जलवायु

चुनावी सरगर्मियों के बीच गर्मी की मार, क्या भविष्य में चुनाव के समय में करना पड़ सकता है फेरबदल

भीषण गर्मी और लू का कहर ढाई महीने चलने वाले इस लोकतंत्र के उत्सव का भी रंग फीका कर रहा है, जिसने चुनाव आयोग के साथ-साथ राजनीतिक पार्टियों की भी चिंता बढ़ा दी है

Lalit Maurya

देश में चुनावी सरगर्मियों के बीच मौसम भी कड़े तेवर दिखा रहा है। इस साल अप्रैल की शुरूआत से ही गर्मी ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। नतीजन कई राज्यों में भीषण गर्मी और लू से स्थिति खराब है। एक तरफ यह वो समय है जब ढाई महीने लंबा लोकतंत्र का उत्सव अपने अहम चरण में पहुंच चुका है।

सात चरणों के इस चुनावी दंगल पर न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया की निगाहें टिकी हैं। इस बीच मौसम ने भी अपने तेवर स्पष्ट कर दिए हैं। नतीजन बढ़ती गर्मी और लू का असर लोकसभा चुनावों पर भी साफ तौर पर देखा जा सकता है।

पहले दो चरण में हुए कम मतदान ने चुनाव आयोग के साथ-साथ राजनीतिक पार्टियों की भी चिंता बढ़ा दी है। बढ़ते तापमान से देश में स्थिति किस कदर खराब है, यह अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुछ स्थानों पर तो पारा 47 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया है जबकि अधिकांश स्थानों पर यह 42 से 45 डिग्री के बीच है।

जलवायु और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था क्लाईमेट ट्रेंड्स ने अपने नए अध्ययन में देश में बढ़ती गर्मी, लू के कारणों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। क्लाईमेट ट्रेंड्स के मुताबिक अप्रैल के दौरान लू वाले दिनों की संख्या 15 तक पहुंची गई जोकि देश में अब तक की सबसे लंबी अवधि है। वहीं पूर्वी और प्रायद्वीपीय भारत में गर्मी से स्थिति सबसे ज्यादा खराब है।

इन क्षेत्रों में वातावरण में मौजूद नमी स्थिति को कहीं ज्यादा बदतर बना रही है। केरल में भीषण गर्मी और लू का कहर जारी है, जो अब तक दस जिंदगियां निगल चुका है। केरल स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथारिटी ने भी पुष्टि की है कि 22 अप्रैल तक गर्मी से जुड़ी समस्याओं जैसे तेज धूप, शरीर पर पड़ते चकत्ते और हीट स्ट्रोक के अब तक 413 मामले सामने आ चुके हैं।

कमोबेश ऐसी ही स्थिति ओडिशा की है, जहां 16 जिलों में गर्मी की वजह से 124 लोगों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा है। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) पहले ही कह चुका है कि इस साल अप्रैल से जून के बीच देश के अधिकांश हिस्सों में तापमान सामान्य से कहीं ज्यादा रहेगा।

चुनावी दौर में जारी गर्मी और लू का सितम

इसके साथ ही मौसम विभाग ने इस दौरान लू वाले दिनों की संख्या भी दोगुनी होने की बात कही है। इसका मतलब है कि इस अवधि के दौरान जहां औसतन चार से आठ दिन चलती थी। वहीं इस साल 10 से 20 दिन लू का कहर जारी रह सकता है।

वैज्ञानिकों ने इस बात की भी आशंका जताई है कि 2024 पिछले साल की तुलना में कहीं ज्यादा गर्म रह सकता है। गौरतलब है कि जलवायु इतिहास में 2023 अब तक के सबसे गर्म साल के रूप में दर्ज है। इसी से समझा जा सकता है कि इस साल देश-दुनिया में गर्मी का मिजाज क्या रहने वाला है।

भारत में इस साल पड़ती भीषण गर्मी के कारणों पर गौर करें तो अप्रैल में मानसून से पहले होने वाली आंधी-बारिश की कमी को तापमान बढ़ने की वजह माना जा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि देश में अप्रैल में होने वाली बारिश में 20 फीसदी तक की कमी दर्ज की गई है।

देश के दक्षिणी प्रायद्वीपीय क्षेत्र में अप्रैल 2024 के दौरान 12.6 मिलीमीटर बारिश हुई, जो 1901 के बाद से पांचवी सबसे कम बारिश है। 2001 के बाद से कभी भी इतनी कम बारिश नहीं हुई। इसके बाद पूर्वी और उत्तर पूर्वी भारत की बारी आती है जहां बारिश में करीब 39 फीसद की कमी देखी गई है।

आईएमडी के महानिदेशक मृत्युंजल महापात्रा ने हाल ही में कहा है कि ओमान, उससे सटे क्षेत्रों और आंध्र प्रदेश में प्रति-चक्रवात परिस्थितियों की निरंतर उपस्थिति के चलते मौसमी प्रक्रिया ठीक से नहीं बन पाई। इसकी वजह से ओडिशा और पश्चिम बंगाल में अधिकांश दिन समुद्री हवा का प्रभाव न के बराबर रहा, नतीजतन जमीन से चलने वाली गर्म हवाओं को रास्ता मिला और उसकी वजह से तापमान में इजाफा दर्ज किया गया।

हालांकि पश्चिमी विक्षोभ के चलते पश्चिमोत्तर के मैदानी क्षेत्र में लू का असर नहीं रहा। इसके अलावा कमजोर होते अल नीनो के बचे खुचे प्रभाव ने भी लू के बढ़ने में भूमिका निभाई है। क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा जारी रिसर्च के मुताबिक बीते 15 वर्षों के आंकड़ों को देखें तो अप्रैल 2024 में लू का कहर कहीं ज्यादा हावी रहा।

2017-2024 के बीच पिछले नौ वर्षों में ओडिशा और बंगाल का गंगा किनारे वाला इलाका पिछले महीने लू से सबसे ज्यादा प्रभावित रहे। इसी तरह यदि बीते 15 वर्षों में लू की स्थिति को देखें तो जहां अप्रैल 2016 में 21 दिन लू का कहर दर्ज किया गया था। वहीं अप्रैल 2024 में 18 दिन लू का कहर देखा गया जो उसे दूसरी सबसे लम्बी अवधि बनाता है।

पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में बढ़ते तापमान ने 1901 के बाद से एक नया रिकॉर्ड बनाया, जब 22.19 डिग्री सेल्सियस के साथ न्यूनतम तापमान अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया। जो औसत न्यूनतम तापमान की तुलना में 1.78 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा।

इसी तरह भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र ने भी एक नया रिकॉर्ड स्थापित किया है। जहां साल 1901 के बाद न्यूनतम और अधिकतम तापमान दूसरी बार इस हद तक पहुंचा है। गौरतलब है कि इस क्षेत्र में जहां न्यूनतम तापमान 25.8 डिग्री सेल्सियस वहीं अधिकतम तापमान 37.5 डिग्री सेल्सियस पर पहुंच गया था।

पश्चिम बंगाल में पिछले 15 वर्षों के दौरान अप्रैल 2024 में सबसे ज्यादा लू वाले दिन दर्ज किए थे। इसी तरह ओडिशा में भी अप्रैल के दौरान गर्मी की स्थिति पिछले नौ वर्षों में सबसे खराब रही। वहीं यदि मई की बात करें तो इस महीने भी गर्मी से राहत मिलने के आसार नहीं हैं। मौसम विभाग ने मई के लिए जारी अपने आउटलुक में कहा है कि देश के अधिकांश हिस्सों में अधिकतम और न्यूनतम तापमान सामने से अधिक रह सकता है।

अनुमान है कि दक्षिणी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, विदर्भ, मराठवाड़ा और गुजरात में सामान्य से अधिक तापमान वाले दिनों की संख्या पांच से आठ तक बढ़ सकती है। वहीं शेष राजस्थान, पूर्वी मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ के कुछ क्षेत्रों, अंदरूनी ओडिशा, पश्चिम बंगाल के कुछ इलाके, झारखंड, बिहार, अंदरूनी उत्तरी कर्नाटक और तेलंगाना के साथ-साथ तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में सामान्य से अधिक तापमान वाले दिनों की संख्या दो से चार तक बढ़ सकती है।

अल नीनो और जलवायु परिवर्तन के संजोग से बिगड़ रहे हालात

देश-दुनिया में मौसम पर अल नीनो का प्रभाव भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। बता दें कि अल नीनो एक मौसमी प्रक्रिया है, जिसके दौरान तापमान कहीं ज्यादा बढ़ जाता है। इतना ही नहीं इसकी वजह से चरम मौसमी घटनाओं की आशंका कहीं ज्यादा बढ़ जाती है। वैश्विक स्तर पर जिस तरह से तापमान में इजाफा हो रहा है वो भी अपने साथ नई  दिक्कतें पैदा कर रहा है।

कई वैज्ञानिकों का भी कहना है कि अल नीनो के कारण जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव बढ़ेंगें। ऐसे में अल नीनो और जलवायु परिवर्तन का बढ़ता प्रभाव वैश्विक तापमान को नए शिखर तक पहुंचा सकता है। ऐसा ही कुछ 2015-16 और उसके बाद 2023 में भी देखने को मिला था जब अल नीनो और जलवायु परिवर्तन के सम्मिलित प्रभाव ने बढ़ते तापमान के मामले में 2023 को इतिहास के पन्नों में दर्ज कर दिया था।

 इनकी वजह से दुनिया के बड़े हिस्से में सूखा और दावाग्नि जैसी चरम घटनाओं का खतरा भी दोगुना हो जाता है। वहीं दूसरी ओर सिर्फ ऐसा नहीं है कि अल नीनो वर्षों में तापमान बढ़ रहा है, ला नीना वर्षों में भी बढ़ते तापमान का असर दर्ज किया गया है, जो स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि आज बढ़ते तापमान का असर इन घटनाओं पर भी हावी हो चुका है। गौरतलब है कि 2022 भी एक ला नीना वर्ष था, लेकिन उसके बावजूद वो इतिहास का पांचवा सबसे गर्म वर्ष रहा।

मौसम में इस रूप को देखते हुए भारत के चुनाव आयोग ने भी मतदाताओं को लू और भीषण गर्मी से बचाने के लिए जरूरी कदम उठाए हैं। इसके लिए टास्क फोर्स भी बनाई गई है, जिसमें आयोग के साथ-साथ मौसम विभाग, एनडीएमए और स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी भी शामिल हैं।

आंकड़ों की मानें तो बीते दस वर्ष इतिहास के सबसे गर्म वर्ष रहे हैं और इस दौरन 2014 और 2019 में बीते दो लोकसभा चुनाव भी हुए हैं। गौरतलब है कि जहां साल 2014 में वैश्विक औसत तापमान में होती वृद्धि एक डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गई थी, जबकि 2019 में यह बढ़कर 1.2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गई।

नेशनल ओशनिक एंड एटमास्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) और नासा के आंकड़े भी पुष्टि करते हैं कि साल 2023, पिछले 144 वर्षों का अब तक का सबसे गर्म वर्ष था जब बढ़ता तापमान बीसवीं सदी के औसत तापमान से 1.4 डिग्री सेल्सियस ज्यादा रहा। अमेरिकी एजेंसी ने 2024 के भी सबसे गर्म साल होने की 33 फीसदी आशंका जताई है। वहीं इसके पांच सबसे गर्म वर्षों में शामिल होने की 99 फीसदी आशंका है।

मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो भारत उन देशों में शामिल हैं जिनपर लू का गंभीर खतरा मंडरा रहा है। अनुमान है कि यदि बढ़ता उत्सर्जन इसी तरह जारी रहता है तो इस क्षेत्र में लू की आशंका में छह गुणा तक वृद्धि हो सकती है। नतीजन दुनिया में 100 करोड़ से ज्यादा लोगों पर भीषण गर्मी और लू का खतरा बढ़ जाएगा।

क्या चुनाव के समय में फेर-बदल के लिए संविधान में है कोई प्रावधान

ऐसे में भारत में भी लोगों के मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या साल के किसी और मौसम में इन चुनावों को कराने के लिए चुनाव आयोग के पास कोई प्रविधान है? ताकि लोगों को भीषण गर्मी से बचाया जा सके। संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक लोकसभा के पांच वर्ष के कार्यकाल की समाप्ति पर चुनाव आयोग के पास छह माह की अवधि होती है, जिस दौरान वो चुनाव करा सकता है।

इस बारे में पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने 1951 की एक घटना का हवाला देते हुए प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है कि उस साल हिमाचल प्रदेश के ऊंचे क्षेत्रों में बर्फ गिरने की आशंका के चलते सितंबर में चुनाव कराए गए थे, जबकि बाकी देश में अक्टूबर में मतदान हुआ था। वह कहते हैं कि चुनाव की तारीखों में संशोधन की संभावना है, लेकिन इसके साथ अन्य कई कारणों पर भी गंभीरता से विचार करना होगा।

लवासा के अनुसार ‘चुनाव के दौरान बाधाएं न आ सकें इससे बचने के लिए मौसमी परिस्थितियों पर हमेशा ध्यान दिया जाता है। चुनाव आयोग के पास 180 दिन की अवधि में चुनाव कराने का प्रविधान है, लेकिन उसे बहुत सतर्क रहना होगा कि इससे सरकार के कामकाज में एक भी दिन की कमी न हो। एक और समस्या यह है कि फरवरी-मार्च का समय परीक्षाओं का होता है सो उसे भी छेड़ा नहीं जा सकता है।

एक अन्य पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत का भी यही विचार है। उन्होंने क्लाइमेट ट्रेंड को जानकारी देते हुए कहा है कि, ’सभी दलों के बीच सामंजस्य से इसका हल किया जा सकता है। लोकसभा चुनाव कराने के लिए 180 दिन का कालखंड होता है। मसलन इस लोकसभा चुनाव के लिए 17 दिसंबर 2023 से 16 जून 2024 तक की अवधि आयोग के पास थी।

चूंकि नवंबर-दिसंबर में कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव थे, इस कारण लोकसभा चुनाव को दो-तीन महीने बाद रखा गया। उनके मुताबिक इस प्रकार की स्थिति से बचने के लिए चुनाव आयोग को सभी दलों की बैठक बुलानी चाहिए। विधानसभा चुनाव में भी देरी करके संसदीय चुनाव छह माह की अवधि में कराए जाने पर सहमति बन सकती है।

इसके बाद 2029 में एक जनवरी से 30 जून के बीच चुनावी अवधि होगी। ऐसे में फरवरी-मार्च का समय सबसे बेहतर रहेगा। अन्यथा कानून में संशोधन हो ताकि चुनाव आयोग राज्यों के चुनाव बाद में करा सके। बढ़ती गर्मी और कम होते मतदान के मुद्दे पर बहस जारी है, लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि बढ़ती गर्मी के प्रभाव को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।

आंकड़े बताते हैं कि भारत में किसी दूसरी प्राकृतिक आपदा की तुलना में लू से कहीं ज्यादा मौतें हुई हैं। इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाईमेट चेंज (आईपीसीसी) की छठी एसेसमेंट रिपोर्ट का भी कहना है कि जलवायु में जो बदलाव आ रहे हैं, उनकी वजह से 1950 से अब तक लू की संख्या और तीव्रता में बढ़ोतरी हुई है, जिसके लिए हम इंसान ही जिम्मेवार हैं जो बढ़ते उत्सर्जन की वजह बन रहे हैं।

अनुमान है कि बढ़ते तापमान के साथ यह खतरा और बढ़ता जाएगा।

भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के सीनियर साइंटिस्ट राक्सी मैथ्यू कोल का भी मानना है कि वैश्विक तापमान में होती वृद्धि के कारण लू की घटनाओं, अवधि, प्रभाव, और क्षेत्र में वृद्धि हुई है। इसका मतलब है कि गर्मी से बचाव का कोई रास्ता नहीं है। जलवायु के सभी माडल उस ओर इशारा कर रहे हैं कि भविष्य में लू की घटनाएं बढ़ेगी।

इससे मौसमी परिस्थितियां बदलेंगी और इससे जंगल में लगने वाली आग और वायु प्रदूषण भी बढ़ेगा। जो स्वास्थ्य के लिए कहीं ज्यादा विषम परिस्थितियां पैदा कर देगा।