वैश्विक सतही तापमान में हर एक डिग्री सेल्सियस की औसत वृद्धि प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 120 कैलोरी या वर्तमान दैनिक खपत का 4.4 प्रतिशत घटा सकती है और उत्तर भारत के गेहूं उगाने वाले क्षेत्र विश्व स्तर पर सबसे अधिक नुकसान झेलने वाले क्षेत्रों में से एक होंगे।
यह बात 18 जून, 2025 को नेचर जर्नल में इंपैक्टस ऑफ क्लाइमेट चेंज ऑन ग्लोबल एग्रीकल्चर एकाउंटिंग फॉर एडॉप्टेशन नाम से प्रकाशित शोध अध्ययन में कही गई है। यह क्लाइमेट इंपैक्ट लैब नामक एक शोध समूह की परियोजना थी।
शोध के मुताबिक यह और भी चिंताजनक है क्योंकि वैश्विक खाद्य प्रणाली में यह व्यवधान किसानों द्वारा अपनी कृषि पद्धतियों में किए गए जलवायु अनुकूलन के बावजूद होगा। अध्ययन का अनुमान है कि अगर उत्सर्जन बढ़ता रहा तो ये समायोजन सदी के अंत तक जलवायु से संबंधित कुल नुकसान का सिर्फ एक-तिहाई हिस्सा ही पूरा कर पाएंगे।
चावल, गेहूं, मक्का, सोयाबीन, ज्वार और कसावा जैसी छह मुख्य फसलों की खाद्य उत्पादन क्षमता के संदर्भ में विश्लेषण में पाया गया कि 2100 तक सबसे समृद्ध क्षेत्रों में औसतन 41 प्रतिशत और सबसे खस्ताहाल क्षेत्रों में 28 प्रतिशत उपज में गिरावट हो सकती है।
अध्ययन में कहा गया, “सबसे तीव्र नुकसान कृषि अर्थव्यवस्था के दोनों छोर पर होते हैं, मसलन आधुनिक अन्न भंडारों में जहां अब विश्व की सबसे अनुकूल खेती की स्थितियां हैं और आत्मनिर्भर कृषि समुदायों में जो कसावा की छोटी फसल पर निर्भर हैं।”
इस विश्लेषण के लिए, 16 वैज्ञानिकों की एक टीम ने ‘उच्च उत्सर्जन’ और ‘मध्यम उत्सर्जन’ दोनों परिदृश्यों में इन छह मुख्य फसलों की उपज पर जलवायु प्रभावों का सदी के अंत तक अनुमान लगाया। ये फसलें वैश्विक कैलोरी उत्पादन का दो-तिहाई हिस्सा दर्शाती हैं। यह अनुमान 54 देशों के 24,378 प्रशासनिक क्षेत्रों के विविध स्थानीय जलवायु और सामाजिक-आर्थिक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए लगाया गया।
चावल को छोड़कर सभी फसलों के लिए अध्ययन ने अनुमान लगाया कि तापवृद्धि 2050 तक वैश्विक उपज को घटाएगी, जिसमें संभावना 70 प्रतिशत (ज्वार के मामले में) से 90 प्रतिशत (गेहूं के मामले में) तक है, अगर उच्च उत्सर्जन परिदृश्य जारी रहा।
चावल के लिए, विश्लेषण ने संकेत दिया कि जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, वैश्विक चावल उपज बढ़ने की 50 प्रतिशत संभावना है, क्योंकि चावल के पौधे उच्च न्यूनतम तापमान सहन कर सकते हैं।
इसके विपरीत, जैसे-जैसे अधिकतम और न्यूनतम तापमान बढ़ेगा, गेहूं की फसल को सबसे अधिक नुकसान होगा। उच्च उत्सर्जन परिदृश्य में, वैज्ञानिकों ने उत्तर और मध्य भारत में 40 से 100 प्रतिशत, चीन, रूस, अमेरिका और कनाडा में 30 से 40 प्रतिशत और पूर्वी यूरोप, पश्चिमी यूरोप, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में 15 से 25 प्रतिशत उपज हानि का अनुमान लगाया।
मॉडलिंग में पाया गया कि जलवायु अनुकूलन और विकास ने जलवायु परिवर्तन के कारण औसत गेहूं नुकसान को और बढ़ा दिया, “क्योंकि देखा गया कि जैसे-जैसे प्रति व्यक्ति जीडीपी बढ़ती है, गेहूं उत्पादक अधिक मौसम-संबंधित जोखिम उठाते हैं।”
अनुकूलन की सीमाओं के अध्ययन ने अनुमान लगाया कि विकास और अनुकूलन समायोजन ने उच्च उत्सर्जन परिदृश्य में 2050 में वैश्विक कैलोरी प्रभाव को लगभग 23 प्रतिशत और सदी के अंत तक 34 प्रतिशत तक कम कर दिया, और मध्यम उत्सर्जन परिदृश्य में क्रमशः 6 और 12 प्रतिशत तक कम किया।
यह सापेक्ष प्रभाव सबसे अधिक चावल के लिए था (उच्च उत्सर्जन में 79 प्रतिशत और मध्यम उत्सर्जन में 86 प्रतिशत) और सबसे कम गेहूं के लिए। अनुकूलन से कुछ सबसे बड़े क्षेत्रीय लाभ दक्षिण अमेरिका में मुख्यतः मक्का और सोयाबीन के अनुकूलन लाभ से मिले।
वैज्ञानिकों ने पाया कि जिन क्षेत्रों में औसत तापमान मध्यम था, वहां उपज में सबसे अधिक गिरावट आई, क्योंकि गर्म स्थान पहले से ही गर्मी के लिए अधिक अनुकूलित थे। इसलिए आगे की गर्मी का प्रभाव कम था, जबकि ठंडे स्थानों को गर्मी से लाभ हुआ।
प्रक्षेपण से पता चला कि वैश्विक उपज में बदलाव ने दुनिया की जनसंख्या को असमान रूप से प्रभावित किया है। कुल कैलोरी उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सामान्यतः आज के समृद्ध क्षेत्रों और सबसे कम आय वाले दसवें हिस्से पर अधिक पड़ा, क्योंकि वे कसावा पर निर्भर हैं।
अध्ययन में विश्लेषकों ने लिखा है, “यह परिणाम इसलिए है क्योंकि कम आय वाली आबादी आमतौर पर गर्म जलवायु में रहती है, जहां वर्तमान में अनुकूलन दर अधिक है, और उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, जहां अधिक औसत वर्षा तापवृद्धि के प्रभाव को कम करती है। इसका वैश्विक नुकसान के लिए महत्वपूर्ण प्रभाव है, क्योंकि उच्च आय वाले क्षेत्र दुनिया के कई अन्न भंडारों को शामिल करते हैं। चूंकि आधुनिक कृषि अधिकतर इन्हीं क्षेत्रों में केंद्रित है, इसलिए इन क्षेत्रों में उपज हानि का वैश्विक कैलोरी उत्पादन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।”