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बंजर होता भारत -3: आठ साल में खेती लायक नहीं रही 5200 हेक्टेयर जमीन

धरती के बंजरपन को रोकने के लिए 196 देशों के प्रतिनिधि विचार विमर्श कर रहे हैं। भारत में बंजरपन की स्थिति क्या है, डाउन टू अर्थ की महाराष्ट्र के जिले धुले से ग्रांउड रिपोर्ट-

Arnab Pratim Dutta

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अहमदाबाद स्थित अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (एसएसी) द्वारा प्रकाशित मरुस्थलीकरण एवं भू-क्षरण एटलस के मुताबिक, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का करीब 30 फीसदी हिस्से (लगभग 96.40 मिलियन हेक्टेयर जमीन ) की उर्वरता खत्म हो रही है। इस पर विचार विमर्श करने के लिए संयुक्त राष्ट्र का कन्वेंशन टु कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) का सीओपी-14 (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) 2 से 13 सितंबर के बीच भारत में हो रहा है। भारत की वस्तुस्थिति के आकलन के लिए डाउन टू अर्थ ने उन क्षेत्रों की पड़ताल की है, जहां हालात बदतर होते जा रहे हैं। झारखंड में सबसे अधिक हालात खराब हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र के धुले जिले में भी 50 फीसदी अधिक जमीन बंजरपन की चपेट में आ रही है। प्रस्तुत है, धुले जिले की ग्राउंड रिपोर्ट-

महाराष्ट्र के धुले में पशुओं की बढ़ी संख्या का नतीजा जंगलों की बर्बादी के तौर पर सामने आया और इससे वहां भू-क्षरण बढ़ा है। इस जिले में 64.2 फीसदी जमीन निम्नीकरण की चपेट में है और 5,200 हेक्टेयर भूमि महज 8 वर्षों में निम्नीकृत हो गई। धुले कृषि विज्ञान केंद्र के कृषि वैज्ञानिक एमएस महाजन बताते हैं कि जिले का एक बड़ा हिस्सा डेक्कन ट्रैप के नाम से चर्चित क्षेत्र में आता है, जहां लाखों वर्षों पहले ज्वालामुखी विस्फोट के बाद बनीं बेसाल्ट चट्टाने हैं। यहां मिट्टी की ऊपरी परत बहुत उथली (लगभग 23 सेमी) है। मिट्टी की हल्की भेद्यता और अत्यधिक कम बारिश की वजह से यहां साल में वर्षा आधारित सिर्फ एक फसल और छोटी वनस्पतियां उगा पाना ही संभव हैं।

महाराष्ट्र वन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, धुले के 7,195 वर्ग किमी के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 28 प्रतिशत भाग वन विभाग के अधीन है। लेकिन, 2017 में फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित नवीनतम “स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट” के मुताबिक, केवल 308 वर्ग किमी या 4.2 प्रतिशत क्षेत्र में ही वन आच्छादित हैं। सतपुड़ा रेंज में आने वाले जिले के उत्तरी इलाकों में भी मध्यम स्तर का जंगल सिर्फ 69 वर्ग किमी तक सीमित है। अतिरिक्त 108 वर्ग किमी क्षेत्र झाड़ भूमि (स्क्रबलैंड) है।

जंगलों के इन छोटे-छोटे टुकड़ों पर जबरदस्त दबाव है। नाम न बताने की शर्त पर एक वन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, “इस इलाके में भैंसों की संख्या करीब 15 गुना बढ़ गई है। 2003 में इनकी संख्या 6,000 थी, जो 2011 में एक लाख पार कर गई।” हर साल गर्मियों में इन जंगलों में आग लगा दी जाती है, ताकि बरसात शुरू होने के बाद जमीन घास से भर जाए।

सतपुड़ा के उत्तरी ढलान पर जंगलों में सागौन और ऐसे ही दूसरे व्यावसायिक महत्व वाले पेड़ हैं। वन विभाग हर साल इन पेड़ों को काटने के लिए परमिट देता है। ऐसे ही परमिट के जरिए 2005 से 2014 के बीच एक लाख से अधिक पेड़ काट दिए गए। वहीं, 0.26 मिलियन पेड़ अवैध रूप से काटे गए। वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, “2008 से 2010 के बीच का समय इस लिहाज से सबसे बुरा था। इस दौरान कानूनी तरीके से कहीं ज्यादा पेड़ अवैध तरीके से काटे गए।”

धुले में यह एक बड़ी समस्या रही कि अजैविक और जैविक दोनों तरह के दबावों के चलते नए जंगल पनप नहीं सके। जंगल की आग ने मौजूदा पेड़ों की सेहत बिगाड़ दी और नए बीजों को अंकुरित होने से रोक दिया। महाराष्ट्र रिमोट सेंसिंग एप्लीकेशन सेंटर, नागपुर के एसोसिएट साइंटिस्ट प्रशांत राजेनकर कहते हैं, “बारिश के साथ अब हालात बहुत खराब होने वाले हैं। मरुस्थलीकरण एटलस तैयार करने के लिए प्रशांत ने ही धुले की सैटेलाइट मैपिंग और जमीनी सत्यापन किया था। वह बताते हैं, “क्षेत्र के अधिकतर हिस्से में बारिश की वजह से मिट्टी की ऊपरी परत का कटाव हो रहा है। इसका मतलब यह है कि धीरे-धीरे यहां की मिट्टी की ऊपरी परत खत्म हो रही है।”एटलस के अनुसार जिले में 34.95 फीसदी भूमि निम्नीकरण के लिए वनस्पति क्षरण जिम्मेदार है, इसके बाद 23.75 फीसदी निम्नीकरण जल क्षरण की वजह से होता है।

धुले के कुछ हिस्सों में भू-क्षरण की दर बहुत ज्यादा है। नागपुर स्थित राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो ने भू-क्षरण को लेकर एक सैटेलाइट मैप आधारित ऐप भूमि विकसित किया है। इस ऐप के मुताबिक सतपुड़ा पर्वत शृंखला के आसपास को छोड़कर जिले के अधिकतर हिस्सों में मध्यम से अत्यधिक गंभीर स्तर का भू-क्षरण हो रहा है। सकरी ब्लॉक में भू-क्षरण की स्थिति तीव्र से लेकर अत्यधिक तीव्र के मध्य पाई गई है। यहां प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर 20 टन से 80 टन तक मिट्टी की ऊपरी परत का क्षरण हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार 2.9 टन प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर के वैश्विक औसत की तुलना में यह काफी ज्यादा है।

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