जलवायु

कोविड-19: आपदा को अवसर में बदलने से चूक न जाएं हम

Tarun Gopalakrishnan

इस बात पर ध्यान दिए बगैर कि कोविड-19 का संकट क्या रूप लेगा, भविष्य के टिप्पणीकार इस पर हमारी प्रतिक्रिया को वैश्विक जलवायु आपातकाल के साथ जोड़ेंगे। अगर हम इस महामारी पर सही प्रतिक्रिया देने में असफल रहते हैं तो वे जलवायु परिवर्तन पर एक पूर्वज के तौर पर हमारी ग्रह-व्यापी विफलताओं का हवाला देंगे और इसे एक वैश्विक संकट से निपटने के लिए एक साथ काम करने में हमारी असमर्थता के संकेतक के रूप में देखेंगे। अगर हम सही प्रतिक्रिया दे पाए, तो वे इस महामारी को कार्बन शमन के लंबे समय से वांछित लाभ से जोड़ देंगे, क्योंकि कोविड-19 के साथ निपटने के लिए सामाजिक दूरी बनानी होगी और नतीजतन आर्थिक गतिविधियों का काफी नुकसान होगा, जिससे उत्सर्जन में कमी आएगी।

इसके बाद भी कम से कम वैश्विक स्तर पर, ये कड़ियां काफी कमजोर हैं, हालांकि चीन की इस संकट पर प्रतिक्रिया की वजह से फरवरी से मध्य मार्च के बीच कार्बन उत्सर्जन में 18 प्रतिशत की कमी आई, लेकिन कोविड-19 और वैश्विक उत्सर्जन में कमी के बीच की कड़ी की मजबूती के प्रमाण अब भी मिश्रित ही हैं। पहली बात, विश्व मौसम विज्ञान संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, कई प्रमुख अवलोकन स्थलों पर फरवरी 2020 में उत्सर्जन स्तर फरवरी 2019 की तुलना में अधिक थे। ऐसा शायद इसलिए था क्योंकि दुनियाभर के उद्योगों ने अभी तक उत्पादन बंद नहीं किया था। दूसरा, वर्तमान में जीडीपी, स्टॉक की कीमतों और नौकरी के नुकसान जैसे सामान्य संकेतकों के संदर्भ में आर्थिक प्रभाव का अनुमान लगाया जा रहा है।

प्रत्यक्ष है कि नवीकरण उद्योग ही केवल प्रोत्साहन के लिए सरकार की तरफ नहीं देख रहा। इसके परिणामस्वरूप, एक स्वच्छ प्रोत्साहन पैकेज का आह्वान हुआ है और उम्मीद है कि प्रोत्साहन के मौजूदा स्तर से ग्रीन हाउस न्यू डील (संयुक्त राज्य की कांग्रेस द्वारा 2019 में लिया गया एक संकल्प, जिसके तहत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और स्वच्छ ऊर्जा उद्योगों में नौकरियां देने का वादा किया गया है) जैसे जलवायु प्रस्ताव अधिक रुचिकर लगेंगे। दोनों संकटों को जोड़ने वाला तर्क यहां मजबूत स्थिति में है। यह इस बात को स्पष्ट तौर पर रखता है कि किसी भी आर्थिक निर्णय को चल रहे जलवायु संकट के प्रति सचेत होना चाहिए। उदाहरण के लिए, इस बात पर बहस करना मुश्किल है कि एयरलाइन उद्योग को नीचे जाने देना चाहिए। और फिर एयरलाइंस भी अपने उत्सर्जन डेटा के बारे में विशिष्ट रूप से अपारदर्शी और प्रादेशिक हैं, जबकि यह जिम्मेदार जलवायु नीति के लिए एक बुनियादी शर्त है। इस उद्योग के लिए प्रोत्साहन पैकेज को एयरलाइंस के उत्सर्जन डेटा से जोड़ा जाना चाहिए।

दुनियाभर से आ रहे शुरुआती संकेत उत्साहजनक नहीं हैं। 27 मार्च को 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के रिकवरी पैकेज के लिए सहमति देने वाली संयुक्त राज्य सरकार जीवाश्म ईंधन उत्पादकों को पर्यावरण नियमों और ऑटो उद्योग को कम प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों का उत्पादन करने के लिए आवश्यक नियमों में ढील दे रही है। उड्डयन उद्योग को बिना किसी सम्बन्ध के सहायता मिलने की संभावना है। कीमतों में मौजूदा गिरावट के बावजूद, तेल कंपनियों को मदद की संभावना है। वहीं पवन और सौर उद्योगों पर टैक्स क्रेडिट नहीं बढ़ाया गया है।

यूरोप में कोयला ऊर्जा पर निर्भर देश, खासकर पोलैंड और चेक गणराज्य अब उन लक्ष्यों को शिथिल करने पर जोर दे रहे हैं, जो पिछले साल के अंत में यूरोपीय संघ की ग्रीन डील में तय किए गए थे। जिसका मकसद 2050 तक यूरोप को कार्बन न्यूट्रल करने का था। यूरोपीय नवीकरण उद्योग अधिक संगठित है, वह यूरोपीय संघ के महामारी रिकवरी पैकेज में पर्यावरण को भी प्रोत्साहित करने के लिए दबाव बना रहा है। यहां संकेत अधिक आशाजनक हैं। यूरोपीय परिषद ने संकेत दिया है कि वह अपने जारी ऊर्जा संक्रमण को छोड़े बिना ग्रीन रिकवरी के लिए योजना बना रही है। जापान और ऑस्ट्रेलिया ने प्रोत्साहन पैकेजों की घोषणा की है, जिनमें कोयले पर उनकी निर्भरता को कम करने के लिए कुछ नहीं है।

टार सैंड ऑयल के एक बड़े निर्यातक देश कनाडा ने अपने नागरिकों को प्रत्यक्ष सहायता और व्यवसायों को बनाए रखने के लिए कुछ उपायों की घोषणा की है, लेकिन वह अभी व्यापार-केंद्रित बड़े प्रोत्साहनों के बारे में सोच रहा है। सऊदी अरब गिरती मांग और कीमतों के दौरान तेल उत्पादन में तेजी ला रहा है और आर्थिक और भू राजनीतिक उद्देश्य वाले प्राइस वॉर को तेज कर रहा है। संभावना है कि तेल भंडारों को मुद्रीकृत करने के सीमित मौकों का भय दर्शाते हुए अन्य तेल उत्पादक देश भी सऊदी अरब का अनुसरण करेंगे, लेकिन इससे आगे वैश्विक ऊर्जा प्रणालियों में तेल का दबदबा खत्म हो सकता है। चीन ने स्वाभाविक रूप से अब तक का सबसे बड़ा आर्थिक प्रभाव महसूस किया है। बिजली की मांग में काफी नुकसान हुआ है और इसे पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।

लेकिन चीन अब भी कोयला बिजली संयंत्रों का निर्माण कर रहा है और वर्तमान में उसकी अप्रयुक्त क्षमता भी बहुत ज्यादा है, जिसका उपयोग वह संभवत: जरूरत पड़ने पर समायोजन के लिए करेगा। दूसरी तरफ उसके नवीकरणीय ऊर्जा में भी निवेश करने के सबूत मौजूद हैं जिसमें मार्च में सोलर पैनल मैन्युफैक्चरिंग प्लांट के लिए की गई 2.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर की घोषणा भी शामिल है। इसमें दुनियाभर में सोलर पैनल की आधी मांग को पूरा करने की क्षमता है। चीन बस बिजली का भूखा है और इसे पूरा करने के लिए उसकी दिशा नवीकरणीय उद्योग के लिए एक बड़ा बदलाव लाने वाला कारक है। ठीक यही बात भारत के साथ भी है, जो सभी ऊर्जा उत्पादकों की सहायता करने की कोशिश कर रहा है। कोविड-19 से पहले जो कोयला परियोजनाएं सफलतापूर्वक लाभ नहीं अर्जित कर रही थीं, वह अब किसी भी प्रोत्साहन पैकेज का हिस्सा नहीं होनी चाहिए। सरकार के एजेंडे में काफी महत्वपूर्ण होने के बाद भी वितरण कंपनियों ने महामारी से पहले नवीकरण परियोजनाओं पर ढुलमुल रवैये के साथ काम शुरू किया था। अब चीन से आयात पर रोक के चलते वे बढ़ती लागत का सामना कर रही हैं। पहले से ही जारी संकट के ऊपर एक और संकट बिना सहायता के उन्हें बर्बाद कर सकता है।

उत्सर्जन में फिर से उछाल

कोविड-19 प्रोत्साहन पर बहस सार्वजनिक स्मृति में आखिरी बड़े प्रोत्साहन के जलवायु प्रभावों को देखते हुए और भी अधिक महत्व रखती है। इसको लेकर बहुत आशावादी नजरिया था कि 2008-09 के वित्तीय संकट ने आर्थिक विकास और उत्सर्जन के संबंधों को तोड़ दिया था। एक या दो साल के दौरान जहां वैश्विक अर्थव्यवस्था में मामूली वृद्धि हुई, वहीं वैश्विक वार्षिक उत्सर्जन स्थिर रहा। यह प्रवृत्ति भ्रमित करने वाली साबित हुई। एक दशक के दौरान विनाशकारी परिणामों के साथ उत्सर्जन में अप्रत्याशित रूप से बढ़ोतरी हुई। इस संकट के बाद सबसे अधिक संभावना जिस दुष्परिणाम की दिखती है, वह है विकास की भूख, जिसमें दीर्घकालीन परिणामों पर सबसे कम ध्यान दिया जाएगा। द्विपक्षीय सहयोग, जो वर्तमान में विकसित और विकासशील देशों के मध्य जलवायु वित्तीयन के लिए सबसे पसंदीदा मार्ग है, को कोविड-19 संकट से मुकाबला करने के लिए बढ़ाने की जरूरत है। महामारी और जलवायु परिवर्तन की इन समान रूप से महत्वपूर्ण प्राथमिकताओं को पूरा करने के लिए एक ही संग्रह से काम लेना होगा, जो घटता जा रहा है। ऑस्ट्रेलिया पहले ही कह चुका है कि वह इंडो-पैसिफिक के लिए अपने सहायता बजट को नहीं बढ़ाएगा, बल्कि उसे कोविड-19 के लिए दिया जाएगा। अन्य सहयोग-प्रदाता भी संभवतः उसी का अनुसरण करेंगे।

जलवायु इक्विटी और न्याय के लिए दशकों तक तर्क दिए गए हैं। स्वास्थ्य संकटों के प्रबंधन ने अक्सर विकासशील दुनिया पर ध्यान केंद्रित किया है। कोविड-19 संकट ने अभूतपूर्व तरीकों से विशेषाधिकार प्राप्त और कमजोर लोगों के बीच के अंतर को जटिल कर दिया है। अब जबकि हम संकट के चौथे महीने की तरफ बढ़ रहे हैं, तब विकासशील देशों खासकर दक्षिण एशिया और अफ्रीका पर उसका प्रभाव काफी स्पष्ट होने की संभावना है। जनसांख्यिकीय, भौगोलिक और अच्छी तकदीर का परिणाम काम चलाने लायक प्रभाव के तौर पर आता है, तो भी वह बुनियादी तथ्यों को नहीं बदलेगा। जलवायु नीति की तरह ही सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी हम एक सामान्य, लेकिन भेदभावपूर्ण संवेदनशीलता और सामान्य, लेकिन भेदभावपूर्ण जिम्मेदारियां साझा करते हैं।