दुनिया भर में जिस तरह से कृषि उत्पादन में वृद्धि करने के लिए नाइट्रोजन उर्वरकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा रहा है, वो जलवायु के लिए एक बड़ा खतरा बनता जा रहा है। हाल ही में जर्नल नेचर में छपे शोध से पता चला है कि दुनिया भर में नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा में बड़ी तेजी से वृद्धि हो रही है, जिसके पीछे इन नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का बड़ा हाथ है।
शोध से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड का स्तर पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 20 फीसदी बढ़ चुका है। जबकि इसमें हो रही वृद्धि की बात करें तो यह हर दशक 2 फीसदी की दर से बढ़ रही है।
यह शोध 14 देशों के 57 वैज्ञानिकों और 48 अनुसंधान संस्थानों के सहयोग से किया गया है। जिसमें इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम एनालिसिस (आईआईएएसए) संस्थान की प्रमुख भूमिका थी। इस शोध का लक्ष्य नाइट्रस ऑक्साइड के सभी स्रोतों और उसके विषय में व्यापक जानकारी प्राप्त करना था।
इसके विषय में शोध के प्रमुख शोधकर्ता हनकिन तियान ने बताया कि वातावरण में बढ़ रही नाइट्रस ऑक्साइड के पीछे कृषि का बहुत बड़ा हाथ है। इसके साथ ही मवेशियों के लिए बढ़ते भोजन और फीड की मांग भी वैश्विक नाइट्रस ऑक्साइड में हो रहे इजाफे के लिए जिम्मेवार है। ऐसे में हम जिस तरह से कृषि में बढ़ोतरी के लिए उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहे हैं और दूसरी तरफ जलवायु के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं वो आपस में संघर्ष की स्थिति को पैदा कर रहा है।
नाइट्रस ऑक्साइड जलवायु के लिए कितनी खतरनाक है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह ग्रीनहाउस गैस, कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 300 गुना ज्यादा शक्तिशाली होती है। साथ ही यह मानव जीवनकाल की तुलना में अधिक समय तक वातावरण में बनी रह सकती है।
शोध के अनुसार वैश्विक नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन में सबसे बड़ा योगदान पूर्वी, दक्षिण एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका का है। जो इसका बड़े पैमाने पर उत्सर्जन कर रहे हैं। यदि सिंथेटिक उर्वरकों की बात करें तो उसमें चीन, भारत और अमेरिका का सबसे बड़ा हाथ है। जबकि गोबर से बनने वाली खाद के रूप में अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका का दबदबा बना हुआ है। वहीं इसके उत्सर्जन में हो रही वृद्धि की बात करें तो इसके लिए ब्राजील, चीन और भारत जैसे विकाशील देश मुख्य रूप से जिम्मेवार हैं।
इस शोध में सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह सामने आई कि जिस तरह से नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है उसको देखते हुए पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करना मुमकिन नहीं होगा। शोध से जुड़े एक अन्य शोधकर्ता रोबर्ट जैक्सन के अनुसार जिस तरह से आज उत्सर्जन हो रहा है उसके चलते तापमान में हो रही वृद्धि 3 डिग्री सेल्सियस से भी ऊपर जा सकती है जोकि पेरिस समझौते के लक्ष्य से दोगुनी है।
शोधकर्ता विल्फ्रेड विनीवार्ट ने बताया कि विश्व में अकेले यूरोप ऐसा है जिसने पिछले दो दशकों में इसके उत्सर्जन में लगाम लगाने में सफलता हासिल की है। वहां इस दिशा में किए गए प्रयास और नीतियां सफल हुई हैं इसके बावजूद वैश्विक रूप से इसके उत्सर्जन में कमी लाने के लिए अभी और प्रयास करने होंगे। इसके एमिशन में कमी न केवल जलवायु के दृष्टिकोण से लाभदायक होगी, साथ ही इससे वायु और जल प्रदूषण के स्तर में भी गिरावट आएगी। जो इकोसिस्टम के साथ-साथ हमारे स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद होगी।