जलवायु

जलवायु संकट: समुद्री जीवों से मिलने वाले 30 फीसदी पोषक तत्वों को खो सकते हैं कमजोर देश

इनमें कैल्शियम, आयरन, प्रोटीन और ओमेगा-3 फैटी एसिड्स जैसे बेहद अहम पोषक तत्व शामिल हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी होते हैं

Lalit Maurya

जलवायु में आते बदलावों के चलते आर्थिक रूप से कमजोर देश जो पहले ही पोषण के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वो इस सदी के अंत तक समुद्री भोजन से मिलने वाले 30 फीसदी पोषक तत्वों को खो सकते हैं। इनमें कैल्शियम, आयरन, प्रोटीन और ओमेगा-3 फैटी एसिड्स जैसे बेहद अहम पोषक तत्व भी शामिल हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी होते हैं।

बता दें कि ओमेगा-3 ऐसा पोषक तत्व है जो खाद्य पदार्थों में आसानी से नहीं मिलता। यही वजह है कि इसके लिए हम आज भी काफी हद तक सीफूड्स पर निर्भर रहते हैं। वहीं यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो शोधकर्ताओं का अनुमान है कि तापमान में हर डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ समुद्री भोजन से मिलने वाले इन पोषक तत्वों की उपलब्धता चार से सात फीसदी तक घट जाएगी।

दूसरी तरफ नाइजीरिया, सिएरा लियोन और सोलोमन आइलैंड सहित अन्य उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के कमजोर देशों में तापमान में हर डिग्री की वृद्धि के साथ इन पोषक तत्वों की उपलब्धता में 10 से 12 फीसदी की गिरावट आ सकती है। जो वैश्विक औसत से दो से तीन गुणा ज्यादा है।

यह जानकारी द यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया, लैंकेस्टर विश्वविद्यालय और डलहौजी विश्वविद्यालय, कनाडा के शोधकर्ताओं द्वारा किए नए अध्ययन में सामने आई है। इस अध्ययन के नतीजे 30 अक्टूबर 2023 को अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित हुए हैं।

रिसर्च के मुताबिक यह निष्कर्ष उच्च कार्बन उत्सर्जन और शमन के लिए किए जा रहे कम प्रयासों के परिदृश्य पर आधारित हैं। रिसर्च में यह भी सामने आया है कि अगर दुनिया पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल कर ले और बढ़ते तापमान को डेढ़ से दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने में कामयाभ हो जाए तो इस नुकसान को 10 फीसदी पर सीमित कम किया जा सकता है। हालांकि हाल में जारी रिपोर्टों से पता चला है कि दुनिया पेरिस समझौते के इन लक्ष्यों को हासिल करने की राह पर नहीं है।

इस बारे में अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता और यूबीसी इंस्टीट्यूट फॉर द ओसियन्स एंड फिशरीज के प्रोफेसर और निदेशक डॉक्टर विलियम चेउंग का कहना है कि, "कमजोर और दक्षिण के देश जहां समुद्री भोजन आहार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और कुपोषण को दूर करने में मददगार हो सकता है, वो जलवायु में आते बदलावों से सबसे अधिक पीड़ित हैं।" उनके मुताबिक इन क्षेत्रों में रहने वाले कई लोगों के लिए समुद्री भोजन पोषक तत्वों का एक अहम और सस्ता स्रोत है।

इसमें कोई शक नहीं की सीफूड्स इंसानी स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करते हैं। लेकिन जलवायु में आते बदलावों से इन सूक्ष्म पोषक तत्वों के उत्पादन पर क्या प्रभाव पड़ेगा वो अभी भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इसी पर प्रकाश डाला है।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मत्स्य पालन संबंधी ऐतिहासिक आंकड़ों और जलवायु मॉडल की मदद से भविष्य में इसमें आने वाले बदलावों को समझने का प्रयास किया है। उन्होंने इस अध्ययन में चार अहम पोषक तत्वों कैल्शियम, आयरन, प्रोटीन और ओमेगा -3 फैटी एसिड पर ध्यान केंद्रित किया है, जो समुद्री भोजन में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट “द स्टेट ऑफ वर्ल्ड फिशरीज एंड एक्वाकल्चर 2022” के मुताबिक जहां 1960 में प्रति व्यक्ति सीफूड की खपत 9.9 किलोग्राम थी जो बढ़कर प्रति व्यक्ति 20.2 किलोग्राम पर पहुंच गई है। इसी तरह यदि इससे मिलने वाले रोजगार की बात करें तो 60 करोड़ लोगों की जीविका किसी न किसी रूप में मत्स्य पालन और जलीय कृषि पर निर्भर है।

कैल्शियम की उपलब्धता में आ सकती है 40 फीसदी तक की गिरावट

रिसर्च से पता चला है कि इन पोषक तत्वों की उपलब्धता 1990 के दशक में अपने शिखर पर पहुंच गई थी, जो 2010 तक स्थिर रही। भले ही इस दौरान समुद्री जीवों जैसे झींगा, सीप जैसे अन्य जीवों को पकड़ने और मछली पालन में वृद्धि हुई थी। गौरतलब है कि 2017 में ही दुनिया के करीब 34 फीसदी फिश स्टॉक के लिए कहा गया था कि उसका बहुत ज्यादा दोहन किया जा रहा है।

रिसर्च से पता चला है कि सीफूड्स से मिलने वाले इन सभी चारों पोषक तत्वों की उपलब्धता कम होने की आशंका है। लेकिन कम और उच्च दोनों जलवायु परिदृश्यों में सदी के अंत तक कैल्शियम के सबसे ज्यादा प्रभावित होने की आशंका है। अनुमान है कि इसमें सदी के अंत तक करीब 15 से 40 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है।

इस बारे में अध्ययन से जुड़ी अन्य शोधकर्ता डॉक्टर क्रिस्टीना हिक्स का कहना है कि खुले समुद्रों में मिलने वाली छोटी मछलियां वास्तव में कैल्शियम से भरपूर होती हैं, ऐसे में दुनिया के उन देशों में जहां दूध का सेवन नहीं किया जाता या फिर मांस और डेयरी जैसे पशुओं से मिलने वाले खाद्य पदार्थ बहुत ज्यादा महंगे हैं, वहां मछली लोगों के आहार की कुंजी है।" उनके मुताबिक उष्णकटिबंधीय के आर्थिक रूप से कमजोर देशों में मछली उन पोषक तत्वों की पूर्ति करती है, जिनकी लोगों के आहार में कमी है।

इसी तरह ओमेगा-3 फैटी एसिड में करीब पांच से 25 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। इस कमी का सबसे प्रमुख कारण खुले समुद्रों में पकड़ने के उपलब्ध मछलियों की मात्रा में आने वाली कमी है।

शोध के मुताबिक, यह सही है कि सीफूड फार्मिंग भविष्य में पोषक तत्वों की उपलब्धता को मौजूदा स्तर से बढ़ाने में मदद करेगी। लेकिन यह मछलियों में कमी की वजह से पोषक तत्वों के होते नुकसान की भरपाई नहीं कर पाएगी। इतना ही नहीं यदि उत्सर्जन हो होती वृद्धि तेजी से जारी रहती है तो 2050 से पहले सी फार्मिंग की वजह से पोषक तत्वों की उपलब्धता को जो भी फायदा हुआ है वो सदी के अंत तक गायब हो जाएगा।

शोध में यह भी सामने आया है कि इंडोनेशिया, सोलोमन आइलैंड और सिएरा लियोन जैसे कम आय वाले उष्णकटिबंधीय देशों में, उच्च उत्सर्जन परिदृश्य में सदी के अंत समुद्रों से मिलने वाले सभी चारों पोषक तत्वों की उपलब्धता में काफी कमी आ सकती है। इसके विपरीत, कनाडा, अमेरिका और यूके जैसे अमीर गैर-उष्णकटिबंधीय देशों में इन पोषक तत्वों में बेहद कम गिरावट आएगी।

शोधकर्ताओं के अनुसार जलवायु में आता बदलाव सीफूड फार्मिंग और पोषक तत्वों की उपलब्धता दोनों के लिए एक बड़ा खतरा है। ऐसे में अकेले सीफूड फार्मिंग इस समस्या को हल नहीं कर सकती। शोधकर्ताओं के मुताबिक जितना अधिक हम बढ़ते तापमान को सीमित कर सकते हैं, समुद्री और मानव जीवन के लिए जोखिम उतना ही कम होगा।

शोधकर्ताओं के मुताबिक एंकोवी और हेरिंग जैसी कुछ मछलियां पोषक तत्वों से भरपूर होती हैं, लेकिन उन्हें फिश मील या फिश आयल के रूप में उपयोग किया जाता है। इसी तरह कई देश मछली के केवल विशिष्ट हिस्सों को ही बेचते हैं। ऐसे में शोधकर्ताओं ने इनकी बर्बादी को कम करना और स्थानीय लोगों के उपभोग के लिए पोषण से भरपूर इन मछलियों को रखने की बात कही है।

डॉक्टर चेउंग ने इस बात पर जोर दिया है कि भविष्य में समुद्री भोजन की आपूर्ति में न केवल आर्थिक लाभ को बल्कि कमजोर समुदायों की पोषण संबंधी जरूरतों को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि यह उपाय कितने प्रभावी हैं उसकी एक सीमा है, इसलिए जितना संभव हो सके बढ़ते तापमान को नियंत्रित करना जरूरी है।