जलवायु

ग्लोबल हंगर इंडेक्स: जलवायु परिवर्तन के कारण करोड़ों लोग रह जाते हैं भूखे, भारत पर भी असर

Lalit Maurya

इस साल के वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) से पता चला है कि जलवायु में आ रहे बदलावों के चलते दुनिया के सबसे कमजोर और गरीब देशों में खाद्य असुरक्षा का खतरा बढ़ता जा रहा है। जिसके कारण दुनिया में लोगों को पर्याप्त भोजन और पोषण नहीं मिल पा रहा है। दुनिया के 117 देशों के लिए जारी इस इंडेक्स में जहां अफ्रीकी देश सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक की स्थिति सबसे बदतर है। 

ग्लोबल हंगर इंडेक्स द्वारा जारी आंकड़ों से पता चला है कि दुनिया के 47 देशों में भुखमरी की स्थिति बहुत चिंताजनक है यहां स्थिति को "गंभीर" से "खतरनाक" के बीच में वर्गीकृत किया गया है, भारत भी जिसमें से एक है। वहीं सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक में स्थिति बेहद चिंताजनक है। दूसरी ओर कई देशों जैसे बुरुंडी, कोमोरोस, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, इरिट्रिया, लीबिया, पापुआ न्यू गिनी, सोमालिया, दक्षिण सूडान और सीरियाका डेटा नहीं मिल सका है। यहां भी स्थिति के चिंताजनक होने के आसार हैं। यदि महाद्वीपों की बात करे तो सबसे अधिक बुरी स्थिति अफ्रीका और एशिया में है। 

भारत की स्थिति भी नहीं है बहुत अच्छी 

भारत की स्थिति भी कोई बहुत ज्यादा अच्छी नहीं है । भले ही हम विकास के कितनी बड़ी बातें करते रहें पर सच यही है कि आज भी भारत में लाखों लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पा रहा है, वो आज भी दाने-दाने के लिए मोहताज हैं । देश में बढ़ते तापमान के चलते बाढ़ और सूखा जैसी घटनाओं का होना आम बात होता जा रहा है । इंडेक्स के अनुसार भारत आज 102 वें पायदान पर है, जो कि अपने पडोसी देश पाकिस्तान (94) से 8 पायदान नीचे है | जबकि हमारा दूसरा पडोसी मुल्क चीन 25 वे पायदान पर है, जिसकी स्थिति भारत के मुकाबले काफी अच्छी है | 2019 में भारत के लिए सबसे चिंताजनक स्थिति बच्चों की कमजोरी को लेकर जताई गई है। सूचकांक में कहा गया है कि भारत के बच्चों में कमजोरी की दर बड़ी तेजी से बढ़ रही है और यह सभी देशों से ऊपर है । ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार, भारत में 2010 के बाद से लगातार बच्चों में कमजोरी (वेस्टिंग) बढ़ रही है । 2010 में पांच सल तक के बच्चों में कमजोरी की दर 16.5 प्रतिशत थी, लेकिन अब 2019 में यह बढ़ कर 20.8 फीसदी हो गई है।

खाद्य असुरक्षा के लिए कैसे जिम्मेदार है जलवायु परिवर्तन?

हमारे द्वारा लगातार बढ़ते ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के चलते दुनिया में तापमान दिनों-दिन बढ़ते जा रहा है । जो न केवल हमारे जनजीवन पर प्रभाव डाल रहा है, बल्कि साथ ही कृषि और खाद्य उत्पादकता को भी प्रभावित कर रहा है। वैश्विक स्तर पर जिस तेजी से गर्मी बढ़ती जा रही है, वो निश्चित ही सबके लिए खतरे की घंटी है । गौरतलब है की 1998 को छोड़कर, दुनिया भर के 19 सबसे गर्म वर्षों में से अठारह 2001 के बाद ही रिकॉर्ड किये गए हैं। वहीं 2016 इतिहास में अब तक का सबसे गर्म वर्ष था, जब वार्षिक औसत तापमान सामान्य से 1.02 डिग्री सेल्सियस अधिक अंकित किया गया था। वही आईपीसीसी द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार तापमान के इस सदी के अंत तक 3 से 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाने के आसार है। जलवायु परिवर्तन ने केवल वैश्विक खाद्य प्रणाली को प्रभावित कर रहा है साथ ही उन लोगों के लिए खतरे को और बढ़ा रहा है जो पहले से ही भूख और कुपोषण का दंश झेल रहे हैं।

विश्लेषण से पता चला है कि देशों के ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) के स्कोर और उनके जलवायु परिवर्तन के खतरे के बीच एक गहरा सम्बन्ध देखने को मिला है । जो देश सबसे अधिक जलवायु परिवर्तन के खतरे की जद में आते है, उनका जीएचआई स्कोर भी अधिक पाया गया, जैसे की भारत, पाकिस्तान । क्योंकि इन देशों पर बाढ़, सूखा और अन्य आपदाओं का खतरा लगातार मंडराता रहता है, साथ ही यह अपनी आवश्यकताओं के लिए काफी हद तक कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है । विश्लेषण के अनुसार उच्च जीएचआई स्कोर वाले देश अक्सर जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, साथ ही उनमें अनुकूलन और इन खतरों से निपटने की क्षमता भी काफी कम है, जिससे नुकसान भी कई गुना अधिक होता है। वहीं, दूसरी और कम जीएचआई स्कोर वाले कई देशों पर जलवायु परिवर्तन का असर कम देखा गया, वहीं यह देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अधिक सजग और सक्रिय दिखे।  

जलवायु परिवर्तन न केवल कृषि उत्पादकता को कम कर रहा है यह भोजन की गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है। यह फसलों में विषाक्त पदार्थों के बढ़ने का कारण बन रहा है और खाद्य पदार्थों के पोषक तत्वों को नष्ट कर रहा है - उदाहरण के लिए यह फसलों में प्रोटीन, जिंक और आयरन की मात्रा को कम कर सकता है। अनुमान है कि 2050 तक 15 करोड़ लोगों में जिंक की कमी हो जाएगी, साथ ही 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी का अनुभव कर सकते हैं । 

आखिर क्या है इस समस्या का हल

मानवाधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र की पूर्व उच्चायुक्त और आयरलैंड की भूतपूर्व राष्ट्रपति मैरी रॉबिंसन ने इस रिपोर्ट में बहुत ही सटीक उपाय सुझाया है, उनके अनुसार "दुनिया भर में भुखमरी से ग्रस्त लोगों की संख्या 2015 में 78.5 करोड़ से बढ़कर 2018 में 82.2 करोड़ हो गई है, अब हम 2030 के एजेंडे और पेरिस जलवायु समझौते को स्वैच्छिक रूप से मानने और देशों को इसके लिए मनाने का और इंतजार नहीं कर सकते । अब देशों के पास और कोई विकल्प नहीं बचा है । यदि हम अपने बच्चों और नाती-पोतों के लिए एक हंसती खेलती जीवंत दुनिया को सुरक्षित रखना चाहते है तो हमें न केवल अपनी सोच बदलनी होगी, साथ ही राजनैतिक रूप से इसपर कोई ठोस फैसला लेना ही होगा।" श्रीमती रॉबिंसन के जलवायु परिवर्तन को रोकने के सुझावों के साथ-साथ हमें उन खाद्य प्रणालियों को भी बदलने की आवश्यकता है, जिन पर निम्न और मध्यम आय वाले लोग निर्भर हैं - और इसका मतलब है कि हमें उन छोटे और सीमान्त किसानो का समर्थन करना है जो पहले से ही पौष्टिक खाद्य पदार्थों का उत्पादन और विपणन कर रहे हैं। साथ ही जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हर देश को ठोस नीति बनाने की भी जरुरत है, जिससे आपदाओं से होने वाले नुक्सान को टाला जा सके।