जलवायु

जलवायु परिवर्तन से बढ़ सकती हैं मक्का जाने वालों की मुश्किलें: रिपोर्ट

एक अध्ययन में कहा गया है कि सऊदी अरब में जहां हज की जाती है, वहां आने वाले वर्षों में गर्मी और उमस काफी बढ़ जाएगी

Lalit Maurya

दुनिया भर के करीब 180 करोड़ मुसलमानों के लिए मक्का की तीर्थयात्रा करना एक धार्मिक कर्तव्य है। यदि उनकी स्वास्थ्य और धन सम्बन्धी रूकावट न हो तो, उन्हें अपने जीवनकाल में इसे कम से कम एक बार करना जरुरी है । इस धार्मिक यात्रा को हज के रूप में जाना जाता है | यह मुस्लिम धर्म के पांच स्तंभों में से एक है, जो की लगभग पांच दिनों का कार्यक्रम होता है, जिनमें से उन्हें 20 से 30 घंटे खुली हवा और धूप में बिताने होते हैं ।

मेसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (एमआईटी), कैलिफ़ोर्निया के शोधकर्ताओं द्वारा किये गए नए अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण इस बात का खतरा बढ़ रहा है कि आने वाले वर्षों में, सऊदी अरब के क्षेत्र में, जहां हज की जाती है, वहां गर्मी और उमस की स्थिति और बदतर हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप आने वाले वक्त में हज करना खतरनाक हो जायेगा। क्योंकि बढ़ते तापमान के चलते लोगों को असहनीय गर्मी का सामना करना पड़ सकता है, जो उनके स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बन सकती है।

गौरतलब है कि इस वर्ष 180 देशों के लगभग 18.5 लाख और सऊदी अरब के लगभग 600,000 मुस्लिम श्रद्धालुओं ने सऊदी अरब की चिलचिलाती गर्मी में अपनी धार्मिक यात्रा पूरी की है । और हर वर्ष लगभग इतने ही लोग इस यात्रा को पूरा करते हैं ।

साल दर साल बढ़ रहा है खतरा

जर्नल जियोफिजिकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार बढ़ते तापमान के कारण हज करने वालों के लिए खतरा साल दर साल बढ़ता जा रहा है, जिसके अगले साल और बढ़ने की सम्भावना है । हालांकि हज करने का समय हर साल बदलता रहता है, क्योंकि यह सूरज के स्थान पर चांद आधारित कैलेंडर द्वारा निर्धारित होता है । फिर भी शोधकर्ताओं ने इसके वर्ष 2047 से 2052 एवं 2079 से 2086 के बीच इसके सबसे गर्म महीनों के दौरान पड़ने के कारण, अधिक खतरे की सम्भावना जताई है और यह भी तब होगा जब जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को सीमित करने के लिए पर्याप्त उपाय किए जाएंगे, अन्यथा जोखिम के कहीं अधिक होने की सम्भावना है। जिसके कारण बचाव के उपाय करने और तीर्थयात्रियों की संख्या को सीमित करने तक की आवश्यकता पड़ सकती है ।

पहले भी घट चुकी हैं ऐसी घटनाएं

इन खतरों के सच होने के पहले भी संकेत मिल चुके हैं । पहली घटना 1990 में हज के दौरान घटी थी जब भगदड़ में 1,462 लोग मारे गए थे। वहीं दूसरी घटना 2015 में घटी थी जिसमें 769 लोग मारे गए थे और 934 घायल हो गए थे।

एमआईटी में सिविल और पर्यावरण इंजीनियरिंग के प्रोफेसर एल्फतिह एलताहिर ने बताया कि इन दोनों वर्षो में तापमान अपने चरम पर था और मौसम अत्यधिक उमस भरा था । कब किस स्तर पर गर्मी और उमस खतरनाक हो सकती है, उसे समझने के लिए वैज्ञानिक 'वेट-बल्ब टेंपरेचर ' का संदर्भ लेते हैं, जो यह मापता है कि पसीना कितनी अच्छी तरह से शरीर को ठंडा करता है। यदि नमी अधिक होती है, तो 'वेट-बल्ब टेंपरेचर ' कम होता है क्योंकि लोग कम पसीना निकाल पाते हैं।

यूएस नेशनल वेदर सर्विस द्वारा 39 डिग्री सेल्सियस से ऊपर के तापमान को ख़तरनाक माना है, जबकि 51 डिग्री सेल्सियस से ऊपर के 'वेट-बल्ब टेंपरेचर ' को "अत्यधिक खतरे" के रूप में वर्गीकृत किया गया है । जिस समय हीट स्ट्रोक का खतरा सबसे अधिक होता है, जो मस्तिष्क, हृदय, गुर्दे और मांसपेशियों को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है, यहां तक कि इससे जान भी जा सकती है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण, प्रत्येक गर्मियों में उन दिनों की संख्या में बढ़ोतरी होती जाएगी जब 'वेट-बल्ब टेंपरेचर ' अपने "चरम खतरे" की सीमा को पार कर जाएगा। प्रोफेसर एलताहिर का मानना है कि "अगर आप किसी स्थान पर मौसम की इतनी विषम परिस्थितियों के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में इकठा होते हैं तो इससे 1990 में हुए हादसे जैसी दुर्घटनाओं के होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी।"

प्रोफेसर एलताहिर का कहना है कि हज मुस्लिम संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसलिए सऊदी अरब के अधिकारियों के लिए यह महत्वपूर्ण होगा कि वह इन विषम परिस्थितियों से किस प्रकार निपटते हैं । उन्होंने इस दिशा में कुछ सुरक्षात्मक उपाय किये हैं, जैसे कि पानी की फुहार करना । लेकिन आने वाले वर्षों में हज करने वालों को संख्या को सीमित करना भी आवश्यक होगा, जिससे गंभीर हादसों को रोका जा सके और श्रद्धालुओं की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।