ला नीना ठंडे मौसम के पैटर्न भारी बारिश और बाढ़ के लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार है। इसके कारण हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण-पूर्व के कुछ इलाकों में भारी बाढ़ आई। वहीं अल नीनो जो हर बार कुछ वर्षों में ला नीना के साथ बदल जाता है। अल नीनो के कारण आमतौर पर दुनिया के अधिकांश हिस्सों में सूखा पड़ता है।
दोनों चरणों के एक साथ होने को, अल नीनो-दक्षिणी दोलन के रूप में जाना जाता है। यह पृथ्वी के मौसम को चलाने वाला सबसे शक्तिशाली कारणों में से एक है। हाल के वर्षों में दुनिया भर में मौसम निर्माता जलवायु में बदलाव को कैसे प्रभावित करेगा, इसमें सबसे अधिक वैज्ञानिकों की रुचि रही है। यह नया शोध इस सवाल पर प्रकाश डालता है।
शोध में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन 2030 तक अल नीनो-दक्षिणी दोलन को स्पष्ट रूप से प्रभावित करेगा वह भी केवल आठ वर्षों के समय में ऐसा हो सकता है।
मौसम की एक जटिल पहेली
अल नीनो-दक्षिणी दोलन उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में होता है, इसमें वातावरण और महासागर के बीच आपस में जुड़ी हुई जटिल क्रियाएं शामिल होती हैं। यह तीन चरणों में से एक में हो सकता है - अल नीनो, ला नीना या तटस्थ।
अल नीनो चरण के दौरान, मध्य और पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर काफी गर्म हो जाता है। यह पूरे प्रशांत क्षेत्र में बादलों का निर्माण करने और मौसम के पैटर्न में एक प्रमुख बदलाव के लिए जिम्मेदार है, जिससे आमतौर पर पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में शुष्क परिस्थितियां बनती हैं।
ला नीना चरण के दौरान, जो अभी हो रहा है, मध्य और पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में पानी औसत से अधिक ठंडा होता है। मौसम के पैटर्न से संबंधित परिवर्तनों में दुनिया के कुछ हिस्सों खासकर ऑस्ट्रेलिया के अधिकांश हिस्सों में औसत से अधिक वर्षा होती है।
जब दोलन तटस्थ चरण में होता है तो मौसम की स्थिति लंबी अवधि के औसत के आसपास मंडराती है। पिछले शोधों ने सुझाव दिया है कि अल नीनो और ला नीना की घटनाएं इस आधार पर भिन्न हो सकती हैं कि उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में गर्म या ठंडे समुद्र का तापमान कहां होता है।
लेकिन जलवायु परिवर्तन का असर समुद्र के तापमान पर भी पड़ रहा है। यह अल नीनो और ला नीना की घटनाओं पर कैसे असर डालता है? और मौसम के पैटर्न में होने वाले परिवर्तन का पता कहां लगाया जा सकता है? शोधकर्ता ने कहा ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब हमारा शोध जानना चाहता है।
शोध में क्या पाया गया
शोधकर्ता ने बताया कि हमने 1950 से अल नीनो-दक्षिणी दोलन पर 70 वर्षों के आंकड़ों की जांच की और इसे उपलब्ध सबसे उन्नत जलवायु मॉडल में से 58 के साथ जोड़ा।
जहां हमें अल नीनो और ला नीना की घटनाओं पर जलवायु परिवर्तन का असर दिखाई दिया, यह आने वाले समय में पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में समुद्र की सतह के तापमान में बदलाव के रूप में दिखेगा, जिसका पता 2030 तक लगाया जा सकेगा। यह पहले की तुलना में चार दशक पहले का है।
वैज्ञानिकों को पहले से ही इस बात की जानकारी है कि जलवायु परिवर्तन अल नीनो-दक्षिणी दोलन को प्रभावित कर रहा है। लेकिन क्योंकि दोलन अपने आप में इतना जटिल और परिवर्तनशील है, इसलिए यह पहचानना कठिन हो गया है कि बदलाव सबसे अधिक कहां हो रहा है।
हालांकि, यह अध्ययन जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दिखता है, जो उष्णकटिबंधीय पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में समुद्र की सतह के तापमान में बदलाव के रूप में दिखाई देता है, लगभग आठ वर्षों के भीतर यह और स्पष्ट हो जाएगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण पूर्वी प्रशांत महासागर के गर्म होने से अल नीनो की घटनाएं और तेज होंगी। जब ऐसा होता है, तो बारिश पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र से दूर होती हैं जहां ऑस्ट्रेलिया स्थित है। इसका मतलब है कि ऑस्ट्रेलिया में अत्यधिक सूखे की स्थिति होने के आसार हैं।
इससे पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में और अधिक बारिश होने की भी आशंका है, जो दक्षिणी मेक्सिको से उत्तरी पेरू तक मध्य अमेरिका के प्रशांत तट तक फैला हुआ है।
शक्तिशाली एल नीनो की घटनाओं के बाद अक्सर और लंबे समय तक चलने वाला ला नीना होता है। तो इसका मतलब होगा पूर्वी प्रशांत महासागर का ठंडा होना, बारिश को वापस ऑस्ट्रेलिया की ओर लाना, जिससे बहुत अधिक भारी बारिश और भयंकर बाढ़ का आना है जो हाल के महीनों में यहां देखी गई।
आगे क्या हो सकता है ?
अल नीनो और ला नीना से जुड़े मौसमी बदलाव जो मानव स्वास्थ्य, खाद्य उत्पादन, ऊर्जा और जल आपूर्ति और दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित कर सकता है।
शोध से पता चलता है कि दुनिया के अधिकतर इलाकों के लोगों को, भयंकर बाढ़ और सूखे के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि जलवायु परिवर्तन अल नीनो-दक्षिणी दोलन के प्राकृतिक मौसम के पैटर्न में गड़बड़ी पैदा करता है।
शोधकर्ताओं ने कहा हमारे निष्कर्षों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने के लिए नीतियों और रणनीतियों में शामिल किया जाना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण सुझावों में पृथ्वी की जलवायु को स्थिर करने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने की तत्काल जरूरत पर जोर दिया गया है। यह अध्ययन नेचर कम्युनिकेशंस नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।