एक बार फिर केदारनाथ जैसी त्रासदी ने दस्तक दी है। उत्तरकाशी के धराली में हुई हाल की घटना ने 2013 की याद ताजा कर देती है। दोनों ही त्रासदी का कारण उच्च हिमालय पर बनी हिमनदीय (ग्लेशियल) झील है, जो किसी अज्ञात कारण, संभवतः बारिश या ढांचे के टूटने के कारण फट गई और नीचे के इलाकों में भारी तबाही मचा गई।
कई लोगों की मौत हो चुकी है और कई अभी भी लापता हैं। खोज और बचाव अभियान जारी है। 50 से अधिक होटल, होमस्टे और कई आवासीय इमारतें बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। अब सबसे अहम सवाल यह है कि यह सिलसिला आखिर क्यों नहीं रुकता?
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, क्षेत्र में ऐसा कोई अत्यधिक बारिश या बादल फटने की घटना नहीं हुई जो अचानक आई बाढ़ (फ्लैश फ्लड) का कारण बन सकती थी। इसका अर्थ है कि कारण कुछ और था। संभवत: पिघलती हिमनदियों से बनी एक झील फट गई और उसने इस आपदा को जन्म दिया। नतीजे हमारे सामने हैं। एक बार फिर और इन्हें हमें गंभीरता से लेना होगा, क्योंकि बार-बार दी गई चेतावनियों को नजरअंदाज किया गया है।
बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह मुद्दा ग्लोबल वॉर्मिंग (जलवायु का गर्म होना) और जलवायु परिवर्तन से जुड़ा है। यह केवल पहाड़ों में स्थानीय विकास का मामला नहीं है। इसकी जड़ें वैश्विक गतिविधियों जैसे शहरी विस्तार, ऊर्जा की बढ़ती खपत और कार्बन उत्सर्जन में निरंतर वृद्धि से जुड़ी हैं। इन सबने धरती के तापमान में वृद्धि की है, जिसके चलते पूरे हिमालय में तेजी से हिमनद पिघल रहे हैं।
इस बढ़ते तापमान का एक चिंताजनक असर अस्थिर हिमनदीय झीलों का बनना है। दुर्भाग्य से, हमारे पास अब तक इस बात का सटीक आंकड़ा नहीं है कि कितनी हिमनदियां झीलों में बदल चुकी हैं और ये झीलें कहां स्थित हैं। इस जानकारी की कमी पूरे समुदायों को खतरे में डालती है। ऊंचे इलाकों की पारिस्थितिकी का तात्कालिक अध्ययन जरूरी है, ताकि आगे ऐसी आपदाओं को रोका जा सके।
महासागर से होने वाले वाष्पीकरण की नमी हवाओं के साथ निचले से ऊंचे इलाकों की ओर बढ़ती है। जैसे-जैसे यह वाष्प ऊपर जाती है और ठंडे वातावरण से टकराती है, यह वर्षा के रूप में बदल जाती है। कुछ घाटी संरचनाओं में यह अत्यधिक वर्षा या यहां तक कि बादल फटने की स्थिति पैदा कर देती है। लेकिन धाराली के मामले में ऐसा कोई वर्षा-क्रम नहीं हुआ। समस्या एक मौजूदा हिमनदीय झील में थी, जो संभवत: आंतरिक दबाव या हल्की मौसमी गड़बड़ी के कारण फट गई।
ऊंचाई पर जो कुछ हुआ, वह नीचे की घाटियों में न तो दिखाई दिया और न ही तुरंत महसूस हुआ। लेकिन यह साफ है कि पिघलती हिमनदियों से बनी ऐसी झीलें अब ‘टिक-टिक करते टाइम बम’ बन चुकी हैं। ऐसे में हमें जल्द से जल्द कार्रवाई करनी होगी, इससे पहले कि और जिंदगियां चली जाएं।
हमें एक व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है, जिसमें उन सभी हिमनदियों की पहचान की जाए जो झीलों में बदल चुकी हैं। विशेषकर वहां, जहां इनके नीचे बस्तियां बसी हैं। हर हिमनदीय झील का आकार, पानी की मात्रा और उसकी असुरक्षा की स्थिति का आकलन जरूरी है।
साथ ही इन झीलों से निकलने वाले पानी के प्रवाह मार्गों का भी अध्ययन करना होगा। इनमें से कई धाराएं अंततः बड़े नदी तंत्र में मिल जाती हैं। इन जलधाराओं के आसपास स्थित बस्तियों का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन किया जाना चाहिए, और जरूरत पड़ने पर उन्हें सुरक्षित क्षेत्रों में स्थानांतरित किया जाना चाहिए।
यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इन क्षेत्रों को कभी सुरक्षित माना जाता था और पीढ़ियों से यहां लोग बिना किसी खतरे के रहते आए हैं। लेकिन जलवायु बदल चुकी है और यही वजह है कि हमें अपने दृष्टिकोण को भी बदलना होगा।
जिन इलाकों में खतरनाक हिमनदीय झीलों या जलधाराओं के बेहद नजदीक बस्तियां बसी हैं, वहां समुदायों को सुरक्षित स्थानों पर जाने का विकल्प और आवश्यक सहायता दी जानी चाहिए। आपदा तैयारी में ऐसे संभावित झील-फटने के परिदृश्यों को शामिल करना अनिवार्य है। बस्तियों की योजना या पुनर्विन्यास इस तरह होना चाहिए कि वे संभावित हिमनदियों के बाढ़ के मार्ग से दूर रहें।
यह समय यह स्वीकार करने का है कि हिमालय वैश्विक जलवायु परिवर्तन का पहले शिकार होगा। जो कभी स्थायी और स्थिर माना जाता था, जैसे हिमनद, घाटियां, नदी मार्ग अब तेजी से अस्थिर होते जा रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि ऐसी चेतावनियों को अक्सर तब तक अनदेखा किया जाता है, जब तक आपदा सामने न आ जाए।
केदारनाथ एक चेतावनी थी। सिक्किम एक और उदाहरण है। हिमाचल प्रदेश पहले ही इसका खामियाजा भुगत चुका है और अब धाराली उत्तराखंड में दूसरा दर्दनाक स्मरण बनकर सामने आया है। यह सिर्फ एक राज्य या एक क्षेत्र का मुद्दा नहीं है। यह एक हिमालयी संकट है, जिसे तत्काल राष्ट्रीय स्तर पर गंभीरता से लेने की जरूरत है।
प्रधानमंत्री कार्यालय और अन्य केंद्रीय एजेंसियों को इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए। हिमालयी पट्टी में हिमनदीय झीलों की निगरानी, जोखिम का आकलन और जलवायु संवेदी (क्लाइमेट रेजिलिएंट) बस्तियों के बारे में योजना बनाने के लिए एक राष्ट्रीय स्तर की रणनीति की आवश्यकता है।
हम अब उन वैश्विक कारकों को नियंत्रित नहीं कर सकते, जिन्होंने इस संकट को जन्म दिया है, लेकिन हम यह जरूर तय कर सकते हैं कि उनके साथ किस तरह जीना है। हमारी शहरी योजना, अवसंरचना डिजाइन और बसावट की नीतियां जलवायु परिवर्तन की नई वास्तविकताओं को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए।
हिमालयी राज्यों को सिर्फ आपदा राहत ही नहीं, बल्कि दीर्घकालिक वैज्ञानिक अध्ययन, आंकड़ों का संकलन, रियल-टाइम मॉनिटरिंग सिस्टम और सामुदायिक तैयारी में भी सहयोग की आवश्यकता है। ऐसे हस्तक्षेप के बिना ये त्रासदियां बार-बार दोहराई जाती रहेंगी।
आइए, अगली आपदा का इंतजार न करें। अब समय है कि हम जीवन, आजीविका और हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी की रक्षा के लिए तत्काल और जिम्मेदारी के साथ कदम उठाएं।
अनिल पी. जोशी, हिमालयन एनवायरनमेंटल स्टडीज एंड कंज़र्वेशन ऑर्गनाइजेशन (हैस्को) के संस्थापक हैं। उन्होंने हिमालयी क्षेत्र में सतत विकास को बढ़ावा देने में 40 से अधिक वर्ष लगाए हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं