इसमें कोई शक नहीं कि बैंक और अन्य वित्तीय सेवाएं लोगों को वित्तीय जोखिमों का सामना करने में मदद करती हैं। लेकिन क्या बैंक और वित्तीय सेवाएं, जलवायु परिवर्तन से जुड़े खतरों से भी निपटने में मददगार हो सकती हैं? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब शोधकर्ताओं के पास नहीं था।
लेकिन हाल ही में इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस, हैदराबाद और यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के यूसीएल स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के शोधकर्ताओं ने इसका जवाब ढूंढ़ लिया है। रिसर्च से पता चला यह कि बैंक खाते और अन्य वित्तीय सेवाओं तक पहुंच भारत के ग्रामीण परिवारों की जलवायु से जुड़े खतरों से निपटने में मदद कर सकती है। इस रिसर्च के नतीजे जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुए हैं।
रिसर्च के मुताबिक जिन क्षेत्रों में जलवायु से जुड़े खतरे कहीं ज्यादा प्रबल हैं वहां लोगों को इनका सामना करने के लिए नकद रूप से रुपए पैसों की जरूरत होती है। ऐसे में यदि इन क्षेत्रों में ग्रामीणों की बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों तक बेहतर पहुंच से परिवारों के पास नकदी तक पहुंच की गुंजाइश बढ़ जाती है। ऐसे में यह सेवाएं लोगों को नकद रूप से सम्पति रखने की आवश्यकता को कम करती हैं।
गौरतलब है कि इस तरह के जोखिमों को कम करने के लिए आमतौर पर ग्रामीण परिवार सम्पति को सोना, चांदी, मवेशियों के साथ और अन्य रूप में रखते हैं जिससे इस तरह की स्थिति में उन्हें जल्द से जल्द नकदी में बदला जा सके। देखा जाए तो उनकी संपत्ति का यह भाग जलवायु से जुड़े जोखिमों का सामना करने में एक बफर के रूप में काम करता है।
इस बारे में इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के कार्यकारी निदेशक अश्विनी छत्रे ने डाउन टू अर्थ को बताया कि लगभग सभी ग्रामीण परिवारों के पास नकदी तक सीमित पहुंच है।" उनके अनुसार नकदी में सुधार का तरीका वित्तीय समावेशन से जुड़ा है।
जलवायु संकट की घड़ी में 57 फीसदी ने अपनी बचत का लिया था सहारा
बैंक जैसे वित्तीय संस्थानों तक पहुंच लोगों को अपने धन का प्रभावी ढंग से उपयोग करने में मदद करती है। इसकी वजह से वो अपने धन को नकद रूप में रखने की जगह निवेश में लगा सकते हैं। यह लोगों को केवल नकदी रखने की जगह उत्पादक तरीके से अपने संसाधनों का उपयोग करने की अनुमति देता है।
देखा जाए तो यदि ग्रामीण परिवारों के पास नकदी तक पहुंच न हो तो ऐसी स्थिती में उन्हें अनौपचारिक स्रोतों से ज्यादा ब्याज देकर कर्ज लेना पड़ता है।
अपने इस अध्ययन में छत्रे और उनके सहयोगियों ने अंतरराष्ट्रीय अर्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान (इक्रीसेट) के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इन आंकड़ों में 2010 से 2014 के बीच भारत में अर्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में 30 गांवों के 1,082 ग्रामीण परिवारों को कवर किया है।
विश्लेषण के मुताबिक 59 फीसदी परिवारों ने पांच वर्षों में कम से कम एक बार जलवायु से जुड़े खतरे का सामना किया था। वहीं 13 फीसदी को दूसरे साल में ही इनका सामना करने के लिए मजबूर होना आपदा था। इतना ही नहीं 633 परिवारों में कम से कम 57 फीसदी ने जलवायु से जुड़े इन संकटों का सामना करने के लिए अपनी बचत का उपयोग किया था।
सर्वेक्षण में यह भी सामने आया है कि परिवार इनसे निपटने के लिए अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, ग्रामीण समुदायों, साहूकारों, बैंकों से मिली वित्तीय सहायता पर निर्भर करते हैं। औसतन परिवारों के पास अपनी संपत्ति का करीब 15.6 फीसदी हिस्सा नकदी के रूप में है। हालांकि जो लोग बैंकों का उपयोग करते हैं, उनके पास दूसरों की तुलना जलवायु संकट के दौरान तुलनात्मक रूप से नकद के रूप में 13 फीसदी तक कम संपत्ति होती है।
इसी तरह जहां भारी बारिश और तापमान का जोखिम ज्यादा है। वहां उन परिवारों के पास जो वित्तीय सेवाओं से दूर हैं 50 फीसदी तक सम्पति नकद के रूप में होने का अनुमान है। वहीं इसके विपरीत जिनके पास बैंकों की सुविधा है उन परिवारों में 20 फीसदी संपत्ति नकदी के रूप में है।
ऐसे में शोधकर्ताओं ने जानकारी दी है कि उन क्षेत्रों में जहां जलवायु से जुड़े जोखिमों का खतरा कही ज्यादा है वहां वित्तीय सेवाओं तक बेहतर पहुंच परिवारों को संसाधनों को नकद रूप में रखने की जरूरत को कम कर देगा। यही वजह है कि जलवायु जोखिमों से निपटने के लिए उन्हें उत्पादक निवेश उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता है।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने अनुकूलन की केंद्रीकृत योजना पर भी प्रकाश डाला है। इस बारे में छत्रे ने समझाया कि ऐसा कोई रास्ता नहीं है जहां केंद्र में बैठा योजना बनाने वाला ऐसे योजना बना सके जो सबके लिए उपयुक्त हो और सबको समान रूप से फायदा पहुंचाए। उनके मुताबिक जलवायु अनुकूलन के लिए लोगों को उनके हाथ में संसाधन देने की जरूरत है, क्योंकि वो जलवायु से जुड़े प्रभावों को समझने में सबसे बेहतर स्थिति में हैं। साथ ही यह घरेलु स्तर पर सबसे उपयुक्त रणनीति भी है।
विशेषज्ञ ने बताया कि, "ऐसा सिस्टम तैयार करना सबसे बेहतर है, जो इन परिवारों को निर्णय लेने की छूट देते हैं। परिवार ही तय कर सकते हैं कि सबसे अच्छा तरीका क्या है। शोधकर्ता भविष्य में इस बात के अध्ययन की योजना बना रहे हैं कि लोग कितनी बार बैंकों में वापस जाते हैं और क्या समय के साथ बैंकिंग प्रणाली के प्रति उनके विश्वास में सुधार हुआ है।