अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने जलवायु परिवर्तन पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया
इसमें सरकारों को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए कानूनी रूप से जिम्मेदार ठहराया गया
यह निर्णय जलवायु न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है
इससे वैश्विक वार्ताओं को नई ऊर्जा देगा और सरकारों को उनके दायित्वों से मुंह मोड़ने से रोकेगा
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले का असर भारत पर भी दिखाई देगा
यह एक ऐसी न्यायिक सलाह है जिसमें आरोपी के दोष साबित होने की साफ झलक मिलती है। 23 जुलाई, 2025 को संयुक्त राष्ट्र के मुख्य न्यायिक अंग अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) ने एक “सलाहकारी राय” जारी की, जिसमें कहा गया कि जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाली सरकारी कार्रवाइयां गैरकानूनी हैं और देशों को उनके उत्सर्जन के लिए कानूनी रूप से जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने कहा, “जलवायु परिवर्तन से संबंधित संधियां राज्यों पर बाध्यकारी दायित्व तय करती हैं ताकि जलवायु प्रणाली और पर्यावरण के अन्य हिस्सों को मानवजनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से बचाया जा सके क्योंकि जलवायु परिवर्तन जीवन के सभी रूपों को खतरे में डालता है।” अदालत के 15 न्यायाधीशों में से एक डायर त्लादी ने कहा कि यह मामला आईसीजे के सामने लाए गए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है। त्लादी ने कहा, “यह एक अस्तित्वगत संकट है जो मानवता के भविष्य को खतरे में डाल सकता है।”
जलवायु परिवर्तन पर आईसीजे का यह पहला निर्णय एक क्लास की चर्चा से शुरू हुआ था। यह चर्चा 27 कानून के छात्रों के बीच हुई थी जो वानुअतु की राजधानी पोर्ट विला में स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ द साउथ पैसिफिक के कैंपस में पढ़ते थे। वानुअतु दुनिया के सबसे जलवायु संवेदनशील देशों में से एक है। 2019 में इन छात्रों ने “पैसिफिक आइलैंड स्टूडेंट्स फाइटिंग क्लाइमेट चेंज” नामक समूह के रूप में एक अभियान शुरू किया, जिसे उन्होंने “#क्लाइमेट आईसीजे एडवाइजरी ओपिनियिन” नाम दिया। इस अभियान का उद्देश्य जलवायु न्याय हासिल करना था क्योंकि “बहुत लंबे समय से जलवायु संकट के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार लोग अपने दायित्वों की अनदेखी कर रहे हैं।”
जलवायु न्याय की मांग करने वाले इस समूह ने प्रशांत देशों के साथ मिलकर लॉबिंग की। आखिर में वानुअतु के जलवायु परिवर्तन मंत्री राल्फ रेगेनवानु ने देश के समर्थन की घोषणा की। वानुअतु ने दुनिया भर के युवा समूहों के साथ मिलकर अभियान चलाया। 2023 में यह एक अहम मुकाम पर पहुंचा। कुल 123 देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्ताव का समर्थन करने पर सहमति दी, जिसमें कहा गया था कि “राज्यों के जलवायु परिवर्तन से संबंधित दायित्वों पर आईसीजे की सलाहकारी राय मांगी जाए।” उसी वर्ष, 12 अप्रैल को संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव ने आईसीजे से दो सवालों पर सलाहकारी राय मांगी। इसमें पूछा गया था कि अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए राज्यों के क्या दायित्व हैं और अगर वे ऐसा करने में विफल रहते हैं तो इसके कानूनी परिणाम क्या होंगे? लगभग 80 साल के इतिहास में यह केवल पांचवां मौका है जब विश्व न्यायालय ने ऐसी सलाहकारी राय दी है।
अभियान चलाने वाले छात्रों में से एक विशाल प्रसाद कहते हैं, “दुनिया के सबसे छोटे देशों ने इतिहास रच दिया है। आईसीजे का निर्णय हमें उस दुनिया के करीब ले जाता है जहां सरकारें अब अपने कानूनी दायित्वों से मुंह नहीं मोड़ सकतीं।”
आईसीजे की सलाहकारी राय के मुताबिक, “ऐसे उपाय अपनाना दरअसल देशों के दायित्वों में शामिल है जिनसे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन में योगदान मिल सके।” इसमें यह भी याद दिलाया गया है कि “संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के परिशिष्ट-1 में सूचीबद्ध राज्य (36 देश, ज्यादातर विकसित) अतिरिक्त दायित्व रखते हैं कि वे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को सीमित करके और कार्बन सिंक और भंडार को बढ़ाकर जलवायु परिवर्तन से निपटने में नेतृत्व करें।”
आदेश का दूसरा हिस्सा खास मायने रखता है क्योंकि इसने विकसित देशों की ऐतिहासिक जिम्मेदारी के मुद्दे को फिर से सामने ला दिया है, जिसे 2025 में सभी देशों द्वारा पेरिस समझौते को मंजूरी देने के बाद लगभग पीछे कर दिया गया था। पेरिस समझौते ने परिशिष्ट-1 देशों की जिम्मेदारी को कमजोर कर दिया था। आदेश में कहा गया है कि यूएनएफसीसीसी के सदस्य देशों का “एक-दूसरे के साथ सहयोग करने का दायित्व है ताकि कन्वेंशन के मूल उद्देश्य को हासिल किया जा सके।” यह भाषा अमेरिका पर दबाव बढ़ा सकती है, भले ही ऐतिहासिक रूप से सबसे बड़ा उत्सर्जक देश डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद पेरिस समझौते से बाहर हो गया था लेकिन उसने यूएनएफसीसीसी से खुद को अलग नहीं किया है।
आईसीजे का निर्णय स्पष्ट करता है कि ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का दायित्व कई जलवायु संधियों, अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून और प्रथागत अंतरराष्ट्रीय कानून में निहित है। इसके अलावा, यह ओजोन परत की सुरक्षा के लिए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन और उन देशों में मरुस्थलीकरण और गंभीर सूखे से निपटने के लिए खासकर अफ्रीका में संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन से भी जुड़ा है। आदेश में व्याख्या की गई है, “राज्यों का दायित्व है कि वे अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत जलवायु प्रणाली और पर्यावरण के अन्य हिस्सों की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाकर मानवाधिकारों का सम्मान करें और उनके प्रभावी उपभोग को सुनिश्चित करें।” संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा उठाए गए अधिक विवादास्पद सवाल समझौते का उल्लंघन करने के कानूनी निहितार्थ का जवाब देते हुए विश्व न्यायालय ने निर्णय दिया कि “किसी राज्य द्वारा किसी भी दायित्व का उल्लंघन… उस राज्य की जिम्मेदारी वाला एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गलत कार्य है।” आदेश के अनुसार “अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गलत कार्य करने के परिणामस्वरूप उत्पन्न कानूनी परिणामों में यह दायित्व शामिल हो सकता है। इसके तहत (क) जारी गलत कार्रवाइयों या चूकों को रोकना, (ख) परिस्थितियों के अनुसार गलत कार्रवाइयों या चूकों की पुनरावृत्ति न होने की गारंटी व आश्वासन देना और (ग) प्रभावित राज्यों को पूर्ण प्रतिपूर्ति करना, जो पुनर्स्थापन, मुआवजे और संतोष के रूप में हो सकती है, बशर्ते कि राज्य की जिम्मेदारी के कानून की सामान्य शर्तें पूरी हों, जिनमें यह साबित करना शामिल है कि गलत कार्य और क्षति के बीच पर्याप्त प्रत्यक्ष और निश्चित कारण संबंध मौजूद है।”
यह अंतिम हिस्सा सीधे तौर पर संयुक्त राष्ट्र की वार्ताओं में शामिल “हानि और क्षति” (लॉस एंड डैमेज) घटक से जुड़ता है, जिसे हाल के वर्षों में औपचारिक रूप दिया गया है, लेकिन जमीनी स्तर पर अब तक मुश्किल से लागू है। केन्या, घाना, मेडागास्कर, दक्षिण अफ्रीका, कैमरून, सिएरा लियोन, मॉरीशस, बुर्किना फासो और मिस्र ने जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान पर अपने पक्ष रखे। आईसीजे ने यह तर्क स्वीकार किया कि विकासशील देशों ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अनुपातहीन रूप से सामना किया है, जबकि उनका ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में योगदान न्यूनतम रहा है।
जलवायु विशेषज्ञों को उम्मीद है कि यह फैसला इस साल नवंबर में ब्राजील के बेलेम में होने वाले यूएनएफसीसीसी के 30वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी30) में अहम भूमिका निभाएगा। यह वैश्विक जलवायु वार्ताओं को भी नई ऊर्जा दे सकता है। हाल ही में संपन्न बॉन वार्ताएं काफी फीकी रहीं, जिसका कारण ट्रंप का जलवायु-विरोधी रुख और दुनिया भर में चल रहे युद्ध बताए जाते हैं। दिल्ली स्थित जलवायु कार्यकर्ता हरजीत सिंह कहते हैं, “यह एक गेम चेंजर है, जो सीओपी30 की चर्चाओं को बुनियादी तौर पर बदल देगा।”
हैदराबाद स्थित इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के जलवायु वैज्ञानिक और अंतर-सरकारी पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के लेखक अंजल प्रकाश कहते हैं, “राज्यों के पास जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन को कम करने के स्पष्ट कानूनी दायित्व हैं। इसकी पुष्टि करने से यह फैसला जलवायु कार्रवाई की नैतिक और कानूनी नींव को मजबूत करता है।” वे जोड़ते हैं, “जैसे-जैसे हम सीओपी30 की ओर बढ़ रहे हैं, यह निर्णय नई तत्परता और स्पष्टता लाता है। सरकारें अब अस्पष्टता के पीछे नहीं छिप सकतीं।”
प्रकाश के अनुसार, “आईसीजे का यह फैसला भारत के लिए महत्वपूर्ण है। एक प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्था और शीर्ष उत्सर्जकों में से एक होने के नाते, भारत पर अब अंतरराष्ट्रीय कानूनी और नैतिक दबाव बढ़ेगा कि वह जीवाश्म ईंधन चरणबद्ध तरीके से जल्दी खत्म करे।” सिंह का कहना है कि यह सलाहकारी राय भविष्य की वार्ताओं में भारत को असहज स्थिति में डाल सकती है। वह कहते हैं, “ध्यान से देखें तो पाएंगे कि “समान लेकिन भिन्न दायित्व और क्षमताएं” वाला यूएनएफसीसीसी का मूल सिद्धांत जस का तस है, अदालत ने इस सिद्धांत में यह जोड़ दिया है कि किसी राज्य का विकसित या विकासशील होना स्थायी स्थिति नहीं है।” नतीजतन, भारत की विकासशील देश की स्थिति जांच के घेरे में आ सकती है। भारत के लिए इसका मतलब है कोयले पर निर्भरता, उत्सर्जन लक्ष्यों और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी पर स्पष्ट जवाबदेही। प्रकाश के अनुसार, यह भविष्य में मुकदमों और जलवायु से जुड़ी व्यापार वार्ताओं को प्रभावित कर सकता है। दिलचस्प बात यह है कि भारत, जिसने आईसीजे की सलाहकारी राय पर न तो लिखित और न ही मौखिक प्रस्तुतियों में कोई ठोस रुख अपनाया, उसने विकसित देशों से यह आग्रह जरूर किया कि “वे अपनी जलवायु वित्त प्रतिबद्धताओं को पूरा करें और विकासशील देशों को जलवायु कार्रवाई करने में सहयोग दें।”
आईसीजे के आदेश के बाद दुनिया भर में जलवायु मुकदमों के बढ़ने की उम्मीद है। आदेश पारित करते समय न्यायाधीश इवसावा यूजी ने कहा, “अदालत यह राय इस आशा के साथ प्रस्तुत करती है कि इसके निष्कर्ष कानून को सामाजिक और राजनीतिक कार्रवाई को दिशा देने में सक्षम बनाएंगे ताकि मौजूदा जलवायु संकट का समाधान किया जा सके।” स्विट्जरलैंड सरकार के खिलाफ जलवायु मुकदमे में 2,500 से अधिक महिलाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली स्विस वकील कॉर्डेलिया बहर कहती हैं, “आईसीजे का आदेश दुनिया भर में सरकारों और कंपनियों के खिलाफ चल रहे जलवायु मुकदमों को मजबूत करेगा।” इस मामले में यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय ने भी जलवायु संरक्षण को एक मानव अधिकार के रूप में मान्यता दी और कहा कि “स्विट्जरलैंड ने जलवायु संरक्षण के अधिकार का उल्लंघन किया है।” जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन तेज हो रहा है, न्यायपालिका जवाबदेही तय करने और जलवायु नीतियां गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। न्यूयॉर्क स्थित सबिन सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज लॉ के विश्लेषण के अनुसार, जलवायु से जुड़े मुकदमों की संख्या 2005-2014 और 2015-2024 के बीच 3.2 गुना बढ़ी है। कुल मामलों की संख्या इस दशक (2015-24) में 640 से बढ़कर 2,068 हो गई, जो विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार, सबसे गर्म दशक रहा है। 2025 में अब तक 102 जलवायु मुकदमे दर्ज किए जा चुके हैं।
2015 के बाद से राष्ट्रीय अदालतें लगातार जलवायु से जुड़े मामलों पर सुनवाई कर रही हैं। हालांकि, इस वर्ष आईसीजे की भागीदारी जलवायु जवाबदेही की दिशा में एक महत्वपूर्ण बदलाव है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरणों की भूमिका और अहम हो गई है। अधिकांश मामले अमेरिका से आते हैं, लेकिन अब कानूनी चुनौतियां दुनिया भर में उभर रही हैं, खासकर विकासशील देशों और छोटे द्वीपीय देशों में, जो जलवायु प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। अफ्रीका में जलवायु मुकदमों में तेज वृद्धि हुई है। महाद्वीप के 23 दस्तावेजी मुकदमों में से 14 साल 2021 से 2025 के बीच दायर किए गए, जो अब तक की सबसे सक्रिय कानूनी प्रतिक्रिया रही है। डाउन टू अर्थ के विश्लेषण के अनुसार, इस पांच साल की अवधि में अफ्रीका में 22.1 करोड़ लोग बाढ़, सूखा और हीटवेव जैसी चरम मौसम घटनाओं से प्रभावित हुए। आंकड़े दिखाते हैं कि अदालतों के जरिए जलवायु निष्क्रियता को चुनौती देने की तैयारी बढ़ रही है। यह मुकदमे अलग-अलग स्तर की अदालतों और संस्थाओं में दायर किए गए थे ,जैसे अंतरराष्ट्रीय, क्षेत्रीय और देश की अदालतें, कुछ ऐसे संस्थान जो पूरी तरह अदालत नहीं होते लेकिन फैसले देते हैं और संयुक्त राष्ट्र की खास प्रक्रियाएं और ट्रिब्यूनल भी इनमें शामिल हैं। इन अदालतों में लगातार अपर्याप्त जलवायु नीतियों, भ्रामक कॉर्पोरेट दावों और पर्यावरणीय उल्लंघनों को चुनौती दी गई है। यह प्रवृत्ति दिखाती है कि मुकदमे जलवायु कार्रवाई और न्याय सुनिश्चित करने का अहम साधन बन रहे हैं। जलवायु मुकदमों को ट्रैक करने वाले दो वैश्विक डेटाबेस, जिनमें क्लाइमेट चेंज लॉज ऑफ द वर्ल्ड और क्लाइमेट केस चार्ट शामिल हैं। उन्होंने अब तक 15 भारतीय मामलों को जलवायु-संबंधी श्रेणी में रखा है (देखें, भारत में जलवायु मुकदमे, पेज 44)। 2011 से पहले के कुछ मामले जलवायु मुकदमों से काफी मेल खाते हैं और अक्सर 2011 के बाद के मामलों में कानूनी मिसाल के रूप में पेश किए जाते हैं। ऐसा ही एक मामला था “एम.के. रंजीतसिंह बनाम भारत संघ” का, जो 2022 में सर्वोच्च न्यायालय में दायर किया गया। इस याचिका में खासकर ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और लेसर फ्लोरिकन जैसी प्रजातियों की रक्षा के लिए भारत के संवैधानिक प्रावधानों, कानूनी ढांचों और अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के बीच संतुलन बनाने की मांग की थी ताकि जलवायु परिवर्तन को कम किया जा सके। अदालत ने 2024 में अपना फैसला सुनाया और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और जीवाश्म ईंधनों से दूर जाने के साथ-साथ प्रजातियों के संरक्षण के बीच संतुलन पर जोर दिया। इस मामले में 1995 के फैसले “वीरेंद्र गौर बनाम हरियाणा राज्य” का हवाला दिया गया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है।
दिल्ली स्थित वकील संजीव आइलावाडी कहते हैं कि जलवायु-संबंधी मामलों की सुनवाई, चाहे निचली अदालतों में हो या सुप्रीम कोर्ट में हो, वह कई चुनौतियों से भरी होती है। भारत में पर्यावरण मामलों का भारी लंबित बोझ है, जिनमें से कई प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जलवायु से जुड़े हैं। जलवायु मुकदमों में एक बड़ी समस्या प्रतिवादी की पहचान और यह तय करना है कि जलवायु मामला किसे कहते हैं। आइलावाडी बताते हैं, “अदालतें अक्सर मामलों को जलवायु मुकदमे के नजरिए से नहीं देखतीं।” हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय पारिख कहते हैं, “कोई भी मामला जो एहतियाती सिद्धांत (नुकसान होने से पहले रोकथाम), प्रदूषक भुगतान सिद्धांत या अंतरपीढ़ी समानता (भविष्य की पीढ़ियों के अधिकारों की सुरक्षा) का हवाला देता है, मूल रूप से जलवायु मामला है।” समस्या सिर्फ क्रियान्वयन की है। चाहे वन संरक्षण हो या वैज्ञानिक कचरा निपटान, ये सभी जलवायु मुकदमों के दायरे में आते हैं और इन्हें इसी रूप में मान्यता मिलनी चाहिए। परिख अपनी बात इस वाक्य से खत्म करते हैं कि “जलवायु पर्यावरण का ही अभिन्न हिस्सा है।”