जलवायु

कॉप-26: सौ महीने से कम समय बाकी,  इन वजहों से हो सकती है नतीजे मिलने में दिक्कत

भारत ने कोयले और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी के मसौदे को फेज आउट की बजाय हल्के और अपरिभाषित फेज डाउन में डालने का दबाव डाला

Richard Mahapatra

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (कॉप-26) के तहत 31 अक्टूबर से 12 नवंबर के बीच चलने वाला 26वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन अपनी निर्धारित समय-सीमा से एक दिन आगे तक चला। वैश्विक जलवायु संकट से निपटने को अपने प्रयासों मे तेजी लाने के लिए अंततः इसमें ग्लासगो जलवायु समझौता (जीसीपी ) पर सहमति बनी।

अंतिम सत्र में 197 देशों द्वारा तैयार जीसीपी में जिन सिद्धांतों का पालन किया गया है, उनका मूल दो शब्दों में निहित है- संतुलित और सहमतिपूर्ण। कॉप-26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने सदस्य देशों से कहा भी, ‘लक्ष्यों को हासिल करने के लिए क्या पर्याप्त है, यह सवाल मेरे बजाय अपने आपसे पूछिए।’
 
जीसीपी का तीसरा प्रस्ताव शनिवार की सुबह जारी किया गया, हालांकि यह पहले से ज्यादा अलग नहीं था। एक के बाद एक सभी देशों से विचार-विमर्श के बाद जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के प्रयासों में तेजी से आगे बढ़ने के लिए जिस मूलमंत्र पर जो दिया गया, वह था - संतुलित और सहमतिपूर्ण।

कोस्टा रिका के प्रतिनिधि के मुताबिक, ‘हालांकि हम प्रस्ताव को आदर्श नहीं कह सकते लेकिन यह ऐसा है जिसे अमल में लाया जा सकता है। यह परिपूर्ण समझौता तो नहंी है लेकिन हम इसके साथ चल सकते हैं।’ जीसीपी को लेकर ज्यादातर देशों का यही रुख था।

जीसीपी का लक्ष्य ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने के लिए 2030 तक धरती के तामपमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ने से रोकना है, जैसा कि 2015 में पेरिस समझौते में तय हुआ था। यानी जलवायु के विनाशकारी होने से बचने और धरती को जीवन लायक बनाए रखने में अब सौ महीने से भी कम का वक्त बचा है।
जीसीपी में आह्वान किया गया कि 2030 तक सभी देशों को ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 45 फीसदी तक कम करना और अंततः पैरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए 2050 तक उत्सर्जन शून्य करना है।

निर्णायक जीसीपी के मुताबिक:  ग्लासगो जलवायु समझौता यह भी मानता है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में तेजी से, गहरी और निरंतर कमी की जरूरत है, जिसमें 2010 के स्तर के सापेक्ष 2030 तक वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को 45 प्रतिशत तक कम करना और 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन करना शामिल है। इसके साथ ही अन्य ग्रीनहाउस गैसों में भी भारी कमी लाई जाएगी।

हालांकि दुनिया इस लक्ष्य को हासिल करने के सही रास्ते पर नहीं है। गैर-लाभकारी संगठन, क्लाईमेट एक्शन ट्रैकर ने अपनी ताजा आकलन रिपोर्ट में पूर्वानुमान लगया है कि उत्सर्जन में कमी के दावों के बावजूद धरती का तापमान 2.4 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की आशंका है। किसी भी वैज्ञानिक विश्लेषण के मुताबिक यह एक भयावह स्थिति होगी।

जीसीपी ने मानी धीमी प्रगति की बात:  ग्लासगो जलवायु समझौता पेरिस समझौते के तहत राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) पर संश्लेषण रिपोर्ट के निष्कर्षों को गंभीरता से ले रहा है। जिसके अनुसार सभी एनडीसी के कार्यान्वयन के आधार पर आकलन किया गया है कि 2030 में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन स्तर, 2010 से 13.7 फीसदी अधिक होने का अनुमान है।

कॉप- 26 में यूएनएफसीसीसी के अंतर्गत मुख्यधारा में लाया गया ‘नुकसान और हर्जाना’ का मुद्दा सबसे विवादित रहा। यह मुद्दा पिछले बीस सालों में छोटे द्वीप वाले देशों के संगठन की इस मांग के बाद जोर पकड़ने लगा है, जिसके मुताबिक, समुद्र का स्तर बढ़ने से उन्हें भारी नुकसान हुआ है, जिसके लिए किवसित देश जिम्मेदार हैं।

‘नुकसान और हर्जाना’ शब्द का इस्तेमाल यूएनएफसीसीसी के अंतर्गत उस स्थिति के लिए किया जा रहा है, जिसमें मानवजनित जलवायु परिवर्तन से किसी को हानि पहुंचती हो। छोटे द्वीप वाले देशों जैसे असुरक्षित और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान के लिए जवाबदेही और हर्जाने की मांग लंबे समय से उठती रही है। हालांकि सम्मेलन में विकसित देशों ने इसका विरोध किया।

यहां तक कि कॉप-26 की शुरुआत में ‘नुकसान और हर्जाना’ इसके औपचारिक एजेंडे में भी नहीं था। वार्ताकारों ने सम्मेलन में जारी दूसरे मसौदे में एक समर्पित एजेंसी की स्थापना करके पहली बार इस मुद्दे को संबोधित करने का रास्ता तैयार किया। फिर भी मसौदे में जलवायु से जुड़े नुकसान और हर्जाने की भरपाई के लिए एक कोष स्थापित करने की बात को शामिल करने से रोक दिया गया। 
इस तरह इस मामले में कोई प्रगति नहीं हो सकी, हालांकि विकासशील देश मसौदे के इस प्रारूप से इससे खुश नहीं थे। वे चाहते थे कि विकसित देश उनके द्वारा लाए जलवायु परिवर्तन के कारण हुए नुकसान की, हर्जाना देकर भरपाई करें।

जी-77 के साथ ही चीन समेत 130 देश चाहते थे कि यूएनएफसीसीसी के अंतर्गत ऐसे कोष के निर्माण के लिए ‘नुकसान और हर्जाना सुविधा’ की स्थापना की जाए।

सहमति वाले समझौते में कहा गया:  जीसीपी, उन विकासशील देशों में जो जलवायु परिवर्तन के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं, और प्रतिकूल प्रभावों से जुड़े नुकसान को टालने, कम करने के साथ- साथ वहां वित्त, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और क्षमता-निर्माण जैसी कार्रवाई व समर्थन को बढ़ाने की आकस्मिक जरूरत को दोहराता है।

समझौते में विकसित देशों पर जिम्मेदारी भी डाली गई, इसमें कहा गया: जीसीपी, विकसित देशों की पार्टियों, वित्तीय तंत्र की संचालन संस्थाओं, संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं, अंतर-सरकारी संगठनों और गैर-सरकारी संगठनों व निजी स्रोतों सहित अन्य द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संस्थानों से आग्रह करता है कि वे जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव को झेलने वाले देशों को अतिरिक्त समर्थन दें।

इस मुद्दे पर ‘बातचीत’ की प्रक्रिया आगे चलती रहेगी, समझौते में कहा गया: जीसीपी ने यह फैसला किया है कि प्रभावित होने वाले देश और अन्य देशों, महत्वपूर्ण संगठनों व साझीदारों के बीच बातचीत की प्रक्रिया जारी रहे। इसमें व तय करें कि जलवायु परिवर्तन से संवेदनशील देशों को होने नुकसान को कैसे कम किया जा सके और उनके हर्जाने का कैसे इंतजाम किया जाए।  

गैर-लाभकारी संगठन, क्लाईमेट एक्शन नेटवर्क के मोहम्मद एडोव के मुताबिक, ‘इस समझौते में तो यह कहा गया है कि समुद्र का स्तर बढ़ने की वजह से अगर आपका घर बर्बाद हो गया है तो अमीर देश केवल नुकसान की जांच करने वाले विशेषज्ञ का भुगतान करेंगे, लेकिन आपका घर दोबारा बनाने के लिए आपको कुछ नहीं देंगे।  ’

इस मुद्दे पर बातचीत के लिए विशेष रास्ता निकालने के विचार-विमर्श गहमागहमी से भरे रहे। फिर इस पर सहमति बनी कि अगले सम्मेलन में ‘नुकसान और हर्जाने’ से संबंधित आर्थिक ढांचे को अंतिम रूप दिया जाएगा।

दूसरा विवादित मुद्दा कोयले का उपयोग कम करने और जीवाश्म ईंधनों की सब्सिडी घटाने से जुडा़ था।

तीसरे मसौदे के मुताबिक: यह सम्मेलन कम उत्सर्जन वाले ऊर्जा तंत्रों को तैयार करने के लिए सदस्य देशों और पार्टियों से विकास की गति तेज करने, तकनीक स्थापित करने और उसका विस्तार करने के साथ नई नीतियां बनाने का आह्वान करता है। कम उत्सर्जन वाले ऊर्जा तंत्रों को विकसित करने के साथ ही स्वच्छ बिजली उत्पादन और ऊर्जा दक्षता उपायों को बढ़ाना होगा और कोयले का उपयोग कम करना होगा। सक्रंमण के इस दौर में हमें जीवाश्म ईंधनों की सब्सिडी भी घटानी होगी।

हालांकि पेरिस समझौते में कोयला या गैस जैसे किसी विशेष ऊर्जा सा्रे़ का जिक्र नहीं किया गया था।

भारत ने एक विशिष्ट ऊर्जा स्रोत (कोयला) के इस संदर्भ का विरोध किया, साथ ही उसने राष्ट्रीय विकास की सीधी रेखा चक्र का हवाला देते हुए जीवाश्म ईंधन को खत्म करने की समय सीमा का भी विरोध किया। भारत कार्बन बजट का उचित हिस्सा मांग रहा है और जीवाश्म ईंधन के ‘जिम्मेदारी भरे उपयोग’ को जारी रखने के लिए कहता आ रहा है। ईरान, चीन और दक्षिण अफ्रीका ने भी इस संदर्भ और समय-सीमा का विरोध किया।

केंदीय पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा, ‘कोई यह कैसे सोच सकता है कि विकासशील देश कोयले और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी के ‘फेज आउट’ पर राजी हो जाएंगे ? ’

उन्होंने मसौदे में यह जोड़ने का प्रस्ताव रखा कि इसे ‘फेज आउट’ की जगह ‘फेज डाउन’ किया जाए। साथ ही इसमें ‘राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार’  और ‘गरीब के आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए ’ टर्म भी जोड़े जाएं। गौरतलब है कि ‘फेज आउट’ का मतलब किसी चीज को अचानक बाहर किए जाना है जबकि ‘फेज डाउन’ का मतलब धीरे-धीरे बाहर किए जाना है।

हालांकि अंतिम क्षणों में स्विट्जरलैंड और यूरोपीय संघ समेत कई देशों का नामर्जी के बाद किसी तरह अंतिम मसौदे में भारत के इन बदलावों को शामिल कर लिया गया। फिर भी आलोक वर्मा ने मसौदे को हल्का बनाने के लिए बाकी देशों से माफी भी मागी और उन्हें भरोसा दिलाया कि वह इसे संभव बनाएंगे।

सम्मेलन में विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों की मदद के लिए तैयार किए जाने वाला ‘अनुकूलन कोष’ एक बार फिर मुद्दा बना। जीसीपी ने इसके लिए गहरा दुख प्रकट किया कि 2020 तक हर साल गरीब देशों को सौ अरब डॉलर दिए जाने का वादा पूरा नहीं किया गया।

जीसीपी ने कहा: ‘विकसित देशों से आग्रह है कि वे सौ अरब डॉलर तत्काल जारी करें और अपने वादों के कार्यान्वयन में पारदर्शिता के महत्व पर जोर दें। ’

अंत में, जीसीपी ने वित्तीय संसाधनों का लक्ष्य हासिल करने के लिए, विकसित देशों से 2025 तक उनके ‘अनुकूलन कोष’ के बजट को 2019 के स्तर से दोगुना करने आग्रह किया, जिससे विकासशील देश जलवायु परिवर्तन के समझौते का पालन करने के लिए जरूरी कदम उठा सकें।

कॉप -26 की अन्य उपलब्धियां
मुख्य समझौते के अलावा कॉप- 26 में कई अन्य संकल्प- पत्र भी पेश किए गए। ये हैं -
वनोन्मूलन रोकने के लिए: धरती के वनों का 85 फीसद हिस्सा घेरने वाले 105 देशों ने वनों और भूमि के उपयोग को लेकर एक महत्वूपण्र समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसमें इन देशों ने वादा किया कि वे 2030 तक वनोन्मूलन और भूमि के क्षरण को रोकने की दिशा में मिलकर काम करेंगे। यह संकल्प-पत्र, कॉप- 26 की एक बड़ी उपलब्धि माना गया।
यह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ समुदायों के वन-आधारित अस्तित्व को बनाए रखने के लिए पोषित किया जाने वाला संकल्प-पत्र है, जिसमें दुनिया की लगभग 25 फीसदी आबादी शामिल है।
वन, हर साल जीवाश्म ईंधन के जलने से निकलने वाली वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड का लगभग एक तिहाई हिस्सा अवशोषित करते हैं। लेकिन हम इन कार्बन सोंकने वाले वनों को हर मिनट 27 फुटबॉल पिचों के आकार के बराबर क्षेत्र की दर से खो रहे हैं।

मीथेन का उत्सर्जन घटाने के लिए: कम समय तक जीवित रहने वाले प्रदूषक के तौर मीथेन, हाल के समय में ऐसी गैस के तौर पर उभरी है, जिसका उत्सर्जन कम करके धरती को पूर्व- औद्योगिक स्तर से ज्यादा गरम होने से रोका जा सके। कुछ साल पहले तक वैश्विक जलवायु वार्ताओं में सारा जोर कॉर्बन का उत्सर्जन कम पर रहता था और मीथेन को महत्व नहीं दिया जाता था।
दो नवंबर 2021 को जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के तहत चल रहा कॉप-26, हाल के समय में मीथेन की भूमिका को रेखांकित करना वाला पहला  कार्यक्रम बना।
इस दिन संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और यूरोपीय संघ के नेतृत्व में 105 देशों ने एक स्वैच्छिक और गैर-बाध्यकारी वैश्विक मीथेन संकल्प-पत्र पर हस्ताक्षर किए। इसमें उन्होंने वादा किया कि वे 2030 तक मीथेन के उत्सर्जन में तीस फीसदी की कमी करेंगे।
 
जलवायु के प्रति लचीली स्वास्थ्य प्रणाली: कॉप-26 में 47 देशों के एक समूह ने जलवायु के प्रति लचीली और कम कॉर्बन वाली स्वास्थ्य प्रणाली विकसित करने का संकल्प लिया। यह संकल्प सम्मेलन के उस स्वास्थ्य कार्यक्रम का हिस्सा था, जिसे कॉप-26 के अध्यक्ष के तौर पर यूनाईटेड किंगडम सरकार, विश्व स्वास्थ्य संगठन, हेल्थ केयर विदाउट हार्म और जलवायु के महारथी यूएनएफसीसीसी का समर्थन हासिल है।