कॉमिक, सड़क से जुड़ा हुआ दुनिया का सबसे ऊंचा गांव है, जो समुद्र तल से 4,587 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसी वजह से यह गांव दुनियाभर के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहता है। गांव की आबादी सिर्फ 110 है। सर्दियों में बर्फ से ढंकने के कारण यह गांव दुनिया से कट जाता है। åजब डाउन टू अर्थ सितंबर के पहले सप्ताह में इस गांव में पहुंचा तो लोग अपने खेतों में व्यस्त थे। ये लोग सितंबर और अक्टूबर के दो महीने बहुत व्यस्त रहते हैं। साल के इन दो महीनों में ही उन्हें इतना काम करना होता है, कि नवबंर से अप्रैल के अगले छह महीने तक घर के भीतर रहने में उन्हें कोई परेशानी न हो, क्योंकि भारी बर्फबारी के कारण वे घर से बाहर नहीं निकल पाते। इस दौरान वे अपनी एकमात्र नगदी फसल मटर तोड़ कर बेचते हैं। जौ की दूसरी फसल काटकर घर में रखते हैं, जिसे वे अपने खाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। जरूरी राशन भी लेते हैं और पशुओं के लिए चारे का इंतजाम भी करते हैं।
लेकिन छेरिंग अगंदुई उर्फ केसंग परेशान हैं। वह कॉमिक गांव के नंबरदार हैं और उनकी पत्नी प्रधान हैं। केसंग बताते हैं कि इस बार मटर की फसल अब तक पकी नहीं है और जौ की फसल भी कमजोर है। यहां जौ और मटर की बिजाई अप्रैल में की जाती है और अगस्त के आखिरी या सितंबर के पहले सप्ताह तक फसल पक जाती है, लेकिन इस साल दोनों फसलें सही समय से नहीं पक पाईं। केसंग ने कहा, “अगर इस बार मटर के दाम अच्छे नहीं मिले तो पता नहीं, अगले छह माह के लिए वह अपने परिवार के िलए राशन कहां से लाएगा?” कॉमिक के साथ लगते गांव लांग्चा और हिक्किम एक ही पंचायत में आते हैं। हिक्किम को दुनिया के सबसे ऊंचे डाकघर की वजह से भी जाना जाता है। ये तीनों गांव हिमाचल प्रदेश के जिले लाहौल एवं स्पीति का हिस्सा है, जो अपनी सुंदरता के लिए दुिनयाभर में मशहूर है। इसकी वजह है, यहां की जलवायु। इसी वजह से स्पीति भारत के ठंडे मरुस्थल वाले जिलों में शामिल है। भारत में तीन जिले ठंडे रेगिस्तान की श्रेणी में आते हैं, इनमें लाहौल-स्पीति के अलावा हिमाचल का ही किन्नौर और भारत का केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख शामिल है।
लेकिन अपनी अनूठी ठंडी और शुष्क जलवायु के कारण ये इलाके जलवायु परिवर्तन के लिए भी सबसे अधिक संवेदनशील माने जाते हैं। यहां बर्फ गिरने का समय बदल गया है। कम बर्फ गिर रही है। मॉनसून में बारिश कम हो रही है और वैश्विक तापमान के चलते यहां तापमान बढ़ रहा है। दरअसल जब रेगिस्तान की बात होती है तो समझा जाता है कि गर्म, शुष्क रेतीला इलाका, लेकिन इससे इतर शीत रेगिस्तान शुष्क तो होता है, परंतु बेहद ठंडा होने के साथ-साथ अद्भुत खूबसूरत भी होता है। सर्दियों में भारी हिमपात के कारण यह इलाका निर्जन हो जाता है, लेकिन इन इलाकों के भीतर की जलवायु एक भाग से दूसरे भाग में व्यापक रूप से अलग होती है, जिसके चलते यहां कई सूक्ष्म जलवायु क्षेत्र बन जाते हैं। सूक्ष्म जलवायु क्षेत्र से आशय है कि बेहद छोटे-छोटे इलाकों का मौसम अलग-अलग होना। ठंड और शुष्कता के बावजूद ये इलाके जीवन से भरे हुए हैं। यहां के लोगों का जीवन पूरी तरह से बर्फ पर निर्भर है। सर्दियों में पड़ी बर्फ जब मार्च-अप्रैल में पिघल जाती है तो मिट्टी पर बर्फ की नमी ही इन इलाकों मंे खेतों की सिंचाई का साधन बनती है और इसके बाद लोग बिजाई शुरू कर देते हैं। बेशक भारत के दूसरे इलाकों के मुकाबले ठंडे रेगिस्तान में बेहद कम बारिश होती है, लेकिन मॉनसून के दौरान होने वाली यही कम बारिश भी इन लोगों के लिए अमृत समान होती है। खेतों में लगती फसल के लिए यह बारिश काफी मदद करती है, बल्कि खाली मैदानों में घास निकल आती है, जो पशुओं के लिए चारे के काम आती है। यही बािरश भूजल रिचार्ज करती है और पीने के पानी के स्रोतों (चश्मों) को सूखने से बचाती है।
केसंग कहते हैं कि इस साल स्पीति में जनवरी-फरवरी में बर्फ ही नहीं पड़ी। मार्च-अप्रैल में बर्फ पड़ी, जो डेढ़ से दो फुट रही होगी। बर्फ कमजोर भी थी, जो ज्यादा दिन टिक नहीं पाई और बह गई। जैसे-तैसे मटर और जौ की बिजाई की, लेकिन जुलाई में बारिश नहीं हुई। लगभग 14 किलोमीटर दूर पानी के चश्मे (ग्लेशियर से निकलने वाला स्रोत या झरना) से कूल (नालियों) के माध्यम से पानी लाकर जौ और मटर की फसल को पानी दिया, लेकिन फिर भी इस साल दोनों फसलें अच्छी नहीं हुई हैं। िहक्किम गांव के लोग कॉमिक जितने खुशकिस्मत नहीं है। यहां से चश्मा लगभग 25 किलोमीटर दूर है, इसलिए उनके खेतों तक पानी नहीं पहुंच पाता। गांव के छेरिंग छोपेल बताते हैं कि इस साल बारिश नहीं हुई, इसलिए गांव के एक तिहाई खेत खाली छोड़ने पड़े। इन गांवों में औसतन एक परिवार के पास 40 से 55 बीघा खेती की जमीन है। जहां वे अपने परिवार के लायक जौ के अलावा कुछ नगदी सब्जियां उगाते हैं, परिवार का खर्च हरी मटर से चलता है। काली मटर यहां की प्राचीन फसल है, लेकिन बाजार में खरीदार न होने के कारण काली मटर केवल अपने लिए उगाते हैं। गांव के लगभग हर घर में होम स्टे है, इस तरह पर्यटकों और हरी मटर बेचकर हर परिवार डेढ़ से दो लाख रुपए कमा लेता है। लांग्चा गांव के अगंडुई नोरबु बताते हैं कि उनके जीवन के लिए पशुओं को बहुत महत्व है। हर परिवार के पास याक, गाय, भेड़, बकरियां और गधे होते हैं। इनके लिए गांव के आसपास उगी घास व झाड़ियां काटकर चारे का इंतजाम करते थे, लेकिन अब दूर-दूर जाना पड़ता है। इस साल बारिश भी बहुत कम हुई है। मौसम विज्ञान विभाग के मुताबिक, मॉनसून सीजन 2021 के दौरान लाहौल-स्पीति जिले में 122.8 मिलीमीटर बारिश हुई, जो सामान्य बारिश (394.7 मिमी) से 69 फीसदी कम है।
शीत रेगिस्तान का सबसे बड़ा हिस्सा लद्दाख में है। लगभग 1.17 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले लद्दाख को संसार का सबसे ऊंचा निर्जन पठार कहा जाता है। इसकी ऊंचाई 2,750 मीटर से लेकर 7,672 मीटर है। इतनी ऊंचाई पर स्थित इसकी पहाड़ी चोटियों की वजह से भारतीय मॉनसून के बादल यहां बरस नहीं पाते, इसलिए यहां बारिश बहुत कम होती है।
डाउन टू अर्थ सितंबर के पहले सप्ताह में ही लद्दाख भी पहुंचा। लेह, लद्दाख का प्रशासनिक मुख्यालय है। यहां भी सितंबर के पहले सप्ताह में गर्मी भीषण थी। आमतौर पर सितंबर तक सर्दी शुरू हो जाती है। गर्मी के बीच लेह के आसपास के पहाड़ों में बारिश और बर्फबारी होती थी। यहां की सामान्य मॉनसून वर्षा केवल 37.6 मिमी है लेकिन 2021 में वर्षा केवल 21.9 मिमी हुई, जो 42 प्रतिशत कम थी। इससे कई गांवों के किसानों ने इस सीजन में अपने खेतों को परती छोड़ दिया है। लेह में एलएनपी (लेह न्यूट्रिशन प्रोजेक्ट) के कार्यकारी निदेशक ईशी पालजोर कहते हैं, “पहाड़ों के दक्षिण की ओर ढलान वाले गांवों में स्थिति अधिक विकट है क्योंकि ये पूर्णतः बारिश और बर्फ पर निर्भर हैं।” एलएनपी इनमें से कई गांवों में जल संकट को हल करने के लिए कृत्रिम ग्लेशियरों का निर्माण कर रहा है।
पालजोर ने भी पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में बर्फबारी में भारी कमी देखी है। पालजोर ने डाउन टू अर्थ से कहा, “लगभग 15-20 साल पहले लेह के आसपास के गांवों में, हर घर जौ, आलू, मटर उगाता था और भेड़, गाय, गधे और घोड़ों जैसे पशुओं का पालन-पोषण करता था। लेकिन यह अब न केवल जलवायु परिवर्तन और पानी की अनुपलब्धता के कारण बदल गया है, बल्कि क्षेत्र में विकास गतिविधियों, लोगों के बीच पर्यटन और जीवनशैली में बदलाव के कारण भी बदल गया है”। एलएनपी के कार्यक्रम प्रबंधक चोटक ग्यात्सो का कहना है कि लद्दाख क्षेत्र की जैव विविधता भी बदलती जलवायु से गंभीर रूप से प्रभावित है। इसकी झीलों और आर्द्रभूमि के आसपास बदलाव देखा जा सकता है। ये झीलें ज्यादातर पहाड़ों और ग्लेशियरों में पिघलती बर्फ से बहने वाले झरनों से पोषित होती हैं। वह कहते हैं कि यहां मैगपाई, स्पैरो और रेड बिल चॉ जैसी पक्षियों की संख्या कम हो रही है।
न बर्फ, न बारिश
हिमालय की इस अनोखी धराेहर की पहचान ही बर्फ है। सितंबर में भी जहां-तहां बर्फ की चोटियां देखने को मिल जाती हैं, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के शोधकर्ताओं ने लद्दाख के जांस्कार स्थित पेन्सिलुंगपा ग्लेशियर (पीजी) पर 2016 से 2019 के बीच अध्ययन किया। इस अध्ययन में पाया गया कि यह ग्लेशियर 6.7 मीटर सालाना की दर से पीछे हट रहा है। अध्ययन में इसके लिए जलवायु परिवर्तन को दोषी ठहराते हुए कहा गया कि इस क्षेत्र में न केवल तापमान बढ़ रहा है, बल्कि सर्दियों में होने वाली बारिश भी कम होती जा रही है।
हिमाचल में भी एक सरकारी अध्ययन में पाया गया कि इस साल यहां बर्फ कम गिरी है। जो इलाका साल 2019-20 में 23,542 वर्ग किमी बर्फ से ढका था, वो 2020-21 में घटकर 19,183 वर्ग किमी रह गया। यानी इसमें 18.52 प्रतिशत की गिरावट रिकॉर्ड की गई। यह अध्ययन दी सेंटर ऑन क्लाइमेट चेंज ऑफ दी हिमाचल प्रदेश काउंसिल फॉर साइंस टेक्नोलॉजी एंड एनवायरमेंट (हिमकोस्ट) और स्पेस एप्लीकेशन सेंटर, अहमदाबाद ने अक्टूबर 2020 से लेकर मई 2021 तक किया।
आंकड़े बताते हैं कि हिमाचल में सभी चार प्रमुख नदी घाटियां, रावी, सतलुज, चिनाब और ब्यास ने बर्फ का आवरण क्षेत्र कम हुआ है। चिनाब बेसिन में बर्फ का आवरण 2019-20 में 7,154.12 वर्ग किमी से घटकर 2020-21 में 6,515.92 वर्ग किमी हो गया। ब्यास बेसिन में औसत हिम आवरण क्षेत्र में लगभग 19 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। यह 2,457.68 वर्ग किमी से घटकर 2,002.04 वर्ग किमी हो गया है। रावी बेसिन में कुल मिलाकर 23 प्रतिशत की कमी रिकॉर्ड की गई। यह पिछले साल सर्दियों में 2,108 वर्ग किमी था, जो घटकर 1,619.83 वर्ग किमी ही रह गया। सतलुज बेसिन में बर्फ का आवरण 2,777 वर्ग किमी (23 प्रतिशत) सिकुड़ गया। यह 2019-20 में 11,823.28 वर्ग किमी और इस वर्ष 9,045.51 वर्ग किमी रिकॉर्ड किया गया। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन ज्योलॉजी के िहमनद विज्ञानी रह चुके डीपी डोभाल कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन का असर वैसे तो पूरे हिमालय पर देखा जा सकता है, लेकिन हिमालय के शीत रेगिस्तान पर बड़ा असर पड़ रहा है। बर्फ कम पड़ने और बढ़ती गर्मी के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इससे वहां के स्थानीय लोगों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
शीत रेगिस्तानी इलाकों में बािरश भी लगातार कम हो रही है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग, पुणे ने 1989 से 2018 के दौरान हिमाचल प्रदेश में हुई बारिश के आंकड़ों का विश्लेषण किया जो बताता है कि हिमाचल के चंबा और लाहौल स्पीति में सालाना बारिश में कमी आ रही है (देखें, सामान्य बारिश का इंतजार)। जबकि मॉनसून सीजन में लाहौल स्पीति के साथ-साथ किनौर में भी बारिश में कमी आ रही है। खासकर जुलाई और अगस्त में बारिश में खासी कमी आई है। एक और अध्ययन लेह मंे कम हो रही बािरश की तस्दीक करता है। जवाहरलाल विश्वविद्यालय, दिल्ली और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, जम्मू के शोधकर्ताओं द्वारा 2016 में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक, लेह में 1995 के दशक के बाद से बारिश के रुझान में भारी गिरावट देखी गई है। अध्ययन में कहा गया है कि इन क्षेत्रों की बदलती जलवायु देश के बाकी हिस्सों में जलवायु पैटर्न को भी प्रभावित कर सकती है क्योंकि इस क्षेत्र की कई पर्वत श्रृंखलाएं देश में मॉनसून परिसंचरण के व्यवहार के लिए महत्वपूर्ण हैं।
बढ़ रहा है तापमान
ठंडा रेगिस्तान भी अब गर्म हो रहा है। दिल्ली में जवाहरलाल विश्वविद्यालय और जम्मू में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी का अध्ययन बताता है कि लेह के तापमान में गर्माहट बढ़ रही है। अध्ययन से पता चलता है कि गर्मी की प्रवृत्ति 1960 के बाद अधिक स्पष्ट हुई है। इस अध्ययन में 1901 से तापमान के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है, जो बताता है कि 1901 से 1979 तक लेह में गर्मी बढ़ रही थी, लेकिन 1979 से 1991 के दौरान तापमान में कमी आई, परंतु 1991 के बाद तापमान लगातार बढ़ रहा है (देखें, बदलता परिवेश, पेज 48)। रिपोर्ट में कहा गया है, “हालांकि लेह एक ठंडा और शुष्क क्षेत्र है, ऐसे में एक गर्म वातावरण और वर्षा के पैटर्न में बदलाव का पारिस्थितिकी, वनस्पति, वन्य जीवन, जल विज्ञान, क्रायोस्फीयर और यहां तक कि मानव समाज (कृषि और परिवहन) पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।” डाउन टू अर्थ ने स्पीति के ताबो स्थित कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा रिकॉर्ड किए जा रहे तापमान का विश्लेषण किया तो पाया कि ताबो में 2011 से लेकर 2021 के दौरान जनवरी माह में अधिकतम तापमान में वृद्धि हो रही है।
ताबो समुद्र तल से 3,280 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। 2011 में ताबो का जनवरी माह का औसत अधिकतम तापमान 4.4 डिग्री सेल्सियस था, जबकि 2021 के जनवरी माह का अधिकतम तापमान 8.9 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया। इसी तरह अगर मीन (औसत) तापमान की बात करें तो 2011 का औसत तापमान -9.9 डिग्री सेल्सियस था, जबकि 2021 के जनवरी माह का औसत तापमान -4.1 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। 2018 में यानी जिस साल स्पीति के स्थानीय लोग पूरा साल बर्फ न पड़ने की बात कर रहे हैं, उस साल की जनवरी माह का अधिकतम तापमान 12.7 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था। इन इलाकों में मौसम का पूरा पैटर्न ही बदल गया है। स्पीति में 17-18 अगस्त को एक मेला आयोजित किया जाता है। इसे लादरचा कहा जाता है। यह व्यापार मेला है। इसमें तिब्बत से लेकर किन्नौर, मनाली आदि के व्यापारी आते हैं। सब लोग यहां खरीदारी करते हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन के बाद ठंड शुरू हो जाएगी और बर्फ गिरनी शुरू हो जाएगी। साथ ही रास्ते बंद हो जाएंगे, लेकिन अब ऐसा नहीं होता। स्वयंसेवी संस्था स्पीति सिविल सोसायटी के अध्यक्ष सोनम तार्गी बताते हैं कि मेला तो अब भी लगता है, लेकिन अब उतनी खरीदारी नहीं होती। लोग नवंबर तक खरीदारी करते हैं। कई इलाकों में बर्फबारी न होने के कारण सालभर रास्ते बंद नहीं होते।
सिंचाई ही नहीं, पीने के पानी का भी संकट बढ़ रहा है। साल 2002 से स्पीति में काम कर रही संस्था इकोस्पयार की संस्थापक इशिता खन्ना बताती हैं, “स्पीति के गांव डेमुल और चिचुम जिन चश्मों पर निर्भर थे, जलवायु परिवर्तन के चलते उनमें से कई चश्मे सूख गए हैं। हमने डेमुल में चैकडेम की सीरीज बनाई। सर्दियों में तापमान कम होने पर वहां एक कृत्रिम ग्लेशियर खड़ा हो जाता है। जो गर्मियों में पिघलता है और उसके पानी से सिंचाई की जाती है। जिससे भूजल रिचार्ज हो रहा है।” हिमालय पर कई अध्ययन कर चुके इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं कुमाऊं विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति एसपी सिंह कहते हैं कि लद्दाख सहित पूरे शीत रेगिस्तानी इलाकों में कृत्रिम ग्लेशियर का जो विकल्प तैयार किया जा रहा है, वह दीर्घकालिक उपाय नहीं है। इन इलाकों की सुरक्षा के लिए जलवायु परिवर्तन को कम करना होगा और व्यापक उपाय करने होंगे।
आपदाओं का खतरा
बदलती जलवायु के साथ ही इस शांत इलाके पर भी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है। लेह के लोग 2010 में हुई बादल फटने की घटना को आज भी नहीं भूले हैं। 4-6 अगस्त 2010 को बादल फटने के कारण 233 लोगों की मौत हो गई थी और 424 लोग घायल हुए थे। मौसम विज्ञानी सोनम लोट्स बताते हैं कि 2021 में दो बड़ी घटनाएं हुई। अगस्त में पहली घटना कारगिल में मडस्लाइड की हुई, जबकि दूसरी घटना रुमबक में कृत्रिम झील के फटने की हुई। सोनम कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से लद्दाख में चरम मौसमी घटनाएं बढ़ी हैं। मई 2011 में तैयार किए गए लेह जिले के आपदा प्रबंधन प्लान में कहा गया कि जून-सितंबर के बीच बादल फटने जैसी घटनाओं की पुनरावृति हो सकती है, इसलिए आपदा प्रबंधन का इंतजाम करना बेहद जरूरी है। लाहौल के उदयपुर उपमंडल में 27 जुलाई 2021 को बादल फटने की घटना में सात लोगों की मौत हो गई। इस दिन यहां 20.8 एमएम बारिश रिकॉर्ड की गई थी। स्थानीय लोगों के मुताबिक, इससे पहले कभी इतनी बारिश नहीं हुई।
इन सब मुसीबतों के बीच स्थानीय लोग अभी भी इस शीत रेगिस्तान में बसे हुए हैं, परंतु जलवायु परिवर्तन की विभीषिका को कब तक झेल पाएंगे, यह वक्त बताएगा।