच 28 लाख करोड़ टन बर्फ पिघल चुकी है|

इसी तरह अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर में छपे एक शोध के मुताबिक वैश्विक स्तर पर ग्लेशियरों में जमा बर्फ के पिघलने की दर 2015 से 2019 के बीच रिकॉर्ड 29,800 करोड़ टन प्रतिवर्ष पर पहुंच गई थी, जिसका मतलब है कि पिछले 20 वर्षों में बर्फ के खोने की दर में 31.3 फीसदी का इजाफा हुआ है| वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस तेजी से यह ग्लेशियर पिघल रहे हैं उसका असर करोड़ों लोगों के जीवन पर पड़ेगा। अनुमान है कि इसके चलते अगले तीन दशकों में करीब 100 करोड़ लोग पीने के पानी और खाद्य की कमी का सामना करने को मजबूर हो जाएंगे|