जैसे ही स्पेन के शहर सेविल में चौथा इंटरनेशनल कांफ्रेंस ऑन फाइनेंसिंग फॉर डेवलपमेंट (एफएफडी4) शुरू हुआ, हमें पता चल रहा है कि कैसे विकासशील देश भारी कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। यह कर्ज उन्हें आगे बढ़ने से रोक रहा है। दुनिया की मौजूदा खराब वित्तीय व्यवस्था भी उनके लिए पैसा जुटाना मुश्किल बना देती है। ऐसे में इन देशों की सरकारों के पास दो ही रास्ते बचते हैं। या तो वे पुराना कर्ज चुकाएं, या अपने लोगों की बुनियादी जरूरतों पर खर्च करें।
1,05,000 डॉलर — यही है नागरिकता की कीमत उस द्वीप देश नाउरू की, जो दक्षिण पश्चिमी प्रशांत महासागर में सिर्फ 21 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यह निचला द्वीप “गोल्डन पासपोर्ट” यानी नागरिकता बेचकर जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए धन जुटा रहा है।
नाउरू दुनिया का तीसरा सबसे छोटा देश है और इसका वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में योगदान केवल 0.01 प्रतिशत है। फिर भी, यह देश समुद्र-स्तर में वृद्धि, तूफानी लहरों और तटीय कटाव से अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है।
सरकार का कहना है कि उसके पास जलवायु संकट से खुद को बचाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, और नागरिकता बेचने से उसे द्वीप की 12,500 की कुल आबादी में से 90 प्रतिशत लोगों को ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बसाने और पूरी तरह एक नया समुदाय बसाने के लिए धन मिलेगा।
नाउरू की “गोल्डन पासपोर्ट” पहल यह दिखाती है कि विकासशील देशों, जहां दुनिया की 80 प्रतिशत आबादी रहती है को दोहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। एक ओर जलवायु संकट गहराता जा रहा है तो दूसरी ओर आर्थिक और वित्तीय कठिनाइयां भी बढ़ रही हैं।
नतीजतन ये देश विदेशी ऋण पर निर्भर होते जा रहे हैं, जिससे वे जलवायु अनुकूलन और स्वच्छ ऊर्जा की ओर निवेश नहीं कर पा रहे हैं। इसके चलते वे आपदा से उबरने के लिए और अधिक उधार लेने को मजबूर हो जाते हैं और कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है।
इसका परिणाम खतरनाक हो सकता है, विशेष रूप से तब जब संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (यूएनटीडीएडी) की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में वैश्विक सार्वजनिक ऋण (यानि दुनिया भर की सरकारों का कुल उधार) रिकॉर्ड स्तर 97 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच गया है।
इसका अर्थ है कि 2013 से 2023 के बीच व्यक्ति की औसत आय तो 22 प्रतिशत बढ़कर 13,065 डॉलर हो गई है, लेकिन उसी अवधि में व्यक्ति पर कर्ज का बोझ 61 प्रतिशत बढ़कर 12,034 डॉलर हो गया है।
यह असमान वृद्धि चिंताजनक है, क्योंकि इसका मतलब है कि व्यक्ति की आय का बड़ा हिस्सा अब कर्ज चुकाने में जा रहा है, जिससे देश जलवायु परिवर्तन और विकास लक्ष्यों पर निवेश नहीं कर पा रहे हैं। यह निवेश उनके राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) के तहत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती और जलवायु प्रभावों के अनुकूलन के लिए आवश्यक है।
जहां एक विकासशील देश (चीन को छोड़ कर) के एक नागरिक को जलवायु कार्रवाई के लिए साल 2030 तक हर साल लगभग 488 डॉलर की जरूरत है, वहीं इन देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सबसे अधिक खतरा है और उन्हें सबसे ज्यादा निवेश की आवश्यकता है।
यह हकीकत और भी गंभीर हो जाती है, जब इसे मौजूदा वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य के संदर्भ में देखा जाता है, खासकर तब जब विकसित देशों द्वारा विदेशी सहायता में कटौती की जा रही हो।
अमेरिका का पेरिस समझौते से हटना जलवायु कार्रवाई को कमजोर करता है। अजरबैजान के बाकू में 2024 में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (कॉप29) में जलवायु वित्त पर नए सामूहिक लक्ष्य (एनसीक्यूजी) की बातचीत असफल रही, खासकर उन विकासशील देशों के लिए जो सार्वजनिक वित्त के जरिए जलवायु न्याय चाहते थे।
इस बीच, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान चुपचाप नेट जीरो संधियों से पीछे हट रहे हैं और जलवायु प्रतिज्ञाओं को सीमित कर रहे हैं।
अमेरिका, ब्रिटेन, बेल्जियम, फ्रांस, नीदरलैंड और स्वीडन जैसे बड़े दाता देश अपने विदेशी सहायता बजट में कटौती कर रहे हैं। ग्लोबल मैनेजमेंट कंसलटेंसी फर्म मैकिन्जे एंड कंपनी की मई 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, अगले वर्ष विदेशी सहायता में 22 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है।
इसके अलावा, विकसित देशों से सार्वजनिक जलवायु वित्त अब भी जरूरत से बहुत कम है। अधिकांश ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) के लिए विकास और जलवायु वित्त का परिदृश्य निराशाजनक है। इस ठहराव की एक बड़ी वजह है बढ़ता बाहरी ऋण संकट, यानि कर्ज चुकाने के लिए और कर्ज लेना।
अब ध्यान एफएफडी4 सम्मेलन पर केंद्रित है, जो 30 जून से 3 जुलाई 2025 तक चलेगा। इसमें वैश्विक विकास के संदर्भ में ऋण के संकट पर चर्चा होगी। सम्मेलन का उद्देश्य सतत विकास लक्ष्यों के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्तपोषण को आगे बढ़ाना है, जिसमें वैश्विक वित्तीय ढांचे में सुधार और विकासशील देशों की अनूठी परिस्थितियों के अनुसार जलवायु वित्त को आगे बढ़ाना शामिल है।
सार्वजनिक ऋण कितना बड़ा है?
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार, सार्वजनिक ऋण यानी सरकारों पर कर्ज का मतलब है कि सरकारें कठिन परिस्थितियों का सामना करने और शिक्षा, स्वास्थ्य और ऊर्जा जैसी सेवाओं में निवेश करने के लिए उधार लेती हैं। यह उधारी, करों के जरिए जुटाए गए राजस्व की पूर्ति करती है।
सरकारें देश के भीतर या विदेशों से ऋण ले सकती हैं, और कर्ज देने वालों में स्थानीय बैंक, घर-परिवार, दूसरे देश, विकास बैंक, बहुपक्षीय संस्थाएं और निजी निवेशक हो सकते हैं। सरकारें निजी संस्थाओं के लिए ऋण की गारंटी भी ले सकती हैं, यानी अगर वह संस्था कर्ज नहीं चुका पाई, तो सरकार उसकी ओर से भुगतान करेगी।
यूएनसीटीएडी की 2024 की रिपोर्ट “ए वर्ल्ड ऑफ डेट: ए ग्रोविंग बर्डन टू ग्लोबल परोसपेरिटी” में कहा गया है, “सार्वजनिक ऋण विकास का एक शक्तिशाली उपकरण हो सकता है, जो सरकारों को महत्वपूर्ण खर्च करने और लोगों के लिए बेहतर भविष्य में निवेश करने में सक्षम बनाता है।” लेकिन जब यह ऋण बहुत अधिक या तेजी से बढ़ता है तो यह विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए भारी बोझ बन जाता है।
रिपोर्ट के अनुसार, हाल के वर्षों में कई संकटों और वैश्विक अर्थव्यवस्था के असमान प्रदर्शन के कारण वैश्विक सार्वजनिक ऋण में खतरनाक वृद्धि हुई है। 2023 में यह 97 ट्रिलियन डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया, जो पिछले वर्ष से 5.6 ट्रिलियन डॉलर अधिक था।
हालांकि विकसित देश दो-तिहाई सार्वजनिक ऋण के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन विकासशील देशों, जिन्हें विश्व बैंक द्वारा निम्न और मध्यम आय वाले देश कहा जाता है पर भी 29 ट्रिलियन डॉलर का ऋण है।
चिंता की बात यह है कि 2010 से अब तक विकासशील देशों में सार्वजनिक ऋण दोगुनी गति से बढ़ा है, जिससे 2010 में इनका हिस्सा वैश्विक ऋण में 16 प्रतिशत था, जो 2023 में 30 प्रतिशत हो गया है।
इन देशों के ऋण का एक बड़ा हिस्सा बाहरी (विदेशी) ऋण है — यानि विदेशी कर्जदाता से लिया गया पैसा। यह विदेशी मुद्रा भंडार को धीरे-धीरे समाप्त करता है और जब घरेलू मुद्रा कमजोर होती है, तो कर्ज लौटाना मुश्किल हो जाता है।
अगर कोई देश विदेशी मुद्रा में कर्ज चुकाने की क्षमता खो देता है, तो बाहरी ऋण आर्थिक संकट ला सकता है। श्रीलंका और केन्या जैसे देश इसका खामियाजा भुगत चुके हैं, जहाँ अस्थिर बाहरी ऋण संकट और सामाजिक असंतोष पैदा हुआ।
Journal of Financial Stability में फरवरी 2024 में प्रकाशित विश्लेषण “भारतीय महासागर का मोती कैसे टूटा?” के अनुसार, श्रीलंका में संकट का मुख्य कारण था बजट घाटे को विदेशी उधारी से पूरा करना। 2018 तक उसका बाहरी ऋण केंद्र सरकार के कुल ऋण का 50% हो गया था — जो 20 वर्षों में सबसे ज्यादा था।
2020 में, जब COVID-19 महामारी आई, तो विदेश से कर्ज आना बंद हो गया। सरकार ने चालू खाता घाटा पूरा करने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल किया। लगातार भंडार खत्म होने के कारण, श्रीलंका अप्रैल 2022 में अपने बाहरी कर्ज पर चूक कर गया। इससे पूरी अर्थव्यवस्था और देश ठप पड़ गया, और सामाजिक-राजनीतिक संकट शुरू हो गया।
विश्व बैंक के आंकड़े दिखाते हैं कि कई और विकासशील देशों की हालत भी चिंताजनक है। 2013 से 2023 के बीच इन देशों का बाहरी ऋण 55 प्रतिशत बढ़ा — 5.71 ट्रिलियन डॉलर से 8.84 ट्रिलियन डॉलर हो गया। इनका सकल राष्ट्रीय आय (GNI) भी 52 प्रतिशत बढ़ी, लेकिन कर्ज की गति अधिक रही।
इन ऋणों का अधिकांश हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र ने लिया है — यानी सरकार और सरकारी संस्थाएं। यह दर्शाता है कि यह ऋण आवश्यक बजटीय ज़रूरतों को पूरा करने के लिए लिया गया।
2023 में कुल बाहरी ऋण का GNI से अनुपात दिखाता है कि निम्न-आय वाले देशों के लिए यह अनुपात 36.44 प्रतिशत और मध्य-आय वाले देशों के लिए 24.06 प्रतिशत था। 2013 से 2023 के बीच ऐसे देशों की संख्या, जहाँ यह अनुपात 50 प्रतिशत से अधिक हो गया, 36 से बढ़कर 52 हो गई।
उदाहरण के लिए, मोजाम्बिक का बाहरी ऋण 2023 में उसके GNI का 350 प्रतिशत था — जो LMIC देशों में सबसे ज्यादा है। मंगोलिया का ऋण 189 प्रतिशत और मॉरीशस का 128 प्रतिशत था। यह ऋण चुकाने का दबाव बढ़ाते हैं और देश को संकट की ओर ले जा सकते हैं।
क्षेत्रीय विश्लेषण बताता है कि एशिया और प्रशांत क्षेत्र पिछले दस वर्षों में वैश्विक दक्षिण के भीतर सरकार-स्वामित्व वाले बाहरी ऋण का सबसे बड़ा बोझ उठाता रहा है। 2013 से 2023 के बीच इस क्षेत्र का ऋण 829 बिलियन डॉलर से बढ़कर 1.63 ट्रिलियन डॉलर हो गया।
अगर चीन को छोड़ दें, जो अमेरिका के बाद दुनिया का सबसे बड़ा सार्वजनिक ऋण वाला देश है और खुद एक बड़ा कर्जदाता भी है पर ऋण 676.7 बिलियन डॉलर से 1.16 ट्रिलियन डॉलर (1.7 गुना) बढ़ा है। लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों का ऋण 574 बिलियन डॉलर से 940 बिलियन डॉलर (1.6 गुना) बढ़ा है। अफ्रीका में यह दोगुना हो गया है। यहां 2023 में 689 बिलियन डॉलर था। अब और अधिक देशों को उच्च ऋण बोझ का सामना करना पड़ रहा है, विशेष रूप से अफ्रीका को।
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