एक और कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टी (कॉप 25) खत्म हो गया। इस बार इसका आयोजन मैड्रिड में हुआ। इस साल इस बात पर आम सहमति बनी कि जलवायु परिवर्तन सच है। आप ये सोच रहे होंगे कि अब जलवायु परिवर्तन को लेकर कोई टालमटोल नहीं होगा। मगर सच तो ये है कि मैड्रिड में गतिरोध पैदा करने का खेल खेला गया या यों कहें कि ऐसे रास्ते तैयार किए गए जिनमें जितना संभव हो उतना कम कार्रवाई और जितना संभव हो, उतने सस्ते में काम निबटाया जाए। मैंने जब ये लिखा, तो कॉप 25 चल ही रहा था।
इस कॉन्फ्रेंस में एक नई शब्दावली चर्चा में रही। प्रामाणिक बाजार तंत्र विकसित करना। कहा जा रहा है कि देशों को कार्बन-न्यूट्रल या नेट-जीरो बनाने के लिए इस तंत्र की जरूरत है। भारी-भरकम ये शब्द सुनने में अच्छे लगते हैं लेकिन जैसा सभी कहते हैं कि चाय की प्याली मुंह तक आते-आते कई बार छलक जाती है। जलवायु समझौतों में मैंने यह गौर किया है कि जिन तरकीबों की काफी प्रशंसा होती है, वे प्रायः पेचीदा समझौतों पर जाकर खत्म हो जाती हैं और इनसे बहुत लाभ नहीं मिलता। वैसे भी ये सब बहुत सामान्य बात होती है, इसका एहसास तब होता है जब शोरगुल थम जाता है और चीजें सामान्य हो जाती हैं। मिसाल के तौर पर वर्ष 2015 में पेरिस में हुए कॉप-21 को ही ले लीजिए।
उस वक्त कॉन्फ्रेंस में उल्लास का माहौल था। नई डील की गई। सभी देश कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को पूरा करने पर सहमत हुए। काफी विमर्श के बाद नेशनली डेटरमाइंड कंट्रीब्यूशंस (एनडीसी) नाम का लक्ष्य तैयार किया गया। इसमें तय हुआ कि एनडीसी का उद्देश्य वैश्विक तापमान में इजाफे को प्री-इंडस्ट्रियल स्तर पर 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना होगा।
पेरिस समझौते की “सफलता” अब खुल कर सामने आ रही है। यूएनईपी की “एमिशन गैप रिपोर्ट” 2019 के मुताबिक, अगर सभी देश एनडीसी में जो समझौता हुआ था, उसे अमल में ले आए, तो भी वर्ष 2100 तक वैश्विक तापमान में 3.2 डिग्री सेल्सियस तक का इजाफा होगा। इतना ही नहीं, जिन अमीर देशों ने कार्बन बजट का औना-पौना इस्तेमाल किया है, वे समझौते के मुताबिक काम नहीं कर रहे। जर्मनी के क्लाइमेट ट्रैकर के अनुसार, अमेरिका, रूस, सऊदी अरब की कार्रवाइयों से वैश्विक तापमान 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा। वहीं, चीन, जापान की कार्रवाइयों से वैश्विक तापमान 3-4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। इस मामले में यूरोपीय संघ की कार्रवाई भी पर्याप्त नहीं है। यूरोपीय संघ की कार्रवाई से वैश्विक तापमान में 2-3 डिग्री सेल्सियस तक का इजाफा हो सकता है। इसका अर्थ है कि अगर सभी देश ऐसी ही कार्रवाइयां करते रहे, तो इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में 2-4 डिग्री सेल्सियस तक का इजाफा होगा। अब हम जरा सच की तरफ मुखातिब हो लें। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने की दिशा में पर्याप्त काम नहीं हो रहा है और ऐसा तब है जब लाखों लोगों को बुनियादी ऊर्जा का अधिकार नहीं मिला है।
इस सच्चाई के बावजूद नेट-जीरो लक्ष्य सुनने में एक अच्छा आइडिया लगता है। नेटजीरो का मतलब है कि समझौते में शामिल देश कार्बन का उत्सर्जन निर्धारित लक्ष्य के नीचे रखेंगे। यानी कि ये देश ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन तो करेंगे, लेकिन वे इन्हें सोख लेने या इन्हें दफना देने की तरकीब ढूंढेंगे तथा अपनी बैलेंसशीट में वे ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन नेट-जीरो दिखाएंगे। अब सवाल उठता है कि कर्बन सोक-अप बरियल काम कैसे करता है? अव्वल ये कि कुल उत्सर्जन में से पेड़ों द्वारा कितने कार्बन डाई-ऑक्साइड को सोखा गया है, इसका हिसाब किया जाता है। इससे पता चलता है कि कितना कार्बन का उत्सर्जन हो रहा है और उसमें से कितना सोखा जा रहा है। फिर कुछ नई तकनीकें हैं (हालांकि ये अभी तक जमीन पर नहीं उतरी हैं) जो वायुमंडल से टनों कार्बन डाई-ऑक्साइड सोख कर उसे भूगर्भ में दफना देगी। इसका अर्थ है कि देश अब सिर्फ उत्सर्जन में कटौती करने पर नहीं बल्कि उत्सर्जन जारी रखते हुए उसकी सफाई करने की भी योजना बना सकते हैं। वे क्रेडिट भी खरीद सकते हैं और दूसरे देशों की कार्बन-मित्र परियोजनाओं में निवेश कर कार्बन उत्सर्जन में कटौती को अपनी बैलेंस शीट में शामिल कर सकते हैं।
लेकिन, यहीं से बाजार पर बहस गंभीर हो जाती है। सच तो ये भी है कि अफ्रीकी या एशियाई गांवों में पेड़ लगाना यूरोप और जापान की तुलना में सस्ता है। हमारी दुनिया में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए अब भी ऐसे बहुत सारे आसान और सस्ते विकल्प हैं। इसलिए ऐसा बाजार तैयार किया गया है कि कार्बन कैप्चर और क्रेडिट के लिए विकासशील देशों में निवेश (ये शब्द कितना प्यारा है!) किया जा सके। हम में से अधिकांश ने इस विवादास्पद जलवायु क्षेत्र में काम किया है और वहां के लिए ये परिचित शब्द हैं। वर्ष 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल में स्वच्छ विकास तंत्र की शुरुआत विकासशील दुनिया में प्रौद्योगिकी में बदलाव के लिए भुगतान करने के उच्च विचार के साथ हुई थी, लेकिन जल्द ही ये तंत्र बिगड़ गया और सस्ते तथा जटिल, यहां तक कि भ्रष्ट विकास तंत्र में बदल गया।
पेरिस के बाद इस बार न केवल औद्योगीकृत बल्कि सभी देशों को घरेलू कार्बन उत्सर्जन कम करना है। अतएव, मिसाल के तौर पर अगर भारत कार्बन उत्सर्जन कम करने के सस्ते विकल्पों को सस्ती कीमत पर अमीर देशों को बेच देता है, तो वह कार्बन उत्सर्जन में लक्षित कटौती कैसे करेगा। हमें याद करने की जरूरत है कि ये अमीर और गरीब के लिए संकट होगा, क्योंकि तापमान बढ़ने से उन पर ही असर पड़ेगा।
तो क्या करना चाहिए? असल में नेट-जीरो लक्ष्य निर्धारित करने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन, इसका उद्देश्य गृह मुल्कों में काम करने के लिए प्रेरित करना होना चाहिए न कि ग्लोबल ट्रेडिंग सिस्टम से खरीद करना। मगर, इसका मतलब होगा कार्बन ट्रेडिंग के लिए आधार मूल्य निर्धारित कर देना। अगर ऐसा होता है, तो उस आधार मूल्य (100-150 अमेरिकी डॉलर प्रति टन) से कम की परियोजना इसके योग्य नहीं होगी।
इसका मतलब यह हुआ कि विकासशील देशों में उन्हीं परियोजनाओं की फंडिंग की जाएगी, जो परिवर्ती (ट्रांजिशनल) की जगह रूपांतरकारी (ट्रांसफार्मेशनल) हो। भारत जैसे देश प्रदूषण रहित भविष्य की तरफ लंबी छलांग लगा सकते हैं। सबसे पहले हम प्रदूषण फैलाने से बच सकते हैं और फिर सफाई कर सकते हैं। हम ऐसा ही भविष्य चाहते हैं। लेकिन, इसके लिए सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करने की जगह जलवायु समझौते का पालन करना चाहिए।