जलवायु

जलवायु परिवर्तन और इंसानी गतिविधियों के चलते दुनिया भर में पैदा हो रही नई झीलें

Lalit Maurya

पिछले 35 वर्षों के दौरान वैश्विक स्तर पर झीलों के कुल क्षेत्रफल में 46,278 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। दुनिया भर की 34 लाख झीलों पर की गई रिसर्च में सामने आया है कि इसमें से 56 फीसदी वृद्धि प्राकृतिक झीलों में न होकर कृत्रिम जलाशयों के रूप में दर्ज की गई है।

कोपेनहेगन विश्वविद्यालय की सहायता से किए गए इस अध्ययन से पता चला है कि इस दौरान छोटी झीलों की संख्या में विशेष रूप से वृद्धि हुई है, जो दुर्भाग्य से बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों को उत्सर्जित करती हैं। हालांकि इसके बावजूद यह झीलें पर्यावरण के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। यह न केवल वैश्विक पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं, बल्कि इंसानों की भी जल संसाधन संबंधी जरूरतों को पूरा करती हैं।

इन झीलों से इतनी बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कैसे हो रहा है इस बारे में वैज्ञानिकों ने जानकारी दी है कि किसी झील के तल पर मृत पौधों और जीवों पर भोजन प्राप्त करने के लिए बैक्टीरिया और कवक पनपते हैं, जो बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, और नाइट्रस ऑक्साइड के साथ अन्य गैसों का उत्सर्जन करते हैं। इनमें से कुछ गैसें वायुमंडल में ही समाप्त हो जाती हैं। यानि कि यह तंत्र झीलों को ग्रीनहाउस गैसों के कारखाने के रूप में बदल देता है।

वास्तव में देखा जाए तो  मीठे पानी की झीलों से संभवतः जितनी ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित हो रही हैं, वो पृथ्वी के वायुमंडल में जीवाश्म ईंधन से पैदा हो रही कार्बन डाइऑक्साइड के करीब 20 फीसदी उत्सर्जन के बराबर है। अनुमान है कि आने वाले वक्त में जलवायु परिवर्तन के चलते यह झीलें ग्रीनहाउस गैसों के एक बड़े हिस्से का उत्सर्जन करेंगी।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता और उपग्रहों से प्राप्त हाई रिज़ॉल्यूशन इमेजरी का उपयोग करते हुए दुनिया भर में 34 लाख झीलों का पहले से कहीं अधिक सटीक और विस्तृत मैप भी तैयार किया है। जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित  इस रिसर्च के नतीजों में सामने आया है कि पिछले कुछ दशकों में इन झीलों के क्षेत्रफल में 46,278 वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ है, जोकि डेनमार्क के कुल क्षेत्रफल से थोड़ा ज्यादा है।  

झीलों से होते वार्षिक कार्बन उत्सर्जन में दर्ज की गई 4.8 टेराग्राम की वृद्धि

इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता जिंग तांग ने जानकारी दी है कि हाल के दशकों में वैश्विक स्तर पर झीलों में तेजी से व्यापक परिवर्तन हुए हैं, जो ग्रीनहाउस गैसों के होते उत्सर्जन के साथ-साथ, पारिस्थितिकी तंत्र और जल संसाधनों तक पहुंच को भी प्रभावित करते हैं। रिसर्च के मुताबिक इस अवधि के दौरान झीलों से हो रहे वार्षिक कार्बन उत्सर्जन में 4.8 टेराग्राम की वृद्धि हुई है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक 1984 के बाद से छोटी झीलों में अच्छी खासी वृद्धि हुई है, जिनका क्षेत्रफल एक वर्ग किलोमीटर से कम है। देखा जाए तो छोटी झीलों की संख्या विशेष रूप से मायने रखती है, क्योंकि वे अपने आकार की तुलना में कहीं ज्यादा उत्सर्जन करती हैं।

रिसर्च से पता चला है कि छोटी झीलें, धरती पर मौजूद कुल झीलों के क्षेत्रफल का केवल 15 फीसदी हिस्सा हैं, लेकिन वे इनसे होने वाले करीब 25 फीसदी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार हैं। इसी तरह मीथेन उत्सर्जन में इनकी हिस्सेदारी करीब 37 फीसदी है।

हाल ही में जर्नल ऑफ जियोफिजिकल रिसर्च: बायोजियोसाइंसेस में प्रकाशित एक अन्य रिसर्च से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर हर साल झीलों से करीब 4.2 करोड़ टन मीथेन उत्सर्जित हो रही है। जोकि जलवायु में आते बदलावों के लिए भी जिम्मेवार है। गौरतलब है कि वैश्विक तापमान में अब तक जितनी भी वृद्धि हुई है उसके करीब 25 फीसदी हिस्से के लिए मीथेन ही जिम्मेवार है।

बदलाव के लिए जलवायु परिवर्तन भी है जिम्मेवार

इतना ही नहीं 1984 से 2019 के बीच वैश्विक झीलों से होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में जो वृद्धि हुई है उसके 45 फीसदी हिस्से के लिए यह छोटी झीलें ही जिम्मेवार हैं। इसी तरह इस अवधि में झीलों से होने वाले मीथेन उत्सर्जन में इन छोटी झीलों की हिस्सेदारी 59 फीसदी है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक छोटी झीलें आमतौर पर अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थों को जमा करती हैं, इसलिए वो तुलनात्मक रूप से कहीं ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करती हैं। रिसर्च से पता चला है कि कुल झीलों में से 8 फीसदी और उनके क्षेत्रफल का करीब 23 फीसदी हिस्सा 60 डिग्री उत्तर में स्थित हैं।

इसी तरह ग्लेशियरों या पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से बनी झीलें दुनिया की कुल झीलों के क्षेत्रफल का 30 फीसदी हिस्सा बनाती हैं। इस प्रकार की झीलों के हॉटस्पॉट के रूप में ग्रीनलैंड, तिब्बती पठार और रॉकी पर्वत शामिल हैं।

इस अवधि के दौरान यह भी देखा गया कि छोटी झीलें जलवायु और मौसम में आते बदलावों के साथ इंसानी हस्तक्षेप के प्रति कहीं ज्यादा संवेदनशील हैं। नतीजतन, उनके आकार और वाटर केमिस्ट्री में काफी उतार-चढ़ाव होता है।

मैपिंग से यह भी पता चला है कि धरती पर नई झीलों को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन और इंसानी गतिविधियां हैं। झीलों के आकार में जो  वृद्धि हुई है उनमें से आधे से ज्यादा हिस्से में जलाशय यानी कृत्रिम झीलें हैं। वहीं अन्य आधी झीलें ग्लेशियरों या पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने के कारण बनी हैं।