एक ताजा अध्ययन में पता चला है कि गंगोत्री का सहायक ग्लेशियर चतुरंगी तेजी से पिघल रहा है। गंगोत्री गंगा के जल का मुख्य स्रोत है, जिसके सहायक ग्लेशियरों के पिघलने का असर गंगा नदी के प्रवाह पर पड़ सकता है।
अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि करीब 27 वर्षों में चतुरंगी ग्लेशियर की सीमा करीब 1172 मीटर से अधिक सिकुड़ गई है। इस कारण चतुरंगी ग्लेशियर के कुल क्षेत्र में 0.626 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है और 0.139 घन किलोमीटर बर्फ कम हो गई है।
अल्मोड़ा के जी.बी. पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण एवं सतत विकास संस्थान और बेंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में वर्ष 1989 से 2016 तक के उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों और काइनेमैटिक जीपीएस (एक उपग्रह नेविगेशन तकनीक) का उपयोग किया गया है।
इस अध्ययन से जुड़े जी.बी. पंत राष्ट्रीय संस्थान के शोधकर्ता किरीट कुमार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “चतुरंगी ग्लेशियर वर्ष 1989 तक गंगोत्री ग्लेशियर का हिस्सा रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण यह ग्लेशियर प्रतिवर्ष 22.84 मीटर की दर से सिकुड़ रहा है और गंगोत्री ग्लेशियर से काफी पहले ही कट चुका है।”
इससे पहले के अध्ययनों में गंगोत्री ग्लेशियर के पिघलने के बारे में पता चला है, लेकिन उसके पिघलने की दर (12 मीटर/प्रति वर्ष) चतुरंगी ग्लेशियर से काफी कम है। छोटे आकार और जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होने के कारण चतुरंगी ग्लेशियर के सिकुड़ने की दर गंगोत्री ग्लेशियर की तुलना में अधिक है।
ग्लेशियरों के पिघलने की दर में बदलाव के लिए जलवायु परिवर्तन के अलावा, ग्लेशियर का आकार, प्रकार, स्थलाकृति और वहां मौजूद मलबे का आवरण मुख्य रूप से जिम्मेदार होता है।
गंगोत्री के सहायक ग्लेशियरों में चतुरंगी के अलावा रक्तवर्ण और कीर्ति जैसे ग्लेशियर शामिल हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि छोटे ग्लेशियरों की अपेक्षा हिमालय में बड़े ग्लेशियर अपेक्षाकृत धीमी गति से पीछे खिसक रहे हैं।
उत्तरकाशी जिले में स्थित चतुरंगी ग्लेशियर के कई सहायक ग्लेशियर हैं, जिनमें सीता, सुरालय और वासुकी शामिल हैं। करीब 21.1 किलोमीटर लंबा चतुरंगी ग्लेशियर 43.83 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है और इसकी सीमाएं समुद्र तल से 4,380 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, ग्लेशियरों के पिघलने से एक स्थान पर जमा होने वाले पानी से ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में झीलों का निर्माण हो सकता है। शोधकर्ता वर्तमान में उत्तराखंड के हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों से बनी झीलों से जुड़ी आपदाओं संबंधी खतरे का मूल्यांकन करने में जुटे हैं। उनका कहना यह भी है कि ग्लेशियरों के पिघलने की दर और उनमें बची हुई बर्फ की मात्रा का पता लगाने के लिए नियमित निगरानी जरूरी है।
इस अध्ययन के संदर्भ में नई दिल्ली स्थित टेरी स्कूल ऑफ एडवांस स्टडीज के शोधकर्ता प्रोफेसर चंदर कुमार सिंह ने बताया कि “जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से ग्लेशियरों के पिघलने के कारण निचले बहाव क्षेत्रों में बाढ़ की दर में वृद्धि हो सकती है। सिक्किम में किए गए अपने अध्ययन में हमने पाया है कि ग्लेशियरों के पिघलने से बनने वाली झीलों के आकार में पिछले 50 वर्षों में लगभग 50-80 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है। जलवायु परिवर्तन के मौजूदा परिदृश्य में देखें तो इन झीलों का विस्तार एक गंभीर स्थिति तक पहुंच सकता है, जिससे इन क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों के लिए एक खतरनाक स्थिति पैदा हो सकती है।”
आईआईटी-इंदौर से जुड़े एक अन्य वैज्ञानिक डॉ मनीष गोयल ने इस अध्ययन पर अपनी टिप्पणी करते हुए कहा है कि “भारतीय हिमालयी क्षेत्र में ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियरों की गतिशीलता को समझने के लिहाज से यह अध्ययन उपयोगी है। लेकिन, इसमें उपयोग किए गए हिमालय के ग्लेशियरों के बारे में उपग्रह से मिले आंकड़ों की भिन्नता और उनकी सीमाओं का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन किया जाना चाहिए, ताकि इसका सार्थक प्रभाव मिल सके।”
इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं में किरीट कुमार के अलावा हरीश बिष्ट, मीनू रानी, सौरभ साह और प्रकाश चंद्र आर्य शामिल थे। अध्ययन के नतीजे शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किए गए हैं। (इंडिया साइंस वायर)