जलवायु

कॉप-26: काफी नहीं है राष्ट्रीय निर्धारित योगदान, पैसे की कमी से प्रगति में रुकावट

यूएनएफसीसीसी ने राष्ट्रीय निर्धारित योगदान यानी एनडीसी सिंथेसिस रिपोर्ट जारी की

Avantika Goswami

ग्लासगो  में 26वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, जिसे संक्षेप में कॉप-26 के नाम से जाना जाता है, शुरू होने में अब तीन दिन बाकी हैं। उससे पहले जारी दो रिपोर्टों में बताया गया है कि दुनिया का तापमान बढ़ने से रोकने के लिए तैयार किए पेरिस समझौते का लक्ष्य हासिल करने में तमाम देशों के प्रयास नाकाफी है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के लिए किए जा रहे आर्थिक उपाय भी निराशाजनक हैं।

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) की एक दिन पहले राष्ट्रीय निर्धारित योगदान यानी एनडीसी सिंथेसिस रिपोर्ट में यह जानकारी सामने आई। रिपोर्ट परिष्कृत एनडीसी का मूल्यांकन करती है।

इसका पहला हिस्सा इसी साल फरवरी में प्रकाशित हुआ था और पूरी रिपोर्ट पिछले महीने तैयार हुई थी। नई रिपोर्ट, जो सितंबर की रिपोर्ट का संशोधित अंक है, में 12 अक्टूबर 2021 तक के राष्ट्रीय निर्धारित योगदान यानी एनडीसी को शामिल किया गया है।

रिपोर्ट इसकी तस्दीक करती है कि साल 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन साल 2010 की तुलना में 16 गुना ज्यादा होगा। कुल मिलाकर 2030 तक सारे एनडीसी का ग्रीनहाउस गैस-उत्सर्जन 54.9 गीगाटन होने का अनुमान लगाया है, जो इतनी ही कार्बन डाइऑसाइड की मात्रा के बराबर होगा।

रिपोर्ट के मुताबिक, इससे सारे एनडीसी मिलकर दुनिया का तापमान 2.7 डिग्री बढ़ा देंगे।  

संयुक्त राष्ट्र की विज्ञान शाखा, जलवायु-परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल यानी आईपीसीसी का निर्देश है कि इसी अवधि में उत्सर्जन का 45 फीसदी कम किया जाए। इसका मकसद वैश्विक तापमान की सीमा 1.5 डिग्री सेल्सियस तय करना और जलवायु परिवर्तन से होने वाले विनाशकारी दुष्प्रभावों को रोकना है।

रिपोर्ट में यूएनएफसीसीसी को भेजे गए 116 एनडीसी का विश्लेषण किया गया है। इसमें दावा किया गया है कि 2010 की तुलना में 2030 में नौ फीसद कम ग्रीनहाउस गैस  उत्सर्जन होगा।

भारत समेत कई विकासशील देशों ने राष्ट्रीय निर्धारित योगदान यानी एनडीसी के लिए अपने ‘अनुकूल’ लक्ष्य तय किए हैं। ये लक्ष्य ऐसे हैं, जो तभी हासिल किए जा सकते हैं, जब ये देश अपने उपलब्ध आर्थिक व तकनीक संसाधनों और अन्य क्षमताओं का समुचित उपयोग करें। रिपोर्ट के मुताबिक, अगर ये देश ऐसा नहीं करते तो ग्रीनहाउस गैस-उत्सर्जन 2030 से पहले ही अधिकतम सीमा तक पहुंच सकता है।

आर्थिक मोर्चे पर निराशाजनक स्थिति
दूसरी ओर आर्थिक मोर्चे पर भी स्थिति निराशाजनक है। पेरिस समझौते के अनुसार, 2015 से 2025 तक हर साल जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देशों की ओर से विकासशील देशों को 100 बिलियन डालर ट्रांसफर किए जाने थे, यह राशि इसके बाद बढ़नी भी थी।

आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) ने अमीर देशों से मिले आंकड़ों से पाया कि 2018 में महज 78 बिलियन डालर विकासशील देशों को दिए।

हालांकि कल्याणकारी संगठन ऑक्सफैम की पिछली क्लाईमेट शैडो रिपोर्ट, 2020 के आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। इसने पाया कि 2017-18 में यह राशि 19 से 22.5 बिलियन डालर के बीच ही थी, जो ओईसीडी के आकलन से लगभग तीन गुना कम है।

एक दिन पहले कनाडा और जर्मनी के पर्यावरण मंत्रियों ने जलवायु के लिए अपने-अपने आर्थिक सहयोग का खाका पेश किया। जिसमें पाया गया कि विकसित 100 बिलियन डालर का लक्ष्य 2021, 2022 और 2023 में भी नहीं पूरा नहीं कर पाएंगे।

हालांकि उन्होंने यह उम्मीद जताई कि उसके बाद वे 2025 तक हर साल निर्धारति योगदान दे पाएंगे। उनके मुताबिक, इसके लिए उन्होंने लोगों और अन्य बहुस्तरीय आर्थिक सहयोग का सहारा लेना होगा।

जाहिर है कि यह विकसित देशों की नाकामी है, जिससे ग्लासगो के सम्मेलन में विकासशील देशों का नाराज होना स्वाभाविक है। यूएनएफसीसीसी के तहत वित्तीय संबंधी स्थायी समिति ने पाया कि विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन की दिशा में 2030 तक प्रभावी तरीके से कदम उठाने के लिए 5.8 से लेकर 5.9 ट्रिलियन डालर की जरूरत है।

यह उनके एनडीसी में सूचीबद्ध जलवायु-परिवर्तन के कामों के आधे से भी कम को वित्तपोषित करने और ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रण में रखने के लिए होगा।

इस तरह 100 बिलियन डॉलर की रकम, विकासशील दुनिया की वास्तविक जरूरतों का प्रतिबिंब नहीं है। यह विकासशील देशों के लिए एक ‘जलवायु कर्ज-जाल’ का जोखिम भी पैदा करता है, जैसा कि गार्जियन अखबार में एक अज्ञात वार्ताकार ने लिखा भी है।

यह इसलिए है क्योंकि पिछले सालों में विकासशील देशों को मिली राशि का ज्यादा हिस्सा, अनुदान की बजाय कर्ज के रूप में दिया गया है।
गौरतलब है कि 26वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, ग्लासगो में 31 अक्टूबर से शुरू हो रहा है।