जलवायु

कॉप-27: क्या सेनाओं का बढ़ता कार्बन फुटप्रिंट एमिशन रिपोर्टिंग का हिस्सा नहीं होना चाहिए?

अनुमान है कि सेनाओं द्वारा किया जा रहा कुल उत्सर्जन, वैश्विक उत्सर्जन के पांच फीसदी हिस्से के बराबर हो सकता है

Lalit Maurya

दुनिया भर में कई शक्तिशाली अर्थव्यवस्थाएं बड़ी तेजी से अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाने में लगी हुई हैं। हर दिन दुनिया के किसी न किसी हिस्से से मिसाइल या अन्य हथियारों के किए जा रहे परीक्षण की खबरे सामने आती रहती हैं। ऐसा ही एक परीक्षण हाल ही में नार्थ कोरिया ने किया था।

देखा जाए तो दुनिया भर में सशस्त्र बलों को मजबूत करने की एक होड़ सी लगी है। इसकी वजह से इनका कार्बन फुटप्रिंट भी बढ़ता जा रहा है। हालांकि इसके बावजूद यह कार्बन फुटप्रिंट ग्लोबल एमिशन रिपोर्टिंग का हिस्सा नहीं है।

इस बारे में जर्नल नेचर में प्रकाशित एक रिसर्च से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर सेनाएं बड़े पैमाने पर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर रही हैं हालांकि सटीक तौर पर कोई नहीं जानता की वैश्विक उत्सर्जन में इनकी कितनी हिस्सेदारी है, लेकिन अनुमान है कि इनके द्वारा किया जा रहा उत्सर्जन, कुल वैश्विक उत्सर्जन के पांच फीसदी हिस्से के बराबर हो सकता है।

देखा जाए तो सशस्त्र बलों द्वारा किए जा रहे उत्सर्जन की तुलना शिपिंग और विमानन उद्योग से की जा सकती है, जिनके द्वारा किया जा रहा उत्सर्जन कुल वैश्विक उत्सर्जन के करीब 2-2 फीसदी हिस्से के बराबर है। ऐसे में शोधकर्ताओं का बड़ा सवाल यही है कि क्या सेनाओं द्वारा किया जा रहा यह उत्सर्जन ग्लोबल कार्बन रिपोर्टिंग का हिस्सा नहीं होना चाहिए।

इस अध्ययन में अमेरिकी सेना का उदाहरण देते हुए लिखा है कि अमेरिकी सेना खर्च के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी सेना है और यदि वो कोई देश होती तो उनके द्वारा किया जा रहा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दुनिया में सबसे ज्यादा होता। जोकि प्रति सैनिक 42 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर है।

इसी तरह प्रत्येक 100 समुद्री मील उड़ान के लिए, अमेरिकी वायु सेना का एफ-35 फाइटर जेट इतना उत्सर्जन करता है, जितना यूके की एक औसत पेट्रोल कार एक वर्ष में करती है। गौरतलब है की एफ-35 फाइटर जेट एक समुद्री मील की उड़ान में करीब 2.3 मीट्रिक टन के कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर उत्सर्जन करता है।

इसी तरह हर साल, अकेले अमेरिकी सेना द्वारा जेट-ईंधन के उपयोग से करीब 60 लाख अमेरिकी यात्री कारों के बराबर उत्सर्जन होता है। इतना ही नहीं अध्ययन से पता चला है कि अकेले अमेरिकी सेना पेरू, सिंगापुर और स्विटजरलैंड सहित कई देशों की तुलना में कहीं ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करती है।

शोधकर्ताओं ने यह भी चेतावनी दी है कि सैन्य गतिविधियों से होते उत्सर्जन की सटीक गणना के आभाव में यह आंकड़े अनुमान से कहीं ज्यादा हो सकते हैं, क्योंकि अन्य ऊर्जा आपूर्ति, कच्चे माल, आपूर्ति श्रृंखला और उपकरण निर्माण के साथ युद्ध में होते कार्बन उत्सर्जन के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

सैन्य उत्सर्जन के मामले क्यों चुप हैं आईपीसीसी और सरकारें

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज और संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन की रिपोर्ट सैन्य उत्सर्जन के मामले पर चुप क्यों हैं? रिसर्च के मुताबिक इसका संक्षिप्त उत्तर राजनीति और विशेषज्ञता की कमी है। राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल के बाद से अंतरराष्ट्रीय समझौतों में उत्सर्जन संबंधी घोषणाओं से सेनाओं को बाहर रखा गया है। ऐसा में प्रकाशित आंकड़ों की कमी के कारण इनके द्वारा किए जा रहे उत्सर्जन का अनुमान लगाना कठिन है।

लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा का यह तर्क अब तर्कसंगत नहीं है क्योंकि बौद्धिक संपदा अधिकारों से समझौता किए बिना या संवेदनशील जानकारी का खुलासा किए बिना भी वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के साथ उत्सर्जन की गणना की जा सकती हैं। इसकी विधियां उपलब्ध हैं।

जवाबदेही पर कोई अंतरराष्ट्रीय समझौता न होने के कारण, इसकी रिपोर्टिंग की आवश्यकता, नेतृत्व या काम करने की इच्छा, निगरानी और सैन्य उत्सर्जन में कटौती को बहुत कम प्राथमिकता दी गई है। आज दुनिया की कुछ मुट्ठीभर सेनाओं जैसे अमेरिका, यूके ने जलवायु कार्रवाई पर अपने रणनैतिक दस्तावेज प्रकाशित किए हैं। वहीं बाकी तो अभी भी इससे कोसों दूर हैं।

इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता डॉक्टर बेंजामिन नीमार्क का कहना है कि हमें सेनाओं के कार्बन उत्सर्जन की सटीक गणना के लिए मजबूत स्वतंत्र शोध की आवश्यकता है, ताकि हम इसे पूरी तरह से समझ सकें कि सशस्त्र संघर्ष जलवायु को कैसे प्रभावित करते हैं। इसकी मदद से इसको रोकने के लिए जरूरी उपाय किए जा सकते हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि यह मौका विशेष रूप से उपयुक्त है, क्योंकि इस सप्ताह संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मलेन कॉप-27 की शुरुआत हो चुकी है। इसमें  सशस्त्र बलों के कार्बन पदचिह्न को कम और रिपोर्ट करने के लिए सेना और उससे जुड़े शोधकर्ताओं को भी बुलाना चाहिए। इससे जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने में मदद मिलेगी।

ऐसे में शोधकर्ताओं के मुताबिक सैन्य उत्सर्जन को भी वैश्विक जलवायु एजेंडे में शामिल करने की जरूरत है। इसे आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर सटीक रूप से रिपोर्ट किया जाना चाहिए। इसके साथ ही सैन्य अभियानों में भी उत्सर्जन पर कटौती करने की जरूरत है। इसके लिए 'पर्यावरण अनुकूल' सैन्य बुनियादी ढांचे या उपकरणों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। साथ ही सेना के कार्बन इंटेंसिव कार्यक्रमों और उपकरणों पर खर्च को कम करने के लिए एक ठोस प्रयास करने की जरूरत है।

इसी तरह सैन्य उत्सर्जन को रिपोर्ट करने के लिए शोधकर्ताओं को एक ट्रांसपेरेंट फ्रेमवर्क विकसित करने की जरूरत है, और इसमें मौजूद डेटा गैप्स को दूर किया जाना चाहिए। इसके लिए वर्तमान में चल रहा जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप 27) और दुबई में 2023 में होने वाला कॉप-28 सम्मेलन ऐसा मौका है जिसमें इस बदलाव को औपचारिक रूप दिया जा सकता है।