जलवायु

जलवायु संकट-3: पूर्वाेत्तर भारत में मंडरा रहा है बड़ा खतरा

जलवायु परिवर्तन ने भारत में जैव विविधता से भरे-पूरे पूर्वोत्तर राज्यों को कम होती मॉनसूनी बारिश और अचानक आने वाली बाढ़ के खतरे में डाल दिया है

Akshit Sangomla

9 अगस्त को जारी हुई संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) रिपोर्ट बेहद चौंकाने वाली है। इस रिपोर्ट से यह साफ हो गया है कि मौसम में आ रहे भयावह परिवर्तन के लिए न केवल इंसान दोषी है, बल्कि यही परिवर्तन इंसान के विनाश का भी कारण बनने वाला है। मासिक पत्रिका डाउन टू अर्थ, हिंदी ने अपने सितंबर 2021 में जलवायु परिवर्तन पर विशेषांक निकाला था। इस विशेषांक की प्रमुख स्टोरीज को वेब पर प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी और दूसरी कड़ी के बाद पढें. तीसरी कड़ी। डाउन टू अर्थ संवाददाता अक्षित संगोमला ने पूर्वोत्तर के आठ में से तीन राज्यों का दौरा किया और जिला स्तर पर वर्षा वितरण के नए व बदले व्यवहार का विश्लेषण किया

पिछले ही महीने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक ऐसी जगह पर व्यापक वनीकरण अभियान की शुरुआत की है जहां ऐसे किसी कार्यक्रम की शायद आप कल्पना भी न करें। यह जगह है मेघालय का चेरापूंजी शहर। यह वही स्थान है जिसे कुछ दशक पहले ही पृथ्वी पर सबसे ज्यादा वर्षा क्षेत्र होने का खिताब मिला था। गृह मंत्री को ऐसा लगता है कि वनीकरण अभियान से चेरापूंजी की बिगड़ी पारिस्थितिकी और गर्मी के मौसम में पैदा होने वाले जल संकट की समस्या का बेहतर समाधान हो सकता है। सर्वाधिक वर्षा क्षेत्र वाले चेरापूंजी में जलसंकट दरअसल एक बड़ी समस्या का सिरा भर है।

मेघालय और शेष पूर्वोत्तर में मॉनसून में होने वाली वर्षा की मात्रा घट रही है। इस क्षेत्र में पूरे साल का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा पानी मॉनसून के दौरान घट जाता है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार, वर्ष 2001 और 2021 के बीच कुल 21 में से 19 वर्षों में इस क्षेत्र में सामान्य से कम वर्षा दर्ज की गई। सबसे हालिया “सामान्य” मॉनसून 13 साल के लंबे अंतराल के बाद 2020 में आया।

आईएमडी के मुताबिक, इस साल भी जब अधिकांश भारत सामान्य मॉनसून का आनंद ले रहा है, पूर्वोत्तर एक बार फिर वर्षा जल की कमी से जूझ रहा है। 5 अगस्त, 2021 तक मणिपुर में 59 प्रतिशत बारिश की कमी दर्ज की गई थी, जो इस क्षेत्र में सबसे अधिक थी। वहीं अरुणाचल प्रदेश में 37 प्रतिशत की कमी थी। मेघालय जिसका शाब्दिक अर्थ “बादलों का निवास” है, वहां सामान्य से 32 प्रतिशत कम बारिश हुई है। इसके अलावा मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और असम में भी सामान्य से कम बारिश हुई है। इस मॉनसून के मौसम में अब तक सिक्किम अकेला पूर्वोत्तर राज्य है जहां सामान्य वर्षा दर्ज की गई है।

यह एक विचलित करने वाला घटनाक्रम है क्योंकि मॉनसून सीजन (जून से सितंबर) के दौरान भारत के अन्य पहाड़ी राज्यों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर में वर्षा होती है लेकिन ग्लेशियर्स में नहीं जो कि पूर्वोत्तर के लिए प्रमुख जल स्रोत हैं।

इस मामले की गंभीरता सिर्फ इससे मापी जा सकती है कि समूचे देश में मॉनसून सीजन में पूर्वोत्तर सर्वाधिक वर्षा हासिल करता है और इसके बावजूद कम मॉनसूनी वर्षा हासिल करने वाले पश्चिमी भारत के मुकाबले मौसमी सूखा यहां होने का जोखिम सर्वाधिक है। आईएमडी की परिभाषा के मुताबिक, मौसम संबंधी सूखा तब उत्पन्न होता है जब किसी क्षेत्र में वास्तविक वर्षा उसके जलवायु माध्य से काफी कम होती है।

दिसंबर, 2015 में करंट साइंस पत्रिका में प्रकाशित किए गए शोध के मुताबिक, वर्ष 2000 से 2014 के बीच पूर्वोत्तर में मौसम संबंधी सूखे की संभावना 54 प्रतिशत थी, जबकि इसके विपरीत राजस्थान और गुजरात के सौराष्ट्र व कच्छ क्षेत्र को शामिल करते हुए पश्चिमी भारत में यह संभावना सिर्फ 27 प्रतिशत थी। वहीं, “पश्चिमी भारत की तुलना में उत्तर पूर्व भारत में अभूतपूर्व सूखा” शीर्षक वाले इस शोध पत्र में कहा गया है कि बार-बार सूखे से कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और हमारे परिणाम असम में सूखे वर्ष 2005-06 और 2009 के दौरान एक नकारात्मक चावल उत्पादन की विसंगति दिखाते हैं। वहीं, वर्ष 2010-11 के दौरान एनईआर (पूर्वोत्तर क्षेत्रों) में अन्य राज्यों से भी सूखा प्रभाव की सूचना मिली थी।

समस्या यहीं खत्म नहीं होती है। जब डाउन टू अर्थ ने 1981 और 2018 के बीच के तीन दशकों में पूर्वोत्तर राज्यों के लिए आईएमडी के मॉनसून के आंकड़ों का विश्लेषण किया तो इसमें सूक्ष्म अंतर पाया गया जो यह बताता है कि चीजें उतनी सीधी-सीधी नहीं हैं जितनी वे पहली नजर में दिखती हैं (देखें, बदलाव की प्रवृत्ति,)। वहीं, जिन आठ पूर्वोत्तर राज्यों में से छह ने इस अवधि के दौरान मॉनसून की बारिश में कमी की प्रवृत्ति दर्ज की है उनमें असम के कुछ जिले भी शामिल हैं, जहां वर्षा कम होने के साथ ही बाढ़ में वृद्धि देखी गई है। पूर्वोत्तर में पहले की तुलना में कम बारिश हो रही है। एक और चुनौती यह है कि खासतौर से जुलाई और अगस्त का महीना जब अधिकांश राज्यों में भारी बारिश होती है, वहां लगभग सभी राज्यों में मॉनसूनी बारिश बेहद अविश्वसनीय हो जाती है। डाउन टू अर्थ ने इस अजीब घटनाक्रम के तीन पहलुओं का विश्लेषण किया। इसमें तीन घटक शामिल हैं। पहला है राज्य में समग्र मॉनसून वर्षा, दूसरा घटक है महीने में होने वाला वर्षा बदलाव और तीसरा घटक जिले स्तर का वर्षा संबंधी आंकड़ा है। जिलों के भीतर मॉनसून अवधि के दौरान कुल वर्षा में बदलाव का विश्लेषण किया गया है। साथ ही एक दिन में 2.5 मिलीमीटर या उससे अधिक वर्षा मात्रा व 64.5 से लेकर 124.4 मिलीमीटर भारी वर्षा मात्रा के आधार पर वर्षा दिनों की गिनती की गई है। वहीं, 2019-2020 के वर्षा आंकड़ों को अध्ययन भी अलग से किया गया है क्योंकि इन वर्षों के विस्तृत आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।



अरुणाचल प्रदेश
अधिकांश जिलों में वर्षा में काफी वृद्धि या कमी दर्ज की गई है

इस पर्वतीय राज्य का 82 प्रतिशत भू-भाग वन क्षेत्र है, जिसमें मॉनसून की कुल बारिश में कमी होने की एक प्रवृत्ति दिखाई देती है। जिला-स्तरीय विश्लेषण इस संबंध में कई खतरनाक बदलाव प्रदर्शित करते हैं। मिसाल के लिए, इन क्षेत्रों में अधिकांश जिलों में अब उतनी बारिश नहीं होती जितनी पहले यानी पारंपरिक रूप से होती थी। यदि ऊपरी सियांग और ऊपरी सुबनसिरी जिले को छोड़ दें, जहां वर्षा बढ़ी है तो शेष अन्य आठ जिलों ने मॉनसून की कुल बारिश में बड़ी कमी दर्ज की गई है।

अरुणाचल प्रदेश का ऊपरी सियांग जिला सियांग नदी का प्रारंभिक बिंदु है जो ब्रह्मपुत्र की सबसे बड़ी सहायक नदी है। वहीं, ऊपरी सुबनसिरी जिला सुबनसिरी नदी का घर है, जो ब्रह्मपुत्र की एक अन्य प्रमुख सहायक नदी है। इन दोनों जिलों में वर्षा में वृद्धि के साथ-साथ, ऊपरी सियांग में 95 प्रतिशत से अधिक निगरानी स्टेशनों पर वर्षा के दिनों की संख्या में कमी दर्ज की गई है, जिसके कारण यही दोनों जिले कम समय में अत्यधिक वर्षा के कारण असम में नीचे की ओर बाढ़ का कारण बनते हैं। एक तरफ बाढ़ है तो दूसरी तरफ राज्य के अन्य जिले सूखे की मार झेल रहे हैं। केमांग के पूर्वी और पश्चिमी भाग में पहाड़ी झरने सूख रहे हैं। इसके कारण वहां बसने वाले गांवों को पानी नहीं मिल रहा। यह पहाड़ी झरने ग्रामीणों के प्राथमिक जल स्रोत हैं।

अरुणाचल में प्रत्येक वर्ष मॉनसून सीजन में वर्षा की मात्रा में करीब 21 फीसदी का अंतर या उतार-चढ़ाव पैदा हुआ है। जुलाई माह में यह अंतर बढ़कर 31 प्रतिशत हो जाता है, जो राज्य में सबसे गर्म मॉनसूनी महीना है। वहीं, 2019 और 2020 में, राज्य में बड़े पैमाने पर सामान्य वर्षा हुई है।

असम
ब्रह्मपुत्र के उत्तर के जिलों में वर्षा में मामूली वृद्धि

असम पूर्वोत्तर के सबसे समतल इलाकों में से एक है और इसके कुछ भू-भाग में भी पिछले दशकों में मॉनसून की बारिश में कमी दर्ज की गई है, हालांकि यह गिरावट अरुणाचल प्रदेश की तरह नहीं है। असम को तीन अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में बांटा गया है। उत्तर में हिमालय की तलहटी में ब्रह्मपुत्र नदी घाटी है और दक्षिण में बराक नदी घाटी है। दो घाटियों के बीच में कार्बी आंगलोंग और कछार पहाड़ियां हैं।

ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तर में बारपेटा, सोनितपुर, लखीमपुर और नलबाड़ी जैसे अधिकांश जिलों में वर्षा में वृद्धि की प्रवृत्ति दिखाई देती है, हालांकि यह वृद्धि अहम नहीं है। अधिक चिंताजनक बात यह है कि ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियों की मेजबानी करने वाले इन जिलों में बारिश के दिनों की संख्या में बड़ी कमी देखी गई है। इसका मतलब है कि इन जिलों में बारिश कम दिनों में हो जाती है, जिससे बारिश की तीव्रता बढ़ जाती है। यह नदी के दक्षिण के जिलों में तबाही का कारण बनता है, भले ही उन्होंने मॉनसून की वर्षा में कमी दर्ज की हो। मिसाल के तौर पर इसका असर गोलाघाट जिले में साफ देखा जा सकता है, जहां काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान है। नागालैंड के वोखा जिले से बहने वाली दोयांग नदी के उफान से यह क्षेत्र बाढ़ की चपेट में आ जाता है। हालांकि, पिछले दो वर्षों में, राज्य में कुल वर्षा सामान्य रही है।

नागालैंड
वर्षा हासिल करने वाले पारंपरिक जिलों में पसर रहा सूखा

पहाड़ी राज्यों में पहले से ही कुल सूखे की प्रवृत्ति दर्ज की जा रही है ऐसे में एक और अहम और विसंगति भरा बदलाव भी साथ-साथ हो रहा है। राज्य के उत्तर, पूर्व और दक्षिण-पश्चिम में बसे जिले जहां पारंपरिक तौर पर वर्षा अच्छी होती थी, वहां न सिर्फ मॉनसूनी वर्षा कम हुई है बल्कि दक्षिणी हिस्से में जिले सूखे के चपेट में आ रहे हैं। यहां तक कि अरुणचाल प्रदेश से बिल्कुल भिन्न परिस्थिति वाले इस राज्य में चार प्रमुख नदियां और दर्जनों छोटी नदियां बहती हैं, इसके बावजूद यह क्षेत्र पारंपरिक तौर पर बाढ़ प्रवण नहीं है। इसकी वजह है यहां मॉनसून सीजन में थोड़े बदलाव का होना जो इस इलाके को चोट पहुंचा रहा है।

राज्य में 68 प्रतिशत बारिश मॉनसून में होती है। पिछले तीन दशकों में लगभग 25 प्रतिशत परिवर्तनशीलता के साथ यह अत्यधिक अप्रत्याशित हो चुकी है। 2019 में पूरे मॉनसून का मौसम सामान्य था, हालांकि 11 में से छह जिलों में वर्षा में कमी का अनुभव किया गया। 2020 में, नागालैंड उन कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में से एक था जहां समग्र कमी (सामान्य से 29 प्रतिशत कम) का अनुभव हुआ।

सिक्किम
पूर्वोत्तर के दो राज्यों में से एक में कुल वर्षा में गिरावट नहीं हुई

पिछले तीन दशकों में कुल मॉनसून वर्षा में मामूली वृद्धि हुई है। वहीं, राज्य का तीन-चौथाई हिस्सा धीरे-धीरे सूख रहा है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि भारत के दूसरे सबसे छोटे राज्य की स्थलाकृति और ऊंचाई के कारण यहां की जलवायु जगह-जगह बदलती रहती है। राज्य का उत्तरी क्षेत्र ऊंचे पहाड़ों से आच्छादित है जबकि दक्षिणी क्षेत्र मुख्य रूप से मैदानी इलाकों से बना है जो पश्चिम बंगाल से मिलता है। उत्तरी सिक्किम में मॉनसून की ऊपर जाती प्रवृत्ति सबसे प्रमुख है, जिससे तीस्ता नदी की बाढ़ में वृद्धि हो सकती है। इसके कारण दक्षिण सिक्किम में विशेष रूप से गंगटोक शहर के आसपास 1997 से भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि दर्ज की गई है। राज्य में 2019 (सामान्य से 22 प्रतिशत अधिक) और 2020 (सामान्य से 61 प्रतिशत अधिक) में सरप्लस मॉनसूनी वर्षा दर्ज की गई है।

मिजोरम
मॉनसून वर्षा में मामूली वृद्धि वाला दूसरा पूर्वोत्तर राज्य

पूर्वोत्तर में घुमावदार पहाड़ियों, नदियों और घाटियों की भूमि वाला मिजोरम वह राज्य है जहां 1989 और 2018 के बीच समग्र मॉनसून वर्षा में मामूली वृद्धि देखी गई है। आठ जिलों में चार ऐसे जिले हैं जहां मॉनसूनी वर्षा में मामूली वृद्धि हुई है और चार ऐसे जिले हैं जहां मॉनसूनी वर्षा में मामूली गिरावट हुई है।

राज्य में तीन सबसे अधिक बारिश वाले जिलों में केंद्र में स्थित लुंगलेई, उत्तर में कोलासिब और दक्षिण में सैहा है। इन तीन जिलों में बारिश के दिनों की संख्या में बड़ी गिरावट और भारी वर्षा वाले दिनों में वृद्धि के साथ-साथ कुल वर्षा में थोड़ी वृद्धि दर्ज की गई है। इससे स्पष्ट तौर पर पता चलता है कि अल्प समय में भारी वर्षा वाले दिनों में बढ़ोतरी हुई है। हालांकि, 2019 में मिजोरम में मॉनसून सामान्य रहा है। साल के अंत में मॉनसून वर्षा में कमी हुई और सात जिले ऐसे रहे जहां सामान्य से 34 फीसदी कम वर्षा दर्ज की गई है।

मेघालय
2005 के बाद से मॉनसून की कमी पुरानी समस्या बनी

पूर्वोत्तर के सबसे नमी वाले राज्य में भी समग्र मॉनसून वर्षा में गिरावट दर्ज की गई है। आईएमडी के आंकड़ों से पता चलता है कि 2005 के बाद बारिश का कम होना एक पुरानी समस्या बन गई। यहां के तीन जिलों में बारिश में मामूली बदलाव और चार जिलों में महत्वपूर्ण बदलाव देखा गया है। सबसे अधिक वर्षा प्राप्त करने वाले पूर्वी खासी पहाड़ी जिले में मॉनसूनी वर्षा में मामूली वृद्धि दर्ज की गई है। समतल-शीर्ष पहाड़ियों और कई नदियों की विशेषता वाले जिले में भी बरसात के दिनों में बड़ी कमी देखी गई है। राज्य में मॉनसूनी वर्षा में सबसे अधिक अंतर लगभग 25 फीसदी है। जुलाई में जब मॉनसून की भारी बारिश होती है यह 40 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। 2019 में सामान्य मॉनसून वर्षा हुई लेकिन साल के अंत में पांच जिलों में सरप्लस (41 प्रतिशत अधिक) वर्षा दर्ज की गई।

त्रिपुरा
एकमात्र पूर्वोत्तर का राज्य जहां बारिश बेहद कम हुई

यह शायद एकमात्र पूर्वोत्तर राज्य है जहां पिछले तीन दशकों में सभी जिलों में मॉनसून की बारिश में कमी देखी गई है, हालांकि यह बदलाव गंभीर नहीं रहा है। इससे राज्य की उन 10 प्रमुख नदियों पर प्रभाव पड़ने की आशंका है जो वर्षा पर निर्भर हैं और प्रकृति में अल्पकालिक हैं। इस लैंडलॉक्ड राज्य में घने जंगलों ऊंची-नीची पहाड़ियां हैं जहां मॉनसून के मौसम में 19 प्रतिशत का कुल अंतर या बदलाव देखा गया है। हालांकि, यह जून में 35 प्रतिशत से अधिक हो जाता है, जब यह सबसे अधिक वर्षा प्राप्त करता है। मॉनसून के महीनों के दौरान अपनी वार्षिक वर्षा का 60 प्रतिशत प्राप्त करने वाले राज्य ने 2019 और 2020 में सामान्य मॉनसून का अनुभव किया।

मणिपुर
बरसात के दिनों की संख्या में बड़ी कमी

पहाड़ी राज्य मणिपुर के लिए आईएमडी ने तीन दशकों (1989- 2018) के लिए समग्र आंकड़ा जारी नहीं किया है। विभिन्न अध्ययनों और डाउन टू अर्थ की पूर्व रिपोर्ट से पता चलता है कि यहां भी मॉनसून की वर्षा में गिरावट देखी गई है। यह चिंता का विषय है क्योंकि मणिपुर अत्यधिक खाद्य असुरक्षित है क्योंकि यहां खेत की कमी है और झूम की आदिम प्रथा चलती है। खेती की यह शैली खाद्य सुरक्षा के नजरिए से अक्षम है। इंफाल में केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के 2016 के एक अध्ययन के अनुसार, राज्य ने 1975 और 1989 के बीच अपनी वार्षिक वर्षा में उल्लेखनीय वृद्धि देखी है। उसके बाद 1990 और 2007 के बीच बारिश में बड़ी कमी आई। 1975 और 2007 के बीच तीन दशकों में 18 हल्के सूखे वर्ष और 1979 एक मध्यम सूखा वर्ष रहा है। देश में 2009 में जिस साल मॉनसून में बड़ी कमी हुई थी, उसी वर्ष राज्य में भीषण सूखा दर्ज किया गया था। आईएमडी के अनुसार, वर्ष 2019 में मणिपुर में मॉनसून के मौसम में 56 प्रतिशत कम बारिश हुई। राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित चंदेल जिले में उस वर्ष 82 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई थी। यह प्रवृत्ति 2020 में जारी रही, जब राज्य में 46 प्रतिशत की कमी बारिश हुई।

एक-दूसरे से जुड़ी समस्याएं अनियमित मॉनसून बाढ़ का कारण बन रहा है और प्राकृतिक झरनों को सूखे की चपेट में ले रहा है। बदलती वर्षा प्रवृत्ति क्षेत्र के पारिस्थितिक स्वास्थ्य पर व्यापक प्रभाव डालती है जो लोगों के जीवन और आजीविका को प्रभावित करता है। इसके अलावा यदि सालाना वर्षा में बढ़ोतरी होती है तो यह नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित कर देता है। इस तरह की प्रवृत्ति ब्रह्मपुत्र की कम से कम दो प्रमुख सहायक नदियों सुबनसिरी और दिबांग में आए बदलावों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इन सहायक नदियों ने हाल के वर्षों में अपने रास्ते में काफी बदलाव किया है, जिससे रास्ते में कई गांव उजड़ गए हैं।

गुवाहाटी स्थित गैर-लाभकारी आरण्यक में वाटर क्लाइमेट एंड हजार्ड प्रोग्राम के प्रमुख पार्थ ज्योति दास कहते हैं “भारी वर्षा के दिनों में वनों से रहित पहाड़ी ढलानों के साथ मिट्टी के कटाव में तेजी आती है। यह नदियों के सतही अपवाह को बढ़ाता है, जिसके परिणामस्वरूप उनका मार्ग बदल जाता है।” नदियों के नए मार्ग दरअसल नदी की पुरा प्राचीन धाराएं हैं जिन्हें नदियों ने सदियों पहले छोड़ दिया और जहां पर लोग बाढ़ से बचने के लिए बस गए। दूसरी ओर, वार्षिक वर्षा में कमी से पहाड़ के झरने सूख जाते हैं। सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग की 2018 की रिपोर्ट से पता चलता है कि इस क्षेत्र में लगभग 200 पर्वतीय झरने पहले ही सूख चुके हैं। सिक्किम के 94 प्रतिशत से अधिक गांव पानी के लिए पहाड़ी झरनों पर निर्भर हैं। रिपोर्ट से पता चलता है कि तीन अन्य राज्यों- मेघालय, मिजोरम और मणिपुर में आधे से अधिक गांवों में पहाड़ के झरने ही प्राथमिक जल स्रोत हैं।

सभी पूर्वोत्तर राज्यों की जलवायु कार्य योजनाएं वर्षा पैटर्न में इस बदलाव की पहचान करती हैं। सभी यह मानती भी हैं कि जलवायु परिवर्तन का यह जोखिम उनके लिए सबसे बड़ा जोखिम है। उदाहरण के लिए ब्रह्मपुत्र के नदी द्वीपों को बार-बार आने वाली बाढ़ के कारण होने वाली बीमारियों के लिए सबसे अधिक संवेदनशील माना गया है। मणिपुर में फसलें भी लगातार खराब हो रही हैं। वहां की जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना में उच्च वर्षा परिवर्तनशीलता और फसलों के लिए पानी की बढ़ती जरूरतों को राज्य की कृषि क्षेत्र की प्रमुख समस्या के तौर पर पहचाना गया है। 2015 की करंट साइंस स्टडी के मुताबिक वर्ष 2005-2006 में असम ने सूखे का अनुभव किया और धुबरी, नलबाड़ी, जोहराट, मोरीगांव और सोनितपुर के सबसे बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों में चावल के उत्पादन पर इसका तत्काल प्रभाव पड़ा। यह क्षेत्र की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित कर सकता है। सूखे के कारण वनस्पति आवरण में गिरावट भी मिट्टी के कटाव को बढ़ाती है और मरुस्थलीकरण का कारण बन सकती है। नवंबर 2018 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा तैयार किए गए भारत के भूमि क्षरण मानचित्र के अनुसार, सबसे खराब भूमि वाले छह राज्यों में से चार पूर्वोत्तर में हैं। जबकि उत्तर प्रदेश और राजस्थान सबसे खराब राज्य हैं जहां 53 प्रतिशत और 52 प्रतिशत भूमि को क्षरित घोषित किया गया है, वहीं नागालैंड 47 प्रतिशत क्षरित भूमि के साथ तीसरे स्थान पर है। मणिपुर, मिजोरम और मेघालय में 38 फीसदी, 35 फीसदी और 28 फीसदी भूमि क्षरित हो गई है।

भूमि के क्षरण का इस क्षेत्र की समृद्ध जैव विविधता पर सीधा प्रभाव पड़ता है। देश में कुल 17,000 फूलों के पौधों में से लगभग 5,000 प्रजातियां पूर्वोत्तर में पाई जाती हैं और उनमें से कई पहले से ही संकट में हैं। अरुणाचल प्रदेश के सिर्फ 15 स्थानों पर ही बेलीथ किंगफिशर पक्षी पाया जाता है, जिनमें से 13 केसांग जिले में हैं। इस पक्षी को खतरे की प्रजातियों की लाल सूची के तहत “खतरे के निकट” के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। इन दिनों यह पक्षी एक दुर्लभ दृश्य है क्योंकि मछलियों की आबादी में गिरावट आई है (देखें, प्रतिकूल जलवायु,)। असम के गोलाघाट जिले में बाढ़ में वृद्धि काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के अंदर वन भूमि को नष्ट कर रही है। गोलाघाट जिले के हल्दीबाड़ी गांव के निवासी रंजीत करमाकर कहते हैं कि इससे आसपास के गांवों पर असर पड़ रहा है और जानवरों के प्राकृतिक प्रवास के रास्ते बाधित हो रहे हैं।


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जलवायु परिवर्तन, खराब विकास हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करता है

जलवायु वैज्ञानिकों ने कुछ समय के लिए सहमति व्यक्त की है कि वर्षा में परिवर्तन जलवायु परिवर्तन के समग्र प्रभाव को निर्धारित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल का कहना है कि प्रत्येक डिग्री तापमान वृद्धि के लिए वातावरण की जल धारण क्षमता लगभग 7 प्रतिशत बढ़ जाती है। यह वर्षा को कैसे प्रभावित करेगा यह अभी कम स्पष्ट है। हालांकि, वैज्ञानिक आश्वस्त हैं कि अतिरिक्त जल वाष्प दुनिया भर में वर्षा और बर्फबारी की प्रवृत्ति को अनिश्चित बना देता है। यहां तक कि आईएमडी मॉनसून को लेकर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं की आवृत्ति और परिमाण में बढ़ती प्रवृत्ति और मॉनसून के दौरान जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक परिवर्तनशीलता के दौरान मध्यम वर्षा की घटनाओं में घटती प्रवृत्ति को बताता है। जनवरी 2021 में आईआईटी खड़गपुर के शोधकर्ताओं ने पूर्वोत्तर क्षेत्र में 1901 से 2019 के बीच वर्षा की प्रवृत्तियों में आ रहे नकारात्मक प्रभावों के लिए भूमि उपयोग में परिवर्तन के साथ भूमध्यरेखीय हिंद महासागर और संबद्ध वायुमंडलीय परिसंचरण प्रवृत्ति में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी गर्मी को जिम्मेदार ठहराया है।

भूमि उपयोग के मामले मे पूर्वोत्तर में विशेष रूप से असम में नाटकीय परिवर्तन हुआ है। असम के ऊपरी क्षेत्र में परिवर्तन निर्माण परियोजनाओं के कारण आया है जो मोटे रेत का उपयोग करते हैं जो आमतौर पर इस क्षेत्र में नहीं पाया जाता है। आईआईटी गुवाहाटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अरूप ज्योति सैकिया कहते हैं, “इस मोटे बालू का अधिकांश भाग ब्रह्मपुत्र द्वारा हर साल नीचे की ओर ले जाया जा रहा है और यह उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी की जगह ले रहा है।” इसका असर असम में पहले से ही देखा जा रहा है जहां चावल के किसान कम उत्पादकता की शिकायत करते हैं। जैसे-जैसे शहरीकरण जारी रहेगा स्थिति और खराब होना तय है। यह मॉनसून की बारिश को और भी अनिश्चित बना देगा। केंद्रीय पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का अनुमान है कि 2030 के अंत तक यह क्षेत्र 1.8 से -2.1 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाएगा। इससे वार्षिक औसत वर्षा में 0.3 से 3 प्रतिशत की वृद्धि होगी। ग्लोबल एंड प्लैनेटरी चेंज में प्रकाशित इस क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करने वाला एक अन्य पेपर भविष्यवाणी करता है कि सदी के अंत तक सालाना 33 मिलीमीटर वर्षा की वृद्धि होगी। वहीं, अधिकांश पूर्वोत्तर राज्यों की जलवायु कार्य योजना भी भविष्य में गर्म तापमान के साथ एक आर्द्र मॉनसून की भविष्यवाणी करती है।

सबूत के बिना
विश्वसनीय आंकड़ों और दीर्घकालिक अध्ययन की कमी बड़ी बाधा

जब स्पष्ट तौर पर बदलती मॉनसून प्रणाली के स्पष्ट लक्षण पूर्वोत्तर में व्यापक रूप से देखे जा सकते हैं तो विश्वसनीय आंकड़ों और दीर्घकालिक अध्ययन की कमी अनुकूलन प्रक्रिया के लिए बड़ी बाधा बन रहे हैं। एक तार्किक कठिनाई यह है कि निगरानी स्टेशन अक्सर उन जगहों पर उपलब्ध नहीं होते हैं जो अधिकतम अप्रत्याशितता से पीड़ित हैं। ऐसा ही एक उदाहरण अरुणाचल प्रदेश का पक्के केसांग जिला है। जिले का अकेला वर्षा निगरानी स्टेशन 2004 में बाढ़ के दौरान बह गया था और आईएमडी ने इसे फिर से स्थापित नहीं किया है।

गुवाहाटी स्थित गैर-लाभकारी आरण्यक के प्रमुख पार्थ ज्योति दास कहते हैं “बुनियादी ढांचे की कमी से डेटा का घनत्व और गुणवत्ता कम हो जाती है। यह अंतिम विश्लेषण को प्रभावित करता है।” यह विडंबना है, क्योंकि देश को इन अनिश्चित परिवर्तनों को समझने और उनका सामना करने में सक्षम होने के लिए पहले से कहीं अधिक गहन विश्लेषण की आवश्यकता है। दास कहते हैं “हम जानते हैं कि अक्सर सूक्ष्म जलवायु परिवर्तन ज्यादातर मामलों में वर्षा परिवर्तनशीलता के लिए जिम्मेदार होते हैं। लेकिन पूर्वोत्तर के मामले में आंकड़ों की कमी के कारण इस तरह के निदान को निश्चित रूप से बताना असंभव है।

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