मानव का विकास प्रकृति की गोद में हुआ है इसलिए मनुष्य शुरू से ही इसके दोहन करते रहे हैं। जब तक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम स्तर पर होता रहा है, तब तक प्रकृति में एक संतुलन बना रहा है क्योंकि उस कम स्तरीय दोहन से होने वाली क्षति-पूर्ति को प्रकृति खुद-ब-खुद ठीक करने की आमदा रखती है। समय के साथ मनुष्यों की संख्या में न सिर्फ बड़े स्तर पर विकास हुआ, बल्कि लोगों में स्वार्थ की भावना भी प्रबल हुई, जिसके फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अत्यधिक मात्रा में होने लगी और प्रकृति में असंतुलन पैदा होने लगा। आज से लगभग पाँच सौ साल पहले विज्ञान का विकास हुआ, जिसके कारण मशीनीकरण को बढ़ावा मिला और उत्पादकता में एक शानदार क्रांति देखने को मिला, फलस्वरूप पूंजीवाद का उदय हुआ। अशोक कुमार पांडे की किताब 'मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धान्त' के अनुसार " अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी यूरोप में नए वैज्ञानिक आविष्कारों और सामंतवाद से पूँजीवाद के संक्रमण की सदियाँ थीं। न केवल यान्त्रिकी के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग हो रहे थे बल्कि प्राकृतिक विज्ञानों में भी नित नए प्रयोग हो रहे थे। यह सब सामंतीवादी उत्पादन सम्बन्धों के पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों में बदलने की प्रक्रिया में अपनी भूमिकाएँ भी निभा रहे थे और उससे प्रभावित भी हो रहे थे।" ज़ाहिर है इसका असर पर्यावरण पर पड़ता।
समय के साथ हमने उपभोक्तावाद पर केन्द्रित सभ्यता निर्मित करते चले गए और ऐसी जीवन शैली अख़्तियार कर ली कि वह पर्यावरण का दुश्मन बन गई। 'इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज' की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते 50 सालों में हमने धरती का जितना शोषण किया है और जिस तरह की जीवन शैली अपनाई हैं, उसका ही असर है की धरती का तापमान बढ़ रहा है। जंगलों को जिस प्रकार से नष्ट किया जा रहा हैं और रासायनिक ऊर्जा का जिस तरह से इस्तेमाल हो रहा है, इसके कारण धरती पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इसके कारण हमें श्वास लेना मुश्किल हो रहा है। हमारी नदियाँ सुख रही हैं, पीने को पानी भी दूषित हो रही हैं। वर्षा का तंत्र विगड़ गया हैं, जिसके वजह से भूमिगत पानी दिन-ब-दिन कम होते जा रही है। धरती से जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की कई प्रजातियाँ या तो नष्ट हो गई या फिर ख़त्म होने के कगार पर है।
शोध रिपोर्टों के अनुसार इसका मुख्य कारण जलवायु में परिवर्तन होना है। जलवायु के इस परिवर्तन का असर कृषि पैदावार पर भी पड़ रहा है। जिसके कारण पिछले पाँच सालों में लाखों किसानों ने आत्महत्या किया। गेहूँ, धान, मक्का जैसी फसलें भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहे है। 'द वाइर' की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के कृषि मंत्रालय ने एक समिति को बताया कि "अगर समय रहते प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो 2050 तक गेहूं का उत्पादन छह से 23 प्रतिशत तक कम हो सकता है. वहीं 2020 तक जलवायु परिवर्तन की वजह से चावल का उत्पादन चार से छह प्रतिशत तक कम हो सकता है।" वास्तव में, ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण अंधाधुंध प्रकृति के शोषण से पैदा हुयी समस्याएँ हैं।
हाल के सदियों में मनुष्य को प्राकृतिक रूप से भयानक आपदा से सामने करने को विवश होना पड़ा है, जो पृथ्वी पर सभी जीवन के अस्तित्व को खतरे में डालती है। वैज्ञानिक जिसे 'पारिस्थितिकी संकट' का नाम देते है। इस संकट का कारण प्रकृति के मूल नियम के प्रति मनुष्य की अज्ञानता ही है। जिसे दूर करने के उद्देश्य से दुनियाभर के बुद्धजीवी, दार्शनिक, धार्मिक व्यक्ति आदि लोगों के बीच जाकर काम कर रहे हैं तथा उन्हें जागरूकता के माध्यम से पर्यावरण का दोहन करने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं। भारत में प्रकृति से प्रेम करने की विशेष परंपरा रही हैं। आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व पर्यावरण के प्रति बुद्ध का लगाव देखने से यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि वे मनुष्य के कृत को जानने में सक्षम थे इसलिए उन्होने न सिर्फ खुद प्रकृति से प्रेम किए, वरन् संघ के भिक्षुओं को विशेष निर्देश दिए कि उनके किसी भी कृत से पर्यावरण को नुकशान न पहुँचें क्योंकि जैसाकि कहा जाता है कि जिस व्यक्ति का जन्म जैसे वातावरण में होता हैं, वह जीवन भर उसी वातावरण को पसंद करता है। चाहे गौतम का जन्म हो या सिद्धार्थ से बुद्ध बनने की प्रक्रिया और उसके बाद का उपदेशक का जीवन हो या महापरिनिर्वाण की प्राप्ति, सभी प्रकृति के सौम्य घटा में घटित हुई है। यहीं कारण है कि बौद्ध धर्म के विकास में कृषि, वन, वृक्ष और पर्यावरण का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। बुद्ध के उपदेश में भी कृषि, वन और वृक्ष इत्यादि के उदाहरण भरे पड़े हैं। बौद्ध शिक्षण में पेड़-पौधे, मानव, पशु-पक्षियों और प्रकृति से एकदम निकट का रिश्ता स्थापित की गई है, जिसमे सदृश्य या अदृश्य सभी प्रकार के जीव-जंतुओं के कल्याण के लिए सिद्धान्त प्रतिपादित की गई हैं। बौद्ध साहित्य त्रिपिटक में भी पर्यावरण से संबन्धित बहुत उपदेश को दिया गया हैं। विनय पिटक, जिसे बौद्ध धर्म के 'आचार संहिता' कहा जाता है, में वातावरण को संतुलित बने रहने के उद्देश्य से पेड़ काटने से विरत् का उपदेश दिया गया। कोई भिक्षु अगर किसी तरह की पेड़ काटता है तो उसे पाराजिक नामक अपराध में रखा जाता है-
"महग्धरुक्खे छिन्नमत्ते पाराजिकं।"
विनय पिटक के ही छप्पनवें पाचित्तिय में कहा गया है कि जरूरत न पड़ने पर भी कोई निरोग भिक्खु तापने की इच्छा से आग जलाए तो उसे पाचित्तिय कहा गया है-
"यो पन भिक्खुअगिलानो विसीब्बनापेक्खो जोरति समादहेय्य ता समादहरपेय्य वा पाचित्तिय" ति।
इतना ही नहीं, बौद्ध परंपरा में बारिश के मौसम में तीन महीने वर्षावास का विधान है, जिसमें किसी भी भिक्षु को बाहर निकलने से मना किया गया है ताकि नए पौधों, हरे तृणों का मर्दन न हो तथा एक इंद्रिय वाले जीव, वनस्पति को पीड़ा न पहुँचे।
सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य में अनेकों स्थानों पर पर्यावरण की रक्षा हेतु तमाम तरह की उपदेश दिए गए हैं। जिसको आधार बना कर विश्व के अनेकों देशों ने पर्यावरण की रक्षा हेतु आंदोलन चलाएं, लोगों को जागरूक करने का काम आदि किया। ऐसे काम को अंजाम देने में कुछ महत्वपूर्ण नाम हैं, जिन्होंने बौद्ध शिक्षा के आधार पर पर्यावरण चिंतन की नीब रखी जो आगे चलकर एक आंदोलन का रूप लिया। वे हैं- जोआना माइकी, जॉन सीड, गैरी स्नाइडर और थीच न्हात हान ( सामान्यतः वे बौद्ध सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते है, किन्तु फिर भी इनकी शिक्षा में पर्यावरण संरक्षण की पर्याप्त स्रोत ढूँढे जा सकते है) आदि।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि 'गुह्य पारिस्थितिकी' (डीप एकोलोगी) में 'थीच न्हात हान' का सबसे महत्वपूर्ण योगदान 'ध्यान' (माइंडफुलनेस) प्रथाओं के शिक्षण में रहा है जो लोगों को अपने शरीर और प्राकृतिक दुनिया के संपर्क में लाने में मदद करता है। वे अपनी किताब 'द सन माइ हार्ट' में कहते है 'जब कोई ध्यान से जागरूकता की स्थिति में होते है तो उन्हें लगता है कि दुनिया मेरा शरीर है और दुनिया को गर्मी और सजीवता देने वाला सूरज मेरा दिल।' उनके अनुसार, कोई ध्यानपूर्वक नदी किनार चलता है; आसपास की हवाओं, सुगंध-दुर्गंध को महसूस करता, पानी को ध्यान से देखता है और फिर उसे पता चलता है कि पानी में कूड़ा-करकट, उसके ऊपरी सतह पर झाग जमा है तथा रासायनिक संबन्धित दुर्गंध आ रही है तो वह व्यक्ति इसे अपनी बीमारी के रूप में लेगा तथा इसे दूर करने की कोशिश करेगा बशर्ते कि वह व्यक्ति नदी से लगाव रखता हो। यह अभ्यास किसी भी व्यक्ति को प्राकृतिक दुनिया से संपर्क बढ़ाने में मददगार हो सकता है। गुह्य पारिस्थितिकी (डीप एकोलोगीस्ट) का तर्क है कि प्राकृतिक दुनिया जटिल अंतर-संबंधों का एक सूक्ष्म संतुलन है जिसमें जीवों का अस्तित्व पारिस्थितिक तंत्र के भीतर दूसरों के अस्तित्व पर निर्भर है। बौद्ध शिक्षण का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त 'प्रतित्यसमुत्पाद' है। इसे कार्य-कारणता का सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार विश्व की तमाम घटनाएँ या कार्य किसी कारण से होता है अर्थात सभी कार्य के पीछे अवश्य कोई कारण होता है। यह सिद्धान्त पर्यावरण संरक्षण में विशेष महत्व रखता है। उदाहरण के तौर पर, थीच न्हात हान ने एक कागज की एक शीट पकड़कर अपने छात्रों से पूछा कि क्या वे इसे बादल, सूरज और मिट्टी में देख सकते है? दूसरे शब्दों में, कागज पेड़ से आता है और पेड़ बादल से बारिश, सूरज से गर्मी और मिट्टी से खनिजों के बिना मौजूद नहीं हो सकता।
दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति है- जॉन सीड। इन्होंने वर्षा वन को संरक्षित करने के उद्देश्य से ऑस्ट्रेलिया में 'रैनफोरेस्ट इन्फॉर्मेशन सेंटर' की स्थापना की। साथ ही, वे अमेरिका में इसी कार्य के उद्देश्य से 'रैनफोरेस्ट एक्शन नेटवर्क' के संस्थापक सदस्य भी रहे है। उन्होंने ऐसी परियोजनाएं बनाई हैं, जो दक्षिण अमेरिका, एशिया और प्रशांत क्षेत्र में रहने वाले निवासियों के लिए स्थायी आय प्रदान करते हुए वर्षा वनों की रक्षा करती है। जैसाकि ब्राजील के नट जैसे पेड़ों की फसलों का उगना और विपणन (मार्केटिंग) करना, बजाय उसके जिनमें पेड़ों को काटा जाता है और लकड़ी बेची जाती है। इन्होंने दुनिया भर में पर्यावरण कार्यशालाओं में व्याख्यान तथा नेतृत्व करते रहे है औ वर्षा वन पर कई वीडियो तथा पर्यावरणीय गीतों को लेकर पाँच एल्बम को तैयार किए हैं।
यद्यपि अब वह ऐसा नहीं करता है, किन्तु लगभग सात वर्षों तक जॉन सीड ने बौद्ध ध्यान (मेडिटेसन) का गहन अभ्यास किया, जिसे उन्होने अपने जीवन की नींव माना। उनके अनुसार, बारिश के जंगलों को बचाने के लिए एक प्रदर्शन में भाग लेने दौरान उन्होने महसूस किया कि 'उनके अंदर जंगल है'। उनका यह महसूस करना उनके और दुनिया के बीच में गैर-अलगाव को दिखाता है। आगे वे कहते है कि यह अनुभव उनके जीवन का एक अलग पड़ाव था, जिसने उन्हें वर्षा वन को संरक्षित करने के लिए आंदोलन चलाने में प्रेरित किया। इसके बाद उन्होने ध्यान करना छोड़ दिया और कहा कि 'वर्षा वन ही उनका आध्यात्मिक अभ्यास है', जिसे उन्होने 'अनात्मवाद' का अनुभव कहा। अनात्मवाद बौद्ध धर्म के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को अपनाते हुये 'सीड' ने खुद को प्रकृति को समर्पित कर दिया।