जलवायु

जलवायु आपातकाल, कॉप-25: विकसित देशों ने पहले ही खत्म कर दिया अपने हिस्से का कार्बन बजट

भारत और अफ्रीका को मिला है अपने हिस्से से कम कार्बन स्पेस, जबकि चीन अपने बजट से कहीं अधिक कार्बन उत्सर्जन कर रहा है

Tarun Gopalakrishnan, Kapil Subramanian, Lalit Maurya

वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन की जो सीमा निर्धारित की गयी है, उसके अनुसार दुनिया का कार्बन बजट सीमित है। आज अगर वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इस सदी के अंत तक यदि तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखना चाहते हैं, तो आंकड़ें दिखते हैं कि कार्बन बजट का 80 फीसदी हिस्सा पहले ही समाप्त हो चुका है। जिसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ कि दुनिया के पास कुल कार्बन बजट का सिर्फ 20 फीसदी हिस्सा ही बचा है। और यदि इससे अधिक कार्बन उत्सर्जन किया जाएगा तो तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना नामुमकिन हो जाएगा। जिसके कारण बाढ़, सूखा जैसे विनाशकारी परिणाम सामने आएंगे और यदि 1850 से देखें तो अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन किया है जबकि चीन भी अब उसी जमात में शामिल हो चुका है

कार्बन बजट के उपभोग को देखें तो इसमें काफी असमानता हैं और वो न्यायसंगत भी नहीं है। वर्ष 2018 में वैश्विक आबादी का केवल 4.3 फीसदी हिस्सा अमेरिका में बसता है। जबकि वो 1850 से अबतक हुए कुल उत्सर्जन के 25 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेदार है। वहीं यूरोपियन यूनियन को देखें तो वहां 6.8 फीसदी आबादी रहती है, जबकि उसने 18.4 फीसदी कार्बन उत्सर्जित किया है। भारत में जहां दुनिया की 17.8 फीसदी जनसंख्या रहती है, उसकी वैश्विक उत्सर्जन में हिस्सेदारी केवल 2.8 फीसदी की है। जबकि चीन जहां 18.3 फीसदी आबादी बसती है, वो 10.7 फीसदी उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। हालांकि विकासशील देशों की भी कार्बन बजट और उत्सर्जन में हिस्सेदारी बढ़ रही है, पर इसके बावजूद कार्बन बजट के बंटवारे में जो असमानता है, उसके भविष्य में भी रहने के पूरे आसार हैं। यदि राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन के लिए निर्धारित हिस्सेदारी या एनडीसी की तय सीमा को देखें, तो सबसे मौजूदा सेट 1850 से 2030 के बीच भी अमीर और गरीब देशों में काफी असमानता है। गौरतलब है कि एनडीसी में पेरिस समझौते के तहत जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए देशों द्वारा की जा रही कार्रवाई का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। जोकि स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि वैश्विक कार्बन बजट की हिस्सेदारी पूरी तरह अनुपातहीन है।

2030 में भारत की वैश्विक उत्सर्जन में हिस्सेदारी सिर्फ 4.1 फीसदी होगी 

यदि भविष्य के लिए किये गए आंकलन पर नजर डालें तो 2030 में अमेरिका की आबादी, वैश्विक जनसंख्या की 5 फीसदी होगी। जबकि उसकी कुल उत्सर्जन में हिस्सेदारी 17.7 फीसदी से भी अधिक होगी। वहीं तुलनात्मक रूप से भारत को देखें तो उसकी आबादी वैश्विक जनसंख्या की लगभग 18 फीसदी होगी, पर उसकी उत्सर्जन में हिस्सेदारी केवल 4.1 फीसदी होगी। यदि ऐतिहासिक उत्सर्जन को अलग रख कर देखें तो भी वर्तमान और भविष्य में यह जलवायु असमानता एक नई वास्तविकता का सामना करेगी। आज चीन जो तेजी से विकसित हो रहा है। उसकी 1850 से 2030 के बीच होने वाले उत्सर्जन में हिस्सेदारी 16.7 फीसदी हो जाएगी। जोकि अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के सामान ही होगी। और अगर ये ट्रेंड जारी रहता है तो भारत और अफ्रीका के लिए छोड़ा गया कार्बन स्पेस नगण्य हो जाएगा।