भारत दुनिया भर में गेहूं का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत में 2000 के बाद से, गेहूं उत्पादन करने वाले क्षेत्र में 17 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जबकि गेहूं उत्पादन में 40 फीसदी की वृद्धि हुई है। यह आंशिक रूप से उत्तर-पश्चिम के पारंपरिक गेहूं का कटोरा कहे जाने वाले देश के केंद्रीय अर्ध-शुष्क भागों में बढ़ोतरी को दिखाता है। इसी अवधि में, अधिकांश समान रूप से अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में, ज्वार की खेती में उपयोग की जाने वाली भूमि में 21 फीसदी की गिरावट आई है।
इस अध्ययन में दो तरह की फसलों पर जलवायु में बदलाव से पड़ने वाले प्रभाव की तुलना की गई है।अध्ययन से पता चलता है कि दुनिया भर में बढ़ते तापमान के बीच इस तरह का रुझान ठीक नहीं है। अध्ययन में पाया गया कि बढ़ते तापमान के कारण भारत में 2040 तक गेहूं की पैदावार में पांच फीसदी और 2050 तक 10 फीसदी की कमी हो सकती है। शोधकर्ताओं ने पाया कि इसके विपरीत, बढ़ते तापमान का ज्वार की उत्पादकता पर ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा है।
अध्ययन में पाया गया कि 2030 तक गेहूं के लिए पानी की कुल जरूरत नौ फीसदी बढ़ सकती है, जबकि बढ़ते तापमान की स्थिति में ज्वार के लिए पानी की छह फीसदी की वृद्धि हो सकती है।
न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में पारिस्थितिकी और सतत विकास के शोधकर्ता और प्रमुख अध्ययनकर्ता प्रोफेसर रूथ डेफ़्रीज ने कहा, यदि सही से संतुलन बनाया जाए तो ज्वार, रबी की फसल में बढ़ोतरी करने के लिए गेहूं जलवायु के अनुकूल होने का विकल्प प्रदान करता है।
ज्वार,या बाजरे की शुष्क परिस्थितियों में उगने की क्षमता के कारण इन फसलों का ऊंट के रूप में जाना जाता है। इसमें गेहूं की तुलना में 1.4 गुना पानी की कम खपत होती है। दूसरी ओर, गेहूं की अधिक पैदावार का मतलब है प्रति बूंद अधिक फसल, प्रति टन गेहूं में उपयोग किया जाने वाला पानी या "जल पदचिह्न", ज्वार की तुलना में लगभग 15 फीसदी कम है। लेकिन भविष्य में इस तरह का फायदा भी खत्म हो सकता है। डेफ़्रीज ने पाया कि 2050 के आसपास गेहूं के "जल पदचिह्न" में 12 फीसदी की वृद्धि होगी, जबकि ज्वार के लिए चार फीसदी की वृद्धि होने के आसार हैं।
बढ़ते तापमान का गेहूं पर भारी असर पड़ता है, सबसे बड़ी बात यह है कि इसकी फसल गर्मियों के मौसम में तैयार होती है। इस प्रकार गेहूं की फसल लू या हीटवेव के संपर्क में अधिक आती है, इस तरह की घटनाओं के अधिक बार होने की आशंका जताई गई है।
पिछले फरवरी में, शुरुआती और रिकॉर्ड-तोड़ गर्मी ने गेहूं की फसल को झुलसा दिया था और यूक्रेन में युद्ध के कारण आपूर्ति में व्यवधान के कारण उस समय निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक है, डेफ़्रीज ने कि, इसी बात ने उन्हें यह अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया।
आंकड़ों के मुताबिक, भारत में कुल गेहूं उत्पादन में 1998 से 2002 और 2012 से 2017 के बीच 42 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, जो फसल क्षेत्र और उपज में वृद्धि की वजह से था। इस बीच, उपज में 37 फीसदी की वृद्धि होने के बावजूद, ज्वार के उत्पादन में पांच फीसदी की गिरावट आई। यह गिरावट फसल क्षेत्र में 21 फीसदी की कमी के कारण हुई।
क्षेत्र के रुझान अर्ध-शुष्क मध्य क्षेत्र में जारी थे, जहां ज्वार और गेहूं दोनों उगाए जाते हैं, लेकिन गेहूं का उत्पादन बढ़ रहा है। शोधकर्ताओं ने पाया कि 2000 के बाद से इन क्षेत्रों में दोनों अनाजों की पैदावार बढ़ी है, लेकिन गेहूं की पैदावार अधिक रही और ज्वार की तुलना में लगभग दोगुनी रही। डेफ़्रीज ने कहा, ज्वार की पैदावार कम होने का एक कारण यह है कि इस पर उतना शोध या ध्यान नहीं दिया गया है, जितना कि गेहूं की किस्मों में सुधार करने पर दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र ने 2023 को अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष घोषित किया है और सरकार ने इसके उत्पादन और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम शुरू किए हैं। डेफ़्रीज ने कहा कि ज्यादातर ध्यान रागी और बाजरा जैसे खरीफ या मॉनसूनी बाजरा पर रहा है।
अध्ययन के लिए, शोधकर्ताओं ने बढ़ते तापमान परिदृश्यों के तहत हर दिन बढ़ते तापमान और वर्षा के प्रति अनाज पर पडने वाले प्रभाव का अनुमान लगाने के लिए उपज मॉडल का उपयोग किया। अध्ययन के पूर्वानुमानों में बेहतर फसल प्रबंधन या नई अनुकूली तकनीकों जैसे कम करने वाले कारणों पर गौर नहीं किया गया है।
इस अध्ययन में भविष्य में बढ़ते तापमान के प्रति दोनों अनाजों की पैदावार पर पड़ने वाले असर और पानी की जरूरतों का आकलन करता है। यह अध्ययन नेचर साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुआ है।