जलवायु

जलवायु संकट: अनुमान से 21 फीसदी अधिक बर्फ खो चुका है ग्रीनलैंड, मौसम पर पड़ सकता है असर

1985 से 2022 के बीच इस खोई बर्फ की कुल मात्रा को देखें तो वो एक लाख करोड़ मीट्रिक टन से ज्यादा है

Lalit Maurya

नासा की जेट प्रोपल्शन प्रयोगशाला से जुड़े शोधकर्ताओं ने खुलासा किया है कि पिछले चार दशकों में जितना सोचा गया था, ग्रीनलैंड उससे 21 फीसदी ज्यादा बर्फ खो चुका है। 1985 से 2022 के बीच खोई इस बर्फ की कुल मात्रा को देखें तो वो एक लाख करोड़ मीट्रिक टन से ज्यादा है।

हमें यह समझना होगा कि ग्रीनलैंड के ग्लेशियरों का बनना बिगड़ना एक प्राकृतिक चक्र से जुड़ा है जो लम्बे समय से चला आ रहा है। आमतौर पर ग्लेशियर सर्दियों में बढ़ते हैं और फिर गर्मियों में बर्फ के पिघलने से सिकुड़ जाते हैं, जिससे संतुलन बना रहता है। हालांकि, नए अध्ययन से पता चला है कि 21वीं सदी में इस बर्फ का पिघलना और ग्लेशियरों का पीछे हटना इसके बढ़ने की तुलना में कहीं ज्यादा तेज हो गया है, जिससे यह संतुलन बिगड़ रहा है।

उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण में सामने आया है कि ग्रीनलैंड में मौजूद ज्यादातर ग्लेशियर बहुत पीछे हट गए हैं और हिमखंड तेजी से समुद्र में गिर रहे हैं। हालांकि बर्फ को हुए इस अतिरिक्त नुकसान से सीधे तौर पर समुद्र के बढ़ते जल स्तर पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा है, लेकिन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह भविष्य में समुद्री धाराओं  को प्रभावित कर सकता है।

गौरतलब  है कि पिछले कई दशकों से वैज्ञानिक ग्रीनलैंड में पिघलती बर्फ पर नजरे जमाए हैं। साथ ही इसकी वजह से समुद्र के जल स्तर में कितनी वृद्धि हो रही है उसका भी आंकलन कर रहे हैं। इंटरनेशनल आइस शीट मास बैलेंस इंटर-कंपेरिजन एक्सरसाइज (आईएमबीआईइ) से जुड़े वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 1992 से 2020 के बीच ग्रीनलैंड में जमा बर्फ की चादर करीब 539,000 करोड़ टन बर्फ खो चुकी है। जलवायु परिवर्तन पर बनाए अंतर सरकारी पैनल (आईपीसी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक इसकी वजह से समुद्र के औसत जल स्तर में करीब 13.5 मिलीमीटर की वृद्धि हुई है।

लेकिन इस नए अध्ययन के मुताबिक आईएमबीआईइ द्वारा किए आंकलन में उस बर्फ शामिल नहीं किया गया है जो ग्रीनलैंड में ग्लेशियरों के किनारे के पीछे हटने से पिघली थी। शोधकर्ताओं ने अपने इस नए अध्ययन में खोई हुई इसी बर्फ की मात्रा का आंकलन किया है। बता दें कि ये किनारे पहले ही पानी के अंदर तैर रहे थे।

बता दें कि इस अध्ययन में 1985 से 2022 के बीच ग्रीनलैंड में जमा बर्फ की चादर के किनारों के पीछे हटने के सन्दर्भ में विस्तृत जांच की गई है। इसके मुताबिक अध्ययन में शामिल 207 में से 179 ग्लेशियर 1985 के बाद से काफी पीछे हट गए हैं, जबकि 27 स्थिर हैं वहीं एक ग्लेशियर के किनारे थोड़ा आगे बढ़ गए हैं।

आंकड़ों से पता चला है कि इस दौरान पूर्वोत्तर ग्रीनलैंड में जाचरिया इस्स्ट्रॉम नामक ग्लेशियर ने सबसे ज्यादा बर्फ खोई है, जिसके पीछे हटने से बर्फ में 17,600 करोड़ टन की कमी आई है। इसके बाद पश्चिमी तट पर मौजूद जैकबशैवन इसब्रे को सबसे ज्याद नुकसान पहुंचा है, जिसने करीब 9700 करोड़ टन बर्फ खोई है। इसके बाद उत्तर पश्चिम में हम्बोल्ट ग्लेचर का नंबर है जिसने इन चार दशकों में 9,600 करोड़ टन बर्फ को खो दिया है।

वहीं इस दौरान दक्षिणी ग्रीनलैंड के केवल एक ग्लेशियर, कजुउत्ताप सेर्मिया में इस दौरन वृद्धि दर्ज की गई है, लेकिन उसमें हुई वृद्धि दूसरे ग्लेशियरों को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए बेहद कम है।

वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि जो ग्लेशियर पूरे सीजन में सबसे बड़ा बदलाव दर्शाते हैं, वे कुल मिलाकर सबसे अधिक पिघलते हैं। ऐसे में वैज्ञानिकों के मुताबिक जो ग्लेशियर हर गर्मियों में बढ़ते तापमान के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं, वे आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित होंगे।

जर्नल नेचर में 17 जनवरी 2024 को प्रकाशित इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक 1985 से 2022 के बीच इन ग्लेशियरों के पीछे हटने से 114,000 करोड़ टन बर्फ में कमी आई है। ऐसे में यदि इस मात्रा को पिछले अनुमानों में जोड़ दिया जाए तो वो 21.2 फीसदी अधिक बर्फ खोने की पुष्टि करते हैं।

ग्रीनलैंड हर घंटे खो रहा है तीन करोड़ टन बर्फ

वहीं अंग्रेजी अखबार गार्डियन ने ग्रीनलैंड में पिघलती बर्फ का जिक्र करते हुए लिखा है कि ग्रीनलैंड हर घंटे करीब तीन करोड़ टन बर्फ खो रहा है। नवीनतम आंकड़ों से पता चला है कि ग्रीनलैंड में 2003 के बाद से हर साल 22,100 करोड़ टन बर्फ पिघल रही है। ऐसे में यदि इस नए अध्ययन में सामने आई सालाना पिघलती 4,300 करोड़ टन बर्फ को और जोड़ दिया जाए तो होने वाला कुल नुकसान हर साल औसतन 26,400 करोड़ टन हो जाता है।

शोध के मुताबिक चूंकि यह बर्फ पहले ही समुद्र में थी, तो इससे भले ही समुद्र के जल स्तर में वृद्धि न हो, लेकिन इसकी वजह से समुद्र में ढेर सारा ताजा पानी जरूर मिल गया है। जो दुनिया के मौसम को प्रभावित जरूर कर सकता है।

यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि यह पिघलती बर्फ वैश्विक मौसम पर किस तरह प्रभाव डालेगी। कुछ अध्ययनों के मुताबिक हिमखंडों के पिघलने से उत्तरी अटलांटिक महासागर के खारेपन में बदलाव आ सकता है, जो अटलांटिक मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन (एएमओसी) को कमजोर कर सकता है।

बता दें कि एएमओसी समुद्री धाराओं की एक विशाल प्रणाली है, जो समुद्र में एक कन्वेयर बेल्ट की तरह काम करती है और गर्मी एवं नमक को चारों और फैलाती है। ऐसे में यदि इस पर असर पड़ता है तो यह वैश्विक स्तर पर मौसम और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को भी प्रभावित कर सकता है।

शोधकर्ताओं को यह भी पता चला है कि ग्रीनलैंड में जमा यह बर्फ का आवरण 1985 से 2000 तक करीब-करीब स्थिर था। इसके बाद, यह उल्लेखनीय रूप से सिकुड़ने लगा और यह प्रवृत्ति आज भी जारी है।

गौरतलब है कि डेनिश शोधकर्ताओं ने फरवरी 2022 में जो आंकड़े साझा किए थे उनसे पता चला है कि अप्रैल 2002 से अगस्त 2021 तक ग्रीनलैंड में जमा करीब 4.7 लाख करोड़ टन बर्फ पिघल चुकी है, जो पूरे अमेरिका को आधा मीटर पानी में डुबोने के लिए पर्याप्त है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए वैश्विक तापमान में होती वृद्धि और जलवायु में आते बदलावों को मुख्य रूप से जिम्मेवार माना है।

वहीं इससे पहले यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि 90 के दशक में जहां ग्रीनलैंड में जमा बर्फ 3,300 करोड़ टन प्रति वर्ष की दर से पिघल रही थी, वो दर पिछले एक दशक में बढ़कर 25,400 करोड़ टन प्रति वर्ष हो गई है। जिसका मतलब है कि पिछले तीन दशकों में इसके पिघलने की दर में सात गुना वृद्धि हो चुकी है।

2011 में नुकसान की यह दर करीब 33,500 करोड़ टन प्रति वर्ष तक पहुंच गई थी। यह खतरा कितना बढ़ा है इसका अंदाजा आप यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स में प्रोफेसर एंड्रयू शेफर्ड द्वारा दी जानकारी से लगा सकते हैं, जिनके मुताबिक समुद्र तल में होने वाली हर सेंटीमीटर की वृद्धि से और 60 लाख लोगों पर तटीय बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा।