अनिल राजगढ़
राजस्थान की सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक धरोहर खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) जलवायु परिवर्तन की विभीषिका का सामना कर रहा है। इस पेड़ के गुणों के कारण ही इसे मरू प्रदेश के कल्पवृक्ष की संज्ञा दी जाती है। यह सर्दियों का मरुस्थलीय पाला और गर्मियों के लू मिश्रित उच्च तापमान, दोनों ही परिस्थितियों में सामंजस्य बैठा लेता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी खुद को जीवित रख पाने की इसी अद्भुत विलक्षण क्षमता के चलते ही इसे 1983 में राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित किया गया।
खेजड़ी राजस्थान के अलावा महाराष्ट्र , गुजरात, पंजाब और कर्नाटक राज्य के शुष्क, अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पाया जाता है। पंजाब में इसे जंड, हरियाणा में जांड, दिल्ली के आसपास जांटी, सिंधी में कजड़ी, गुजरात में सुमरी, कर्नाटक में बनी और तमिलनाडु में बन्नी या वणि आदि नामों से पुकारा जाता है। भारत के अलावा यह प्रजाति अफगानिस्तान, अरब तथा अफगानिस्तान मे भी पाई जाती है। संयुक्त अरब अमीरात में इसे राष्ट्रीय पेड़ का दर्जा हासिल है जिसे घफ कहा जाता है। सूखे इलाकों में इसकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण मरुस्थलीकरण को रोकने का गुण है।
क्यों मंडराया संकट?
आज पूरी दुनिया बदलते पर्यावरण और परिवेश के संकट से जूझ रही है। खेजड़ी भी इससे अछूता नहीं रहा है। यह संकट दोहरे स्तर पर है। एक पेड़ के स्तर पर और दूसरा फली (सांगरी) के स्तर पर। किसानों का मानना है कि पहले खेजड़ी की संख्या काफी ज्यादा थी जिससे हल चलाना भी दूभर हो जाता था लेकिन पिछले 30-35 वर्षों के दौरान इनकी संख्या घटकर आधे से भी कम रह गई है। ये पेड़ लगातार सूखते जा रहे हैं। खेजड़ी पर आया संकट बहुआयामी है। कुछ कारण परंपरागत हैं तो कुछ हालिया जलवायु परिवर्तन के चलते भी उभरे हैं। सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर एरिड हॉर्टिकल्चर (आईसीएआर) बीकानेर के एक शोधपत्र के अनुसार, पेड़ के ह्रास का प्रत्यक्ष कारण है, जड़ छेदक कीट का प्रकोप एवं कवक (फफूंदी) का संक्रमण। सेलोस्टोर्ना स्काब्रेटोर (कोलियोप्टेरा सिरेम्बाइसिडी) एक जड़ छेदक कीट है जो खेजड़ी की कमजोर जड़ों की छाल के द्वारा अंदर प्रवेश कर जाता है और फिर जड़ों के भीतर आड़ी तिरछी सुरंगों का निर्माण करते हुए धीरे-धीरे मुख्य जड़ों को भी खोखला करने लगता है। इस पूरी प्रक्रिया में पेड़ का प्राकृतिक संवहन तंत्र क्षत- विक्षत हो जाता है जिससे आवश्यक पोषक तत्व के आवागमन में उपजा अवरोध अंतत: खेजड़ी को सूखने पर मजबूर कर देता है।
कवक या फफूंदी खेजड़ी के पेड़ के सूखने का दूसरा अहम कारण है। गाइनोडेर्मा, फ्यूजेरियम, रहिजक्टोनिया आदि इनकी मुख्य प्रजातियां है। ये भी खेजड़ी के जड़ भाग पर ही आक्रमण करती है। गाइनोडेर्मा कवक से पेड़ पर छतरीनुमा आकार के “भूफोड़ा” बन जाते हैं। इसको देशी भाषा में इसे “भंफोड़ा या विषखोपरा” भी कहा जाता है। शुरुआत में भले ही ये भूफोड़े मुलायम प्रतीत हों लेकिन जल्द ही ये कठोर एवं भूरे रंग में तब्दील हो जाते हैं। इनसे भी खेजड़ी का संवहन तंत्र बाधित होने से पहले पत्तियों का पीलापन और फिर पूरा पेड़ सूख जाता है। इनके अतिरिक्त खेजड़ी पर दीमक का आक्रमण बहुत ही परंपरागत, सामान्य एवं अन्य कारण हैं।
जलवायु परिवर्तन का खेजड़ी पर प्रभाव सबसे चिंताजनक है। नीति आयोग की एक हालिया रिपोर्ट में राजस्थान को रेखांकित करते हुए भूजल स्तर गिरने का कारण अत्यधिक जल निष्कर्षण को माना गया। बदलते पर्यावरण से तापमान की वृद्धि ने पहले से ही पानी की कमी से जूझते मरुस्थल में भूजल स्तर को संवेनदनशील स्तर तक गिरा दिया है। ऐसे में खेजड़ी को पर्याप्त पानी न मिल पाने के चलते इसकी जड़ों का तापक्रम तुलनात्मक रूप से बढ़ जाने से इसकी रोग प्रतिरोधकता लगातार घट रही है। इससे यह कीट, फफूंद के प्रति अधिक संवेदनशील हो गया है।
आजकल बुवाई से लेकर कटाई और अनाज निकालने तक हरेक काम में मशीनों का चलन तेजी से बढ़ा है। कृषि का मशीनीकरण एक अन्य कारक है जो इन पेड़ों को खासा प्रभावित कर रहा है। ट्रैक्टर आदि मशीनों से बुवाई आदि के दौरान खेजड़ी की प्राकृतिक व्यवस्था भंग हो जाती है। कभी जड़ें तो कभी तना भाग में कट- खरोंच आदि लगने से कीट, फफूंद आसानी से लग जाते हैं। ये तमाम कीट, कृमि थोड़ी बहुत मात्रा में पहले भी लगते रहे हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन ने इनकी सक्रियता एवं तीव्रता दोनों को बढ़ाने में उत्प्रेरक एवं सहायक की भूमिका निभाई है।
सांगरी के उत्पादन पर असर
खेजड़ी के देश-विदेश प्रचलित फल (सांगरी) का उत्पादन भी इस वर्ष अप्रत्याशित रूप से गिर गया है जो अधिक चिंता का विषय है। इस साल लगभग 5-10 प्रतिशत सांगरी ही लगी है और बाकी सब गिरडू में तब्दील हो गई है। ये एक प्रकार की गांठें होती है जिनका कोई उपयोग नहीं है। चुरु के मानपुरा के पूर्व सरपंच नारायण राम भंवरिया बताते हैं कि इस साल मौसम बड़ा ही खराब रहा है। अत्यधिक मात्रा में अंधड़ आने से खेजड़ी की मींझर (फूल भाग) झड़ गए, इसीलिए इसके फल में भारी कमी आई है। इसी गांव की जगवंती देवी अत्यधिक गर्मी और मौसम के अस्थायित्व को इसका जिम्मेवार ठहराती हैं। उनका कहना है कि सांगरी लगी तो थी लेकिन गर्मी के कारण जल्दी ही खोखा में तब्दील हो गई, अंधड़ आने से वे सब झड़ गए और आगे नए फल भी नहीं लग सके। जल ग्रहण विकास समिति के सचिव रामनिवास मानते हैं कि इस वर्ष आकाशीय बिजली के बहुत ज्यादा कड़कने से सांगरी के फल “बिजला” गए हैं जिससे सांगरी गिरडू में तब्दील हो गई।
जोधपुर स्थित शुष्क वन अनुसंधान संस्थान (आफरी) के वरिष्ठ वैज्ञानिक केके श्रीवास्तव के अनुसार, इस समस्या का कारण एक प्रकार के कीड़े हैं जो पत्तियों पर चिपके रहते हैं। जब गर्मियों में फूल व फल आते हैं तो ये अटैक करते हैं जिससे सांगरी कि जगह गांठें (गिरडू) निकल जाती हैं।
सांगरी, राजस्थान के ग्रामीण अंचल के लोगों के लिए विशेष आर्थिक महत्व रखता है। यह ग्रीष्म काल में ग्रामीण-किसानों (विशेषकर महिला एवं बच्चों) की आमदनी का अच्छा खासा स्रोत है। उत्पादन गिर जाने की वजह से सांगरी का बाजार भाव 1,000 से 1,200 रुपए प्रति किलो हो गया है। सांगरी में लगभग 8-15 प्रतिशत प्रोटीन, 40-50 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 8-15 प्रतिशत शुगर (शर्करा), 8-12 प्रतिशत फाइबर (रेशा), 2-3 प्रतिशत वसा (फैट), 0.4-0.5 प्रतिशत कैल्शियम, 0.2-0.3 प्रतिशत आयरन (लौह तत्व) तथा अन्य सूक्ष्म तत्व पाए जाते हैं जो स्वास्थ्यवर्धक और गुणकारी हैं। कुछ अध्ययनों से ये बात भी सामने आई है कि सांगरी की सब्जी खाने से तेज गर्मी के दौरान शरीर के तापमान को संतुलित बनाए रखने में काफी हद तक मदद मिलती है। यह व्यक्ति विशेष के दैनिक पानी उपभोग को कमतर करने में सहायता करता है। फल के अतिरिक्त इसकी पत्तियों का चारा (लूंग या लूम) पशुओं के लिए भी महत्वपूर्ण है। इसकी सूखी पत्तियां मृदा की उपजाऊ शक्ति को कई गुना बढ़ा देती है क्योंकि यह दलहन कुल का फलीदार वृक्ष है। इसकी जड़ों में राइजोबियम जीवाणु पाए जाते हैं जिससे यह प्राकृतिक रूप से नाइट्रोजन स्थिरीकरण का कार्य भी करता है। मरुस्थल का किसान पानी की कमी के चलते इन वृक्षों का विशेष संरक्षण चाहता है क्योंकि इस पेड़ के नीचे हर फसल की पैदावार अच्छी होती है। इसके तने एवं टहनियों से निकलने वाले हल्के पीले नारंगी रंग के गोंद का भी औषधीय एवं व्यापारिक महत्व है। सबसे बड़ी बात, खेजड़ी की जड़ों के फैलाव से भूमि का क्षरण नहीं होता। इसकी जड़ें रेत को मजबूती से थामे रखती हैं जिससे मरुस्थल के प्रसार पर अंकुश लगता है।
सांस्कृतिक महत्व
खेजड़ी के बहुपक्षीय महत्व के चलते 1730 में भाद्रपद सुदी दशमी के दिन मारवाड़ (जोधपुर) में इन पेड़ों को कटने से बचाने के लिए मारवाड़ क्षेत्र के खेजडली गांव में विश्नोई समाज के 363 लोगों (71 महिलाएं और 292 पुरुष) ने पेड़ों से लिपटकर जान दे दी थी। इनकी नेता अमृता देवी (इमरती बाई) थी जिनके बलिदान से हर कोई वाकिफ है। आज भी इस बलिदान की याद में प्रतिवर्ष इस गांव में खेजडली का मेला आयोजित किया जाता है। इसी घटना के आधार पर 1970 के दशक में उत्तराखंड के में चिपको आंदोलन शुरू हुआ। राजस्थान का विश्नोई समाज आज भी इस मान्यता में बहुत मजबूती से विश्वास रखता है, “सिर साटे रुख रहे तो सस्तो जाण” अर्थात सिर कटाकर भी अगर पेड़ को बचाया जा सके तो यह कोई नुकसान का सौदा नहीं है।
एक तथ्य यह भी है कि 1899 में भयंकर अकाल पड़ा था जिसे “छपनिया अकाल” कहा जाता है। इस दौरान मरुस्थल के लोगों ने खेजड़ी की छाल को पीसकर उसकी रोटी खाकर अपने आपको जिंदा रखा था। आज भी सांगरी के सूखे भाग (खोखा) को बाजरे के साथ पीसकर रोटी बनाई जाती है तथा इसकी छाल को कूटकर अनेक रोगों की दवा बनाई जाती है।
राजस्थान के लोक देवता पीर जाहर वीर गोगाजी (सर्पों के देवता) खेजड़ी से मुख्यत सम्बद्ध है। खेत-घर की एक खेजड़ी “गोगा जांटी” के नाम से अलग पूजनीय रखी जाती है। गोगाजी के जन्म स्थान ददरेवा धाम (चुरु) के गोरख टीला मंदिर के मुख्य प्रांगण मे भी खेजड़ी के बहुत पुराने वृक्ष देखे जा सकते हैं जो नारियल तथा कलावा धागों से बंधे रहते हैं। जब शादी के तमाम मुहूर्त खत्म हो जाते हैं, तो यहां के लोग गोगा जांटी के नाम से शादी ब्याह के मुहूर्त निकालकर शादी करते हैं जिसे गोगा जांटी का “अबूझ मुहूर्त” कहा जाता है। इतना ही नहीं बल्कि आज भी तमाम शादी-ब्याह, तीज- त्योहार में खेजड़ी को तुलसी की तरह ही पवित्र एवं शुभ माना जाता है।
समस्या का समाधान
खेजड़ी की उपेक्षा इसके पतन का सबसे बड़ा कारण है। दरअसल, राजस्थान में खेजड़ी बहुतायत में पाया जाता है और इसकी कोई खास सार संभाल करनी नहीं पड़ती। ये ऐसे ही उग आता है और तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में खड़ा रहता है। यही कारण है कि सरकार इसके संरक्षण को लेकर कोई खास योजनाएं नहीं बनाती। लेकिन अब यह उपेक्षा खेजड़ी का अस्तित्व खत्म कर सकती है। खेजड़ी की समस्या के दो पहलू हैं। एक सांगरी की ज्वलंत समस्या से जुड़ा और दूसरा पूरे पेड़ के संपूर्ण संरक्षण से। आफरी के वरिष्ठ वैज्ञानिक केके श्रीवास्तव की मानें तो खेजड़ी की छंगाई करते वक्त एक माह के अंतराल में मोनाक्रोटोफॉस (10 लीटर पानी में 15 एमएल ) का छिड़काव कर दिया जाए तो अगले साल सांगरी वाली बीमारी नहीं लगेगी। लेकिन मौजूदा साल गांठें बनी ही रहेंगी और इससे जुड़े तमाम अन्य संकट भी। अतः हालिया समस्या से निपटने के लिए तुरंत प्रभाव से सरकार द्वारा किसानों को संबधित दवाई का वितरण सस्ती दरों पर पीडीएस या अन्य उचित माध्यम से करवाया जाना चाहिए तथा इसको उपयोग करने की उचित विधि का प्रचार भी अपेक्षित है।
सम्पूर्ण पेड़ के संरक्षण के लिए राजस्थान के नीति निर्माताओं, शासन-प्रशासन का ध्यान जरूरी है। एक तरफ तो नीति निर्माण में इस वृक्ष को शामिल किया जाना जरूरी है ताकि कुछ विशेष संरक्षण योजनाएं बनाई जा सके। कलिकायन विधि से पौधशालाओं एवं नर्सरी आदि में इसकी पौध उत्पादन को बढ़ावा देकर इसके व्यापारिक उत्पादन प्रबंधन को नया आयाम दिया जा सकता है। केंद्रीय शुष्क बागवानी विकास संस्थान, बीकानेर द्वारा विकसित खेजड़ी की एक नई उच्च गुणवत्ता वाली हाइब्रिड नस्ल “थार शोभा” को नीतिगत समर्थन दिया जाना चाहिए जो जल्दी विकसित हो जाता है और अत्यधिक गर्मी एवं सूखे की स्थिति भी सहन कर सकती है। दूसरी तरफ जागरुकता प्रसार कार्यक्रमों की दरकार है जिससे आमजन, स्कूली बच्चों, युवा, किसानों और विशेषकर महिला समुदाय के मध्य खेजड़ी के बहुआयामी महत्व, पर्यावरणीय उपयोगी पक्ष आदि का प्रचार किया जाना चाहिए। इसके अलावा स्कूली पाठ्यक्रम में खेजड़ी को किताबों के अंदर जगह दी जाए। स्कूल-कॉलेजों के प्रांगण में खेजड़ी के वृक्ष लगाए जाने चाहिए ताकि पर्यावरण वाली कक्षा के दौरान इसकी उपयोगिता एवं समस्या दोनों से बच्चों को प्रत्यक्ष रूबरू कराया जाए। इन सभी प्रयासों से मौजूदा समस्या से निपटने में भले की तत्कालिक मदद न मिले लेकिन भविष्य में इसका संवर्द्धन जरूर हो सकेगा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज के छात्र हैं और चुरु में रहते हैं)