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जलवायु

कर्ज और जलवायु का रिश्ता: विकासशील देशों पर क्यों बढ़ रहा है कर्ज?

पक्षपाती सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग और ऊंची ब्याज दरें हैं बड़ी वजह

Sehr Raheja, Upamanyu Das

जैसे ही स्पेन के शहर सेविल में चौथा इंटरनेशनल कांफ्रेंस ऑन फाइनेंसिंग फॉर डेवलपमेंट (एफएफडी4) शुरू हुआ, हमें पता चल रहा है कि कैसे विकासशील देश भारी कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। यह कर्ज उन्हें आगे बढ़ने से रोक रहा है। दुनिया की मौजूदा खराब वित्तीय व्यवस्था भी उनके लिए पैसा जुटाना मुश्किल बना देती है। ऐसे में इन देशों की सरकारों के पास दो ही रास्ते बचते हैं। या तो वे पुराना कर्ज चुकाएं, या अपने लोगों की बुनियादी जरूरतों पर खर्च करें।

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2010 से अब तक विकासशील देशों पर सार्वजनिक (सॉवरेन) ऋण विकसित देशों की तुलना में दो गुना तेजी से बढ़ा है। और वैश्विक ऋण में इसका हिस्सेदारी 2010 के 16 प्रतिशत से बढ़कर 2023 में 30 प्रतिशत हो गई है।

लेकिन सवाल उठता है कि आखिर विकासशील देश तेजी से कर्ज के बोझ तले क्यों दबते जा रहे हैं? इस सवाल का जवाब अक्सर 1970 के दशक में तेल की कीमतों में आई भारी वृद्धि से जोड़ा जाता है। तेल आयात करने वाले विकासशील देशों के लिए यह स्थिति एक बड़े वित्तीय संकट जैसी बन गई थी। उस दौर में अरब देशों की तेल से हुई कमाई (पेट्रोडॉलर) पश्चिमी देशों के बैंकों में जमा हो गई। यही ‘पेट्रोडॉलर’ बाद में विकासशील देशों को दिए गए कर्ज का प्रमुख स्रोत बने।

यह व्यवस्था पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी फायदेमंद थी। जब तेल से कमाया गया पैसा विकासशील देशों को कर्ज के रूप में वापस दिया गया, तो वे देश तेल के बढ़े हुए बिल के बावजूद पश्चिमी देशों से सामान खरीदते रहे। इससे यूरोप और उत्तर अमेरिका की फैक्ट्रियां चालू रहीं और वहां मंदी आने से टल गई।

1970 के दशक के दौरान पश्चिमी देशों के निजी वाणिज्यिक बैंकों ने धीरे-धीरे सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के ऋणदाताओं को पीछे छोड़ना शुरू कर दिया। 1982 में जब ये बैंक अपने चरम पर थे, तब वे विकासशील देशों को हर साल 63 अरब डॉलर का कर्ज दे रहे थे, जो कि सरकारी स्रोतों से दिए जा रहे ऋण की लगभग दोगुनी राशि थी। इस दौर में कई विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएं तेजी से बढ़ रही थीं।

लेकिन 1980 का दशक औद्योगिक देशों में आई आर्थिक मंदी के लिए जाना गया। उत्पादन और व्यापार की गतिविधियां धीमी हो गईं, और बैंकों के कर्ज पर ब्याज दरें तेजी से बढ़ गईं। ऐसे में जिन विकासशील देशों के पास पहले से लिए गए कर्ज चुकाने के लिए संसाधन नहीं थे, वे सिर्फ ब्याज चुकाने के लिए ही नया कर्ज लेने पर मजबूर हो गए।

इस कर्ज के दुष्चक्र का एक बड़ा उदाहरण है- ब्राजील। वर्ष 1972 से 1988 के बीच ब्राजील ने 124 अरब डॉलर के मूल कर्ज पर 176 अरब डॉलर केवल ब्याज के रूप में चुका दिए और यह राशि विकसित देशों को दी गई थी।

आइए अब सीधा 2020 के दशक में लौटते हैं। पिछले 40 सालों में हालात ज्यादा नहीं बदले हैं।

उधारी की ऊंची लागत

विश्व बैंक की इंटरनेशनल डेट रिपोर्ट (दिसंबर 2024) के अनुसार, विकासशील देशों ने 2023 में अपनी बाहरी (विदेशी) ऋण की सेवा यानी कर्ज पर ब्याज और किस्त चुकाने के लिए रिकॉर्ड 1.4 ट्रिलियन डॉलर खर्च किए। यह खर्च इसलिए भी बढ़ा क्योंकि उस साल ब्याज दरें 20 वर्षों के उच्चतम स्तर पर थीं।

संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (यूएनसीटीएडी) की रिपोर्ट "ए वर्ल्ड ऑफ डेट " में बताया गया कि “वर्तमान में आधे से अधिक विकासशील देश अपने कुल सरकारी राजस्व का कम से कम 8 प्रतिशत केवल ब्याज भुगतान पर खर्च कर रहे हैं, जो कि पिछले दशक में दोगुना हो चुका है। ब्याज चुकाने का यह बढ़ता दबाव लगभग सभी क्षेत्रों में महसूस किया जा रहा है, लेकिन अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों में स्थिति विशेष रूप से गंभीर है।”

साल 2023 में 54 विकासशील देशों (जो कुल का 38 प्रतिशत हैं) ने सरकारी राजस्व का 10 प्रतिशत या उससे अधिक हिस्सा ब्याज भुगतान में खर्च किया, जो एक रिकॉर्ड है।

इन देशों में से लगभग आधे अफ्रीका में हैं। विकासशील देशों में ब्याज भुगतान न केवल तेजी से बढ़ रहा है, बल्कि यह जनहित से जुड़े आवश्यक सरकारी खर्च की वृद्धि को भी पीछे छोड़ रहा है।

2023 में दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की रिपोर्ट "बियॉन्ड क्लाइमेट फाइनेंस" में यह बताया गया कि कई निम्न-और-मध्यम-आय वाले देश (एलएमआईसी) कर्ज चुकाने में जितना खर्च कर रहे हैं, वह उनकी जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की अनुमानित लागत से भी अधिक है।

एलएमआईसी सरकारों का सालाना बाहरी ऋण भुगतान 2013 में 182 अरब डॉलर था, जो 2023 में दोगुना बढ़कर 368 अरब डॉलर हो गया। यह स्थिति तब और स्पष्ट होती है, जब देखा जाए कि किसी देश द्वारा अर्जित प्रति डॉलर सकल राष्ट्रीय आय (जीएनआई) में से कितना हिस्सा बाहरी सार्वजनिक ऋण चुकाने में जाता है। 2013 में, प्रति डॉलर जीएनआई पर औसतन एक विकासशील देश ने 1.6 सेंट खर्च किए, जो 2023 में बढ़कर 2.5 सेंट हो गए। एलएमआईसी देशों के लिए यह आंकड़ा 2013 में 1.8 सेंट से बढ़कर 2023 में 2.8 सेंट हो गया।

बढ़ती और अनुचित ब्याज दरें

कर्ज चुकाने की लागत इतनी अधिक होने का एक प्रमुख कारण है कि उधार देने वाले देश बहुत अधिक ब्याज वसूल रहे हैं। यूएनसीटीएडी की रिपोर्ट में दिखाया गया है कि विकासशील देश उन दरों पर उधार लेते हैं जो अमेरिका की तुलना में 2 से 4 गुना अधिक और जर्मनी की तुलना में 6 से 12 गुना अधिक होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार, “इस ऋण का बोझ अलग-अलग देशों पर अलग तरह से पड़ता है, और इसे चुकाने की क्षमता उस असमानता से और जटिल हो जाती है जो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संरचना में अंतर्निहित है।”

ऐसा मुख्य रूप से इसलिए होता है क्योंकि विकासशील देशों को आम तौर पर “उच्च जोखिम वाला क्षेत्र” माना जाता है, जिसके चलते उन्हें उधार लेने के लिए अधिक लागत चुकानी पड़ती है। सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग्स किसी देश की कर्ज चुकाने की क्षमता का स्वतंत्र मूल्यांकन मानी जाती हैं। ये रेटिंग्स इसलिए महत्वपूर्ण होती हैं क्योंकि वैश्विक वित्तीय बाजार में इन्हीं के आधार पर किसी देश के लिए ब्याज दरें तय होती हैं और इस तरह उसकी उधारी की लागत पर सीधा असर पड़ता है।

दुर्भाग्य से, सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग्स में ग्लोबल साउथ के देशों के प्रति पूर्वाग्रह देखा गया है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की 2023 की रिपोर्ट "रिड्यूसिंग द कॉस्ट ऑफ फाइनेंस फॉर अफ्रीका" के अनुसार, असमान रेटिंग्स के कारण अफ्रीकी देशों को 24 अरब डॉलर से अधिक अतिरिक्त ब्याज चुकाना पड़ा है और 46 अरब डॉलर से अधिक की संभावित उधारी गंवानी पड़ी है।

उदाहरण के लिए, कैमरून और इथियोपिया की क्रेडिट रेटिंग उस समय घटा दी गई, जब उन्होंने डेट सर्विस सस्पेंशन इनिशिएटिव के तहत राहत की मांग की। यह पहल जी20 देशों द्वारा मई 2020 में शुरू की गई थी, जिसका उद्देश्य कोविड-19 महामारी के आर्थिक प्रभाव से जूझ रहे निम्न और निम्न-मध्यम आय वाले देशों को सहायता देना था।

लेकिन इन देशों की रेटिंग घटा दिए जाने से उनके कर्ज की लागत बढ़ गई, जिससे उनके बजट पर बोझ और बढ़ा और आर्थिक पुनरुद्धार की प्रक्रिया लंबी खिंच गई।

राम्या विजया, जो अमेरिका की स्टॉकटन यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र और वैश्विक अध्ययन की प्रोफेसर हैं, ने मार्च 2025 में दानिश डेवलपमेंट रिसर्च नेटवर्क को दिए एक साक्षात्कार में यह बात कही। उन्होंने सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग्स और विकासशील देशों के लिए वित्त तक असमान पहुंच के व्यापक प्रभावों पर चर्चा करते हुए कहा कि यह बेहद जरूरी है कि हम देश रेटिंग्स के दीर्घकालिक प्रभावों की जांच करें, क्योंकि यही तय करता है कि सरकारें, खासकर ग्लोबल साउथ के वे देश जिनकी कर आय कम होती है, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास से जुड़े अन्य अहम क्षेत्रों पर कितना खर्च कर सकती हैं।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, ग्लोबल नॉर्थ देशों ने कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए औसतन अपनी जीडीपी का 12 प्रतिशत खर्च किया। इसके मुकाबले, उभरती अर्थव्यवस्थाओं (विकासशील देशों) ने 6 प्रतिशत और निम्न-आय वाले देशों ने सिर्फ 3 प्रतिशत खर्च किया।

फिर भी 2020 में सॉवरेन रेटिंग में गिरावट के 95 प्रतिशत मामले उभरते और विकासशील देशों के हिस्से में आए।

यह दिखाता है कि विकसित देशों को रेटिंग एजेंसियों की ओर से अतिरिक्त छूट मिलती है ताकि वे मंदी के दौरान खर्च बढ़ा सकें या टैक्स घटा सकें जिससे आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहन दिया जा सके। इस कारण, ऐसे देश संकटों से तेजी से उबर जाते हैं। वहीं, ग्लोबल साउथ के देश रेटिंग गिरने के डर से सरकारी खर्च नहीं बढ़ा सकते, जिससे उनके लिए संकट से उबरना और मुश्किल हो जाता है। इस तरह की प्रो-साइक्लिकल नीतियां यानी अर्थव्यवस्था में जब मंदी हो तो खर्च में कटौती और जब तेजी हो तो खर्च में बढ़ोतरी जैसी नीतियां कर्ज की समस्या को और भी बढ़ा देती हैं।

यह भी देखा गया है कि अफ्रीका में सॉवरेन कर्ज पर ब्याज भुगतान में सबसे अधिक वृद्धि हुई है, जो 2013 में 7.8 अरब डॉलर से बढ़कर 2023 में 25.1 अरब डॉलर हो गया, यानी 3.2 गुना की बढ़ोतरी।

एशिया और पैसिफिक क्षेत्र में भी यही रुझान देखने को मिला, जहां सॉवरेन ऋण पर ब्याज भुगतान 2013 के 20.9 अरब डॉलर से बढ़कर 2023 में 64.1 अरब डॉलर हो गया, जो तीन गुना से अधिक है और साल 2023 में कुल वैश्विक ब्याज भुगतान का सबसे बड़ा हिस्सा (48.7 प्रतिशत) भी यही क्षेत्र रहा। लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र में यह वृद्धि अपेक्षाकृत धीमी रही, जहां ब्याज भुगतान 1.6 गुना बढ़ा।